रविवार, 1 अप्रैल 2012

सर्वशिक्षा अभियान एक छलावा है
-सुभाष चन्द्र कुशवाहा
अपने देश में प्रौढ़ शिक्षा अभियान के नाम पर अरबों खर्च करने के बाद भी अनपढ़ों की सूरत और सीरत में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है। देश में साक्षर अनपढ़ों की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है । सामाजिक शिक्षा(1952-56), ग्राम शिक्षा मुहीम(1959), फारमर्स फक्शनल लिटरेसी प्रोग्राम(हरित क्रांति के अंतर्गत 1966-67 में ), वरकर्स एजुकेशन प्रोग्राम, नान फारमर्स एजुकेशन फार यूथ(1975-76) और 2 अक्टूबर 1978 को शुरू किये गये राष्ट्रीय प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम अनपढ़ों को शिक्षित करने के नाम पर सफेद हाथी सिद्ध हुये हैं। ये सारी योजनायें गरीबों की अशिक्षा को मुंह चिढ़ाने, लूट-खसोट को बढ़ावा देने तथा कुछ नौकरशाहों को ऐशोआराम का साधन उपलब्ध कराने का माध्यम बनीं । 1987 में शुरू किये गये आपरेशन ब्लैक बोर्ड द्वारा यह अभियान चला कि जिन प्राथमिक विद्यालयों में एक अध्यापक है वहां कम से कम दो अध्यापक तैनात किए जायें । इस योजना का भी हश्र बजट डकारने के अलावा और कुछ नहीं हुआ । 1993 में यशपाल कमेटी ने गुणात्मक शिक्षा देने की वकालत की और सरकार ने 1998 में राष्ट्रीय साक्षरता मिशन की शुरुआत की । आज राष्ट्रीय साक्षरता मिशन की सफलता के जितने भी आंकड़े पेश किये जायें, हकीकत में इस योजना की एक ही पहचान है कि शिक्षा के नाम पर बच्चों को कटोरा लेकर स्कूल आने, मिड-डे मील खाकर चले जाने या प्राथमिक विद्यालयों में नाम लिखा कर वजीफा वसूलने और पढ़ने के लिये किसी निजी स्कूल में जाने के अलावा कुछ नहीं । इस अभियान से सबसे ज्यादा खुश ग्राम प्रधान, ग्राम सचिव और इससे जुडे़ दूसरे अधिकारी हैं । अपने देश में गरीबों के लिए शिक्षा का मतलब ‘मिड-डे-मील’ बना दिया गया है । उन्हें ककहरा से आगे पढ़ने की जरूरत नहीं । वजीफा लें, खाना खायें, बिना अध्यापक के पढ़ें । उत्तीर्ण हों और नरेगा मजदूर बनें । यही हमारे नियंताओं की नीति है ।
अस्सी-नब्बे दशक तक गंवई स्कूलों से पढ़े तमाम लड़के शासन-प्रशासन की धुरी बन जातेे थे । इसी से बौखला कर शिक्षा देने की ऐसी नीति अपनाई गई कि मामला पलट जाये । अब गांव के पढ़े बच्चे उच्च या व्यावसायिक शिक्षा की ओर नहीं जा रहेे । पहले पेड़ तले, बिना मिड-डे-मील खाये पढ़ाई हो जाती थी । अब तो बच्चों की टुकटुकी पक रही खिचड़ी की ओर रहती है । श्यामपट् पर गणित, विज्ञान या भाषा नहीं, पकवानों के नाम होते हैं । मुफ्त में खाना, किताबें, वजीफा, साइकिल, बस्ता, भूकम्परोधी भवन, सब कुछ देने का मकसद पढ़ाई देना नहीं है । वहां योग्य अध्यापक देने की कोई नीति नहीं बनाई जा रही है । ज्यादातर अप्रशिक्षित अध्यापक नियुक्त हैं । सरकारी स्कूलों में पढ़ाई के अलावा वह सब कुछ होता है जिससे गरीबों को भरमाये रखा जाये । कक्षा आठ तक पढ़े लड़के तेरह का पहाड़ा नहीं सुना सकते । यह चिंता का विषय है कि दोहरी शिक्षा नीति के कारण गरीब बच्चों की पढ़ाई दिखावटी हो चली है । एकाध मेधावी कहीं इधर-उधर सेे पढ़ भी ले रहे हैं तो व्यावसायिक शिक्षा का खर्च न उठा पाने की स्थिति में आगे की पढ़ाई से वंचित रह जा रहे हैं या आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं । गरीबों को शिक्षा उपलब्ध कराने वाली सरकारी संस्थाएं जानबूझकर बीमार बना दी गई हैं और दूसरी ओर निजी पंचसितारा स्कूलों में दाखिले के लिये लाखों खर्च किये जा रहे हैं । वहां कम्प्यूटर, प्रोजेक्टर से शिक्षा दी जा रही है । एक को ककहरा दूसरे को आधुनिक शिक्षा, यही है सर्वशिक्षा नीति का मकसद ।
बेशक जनगणना रिपोर्ट में 74 फीसदी आबादी साक्षर हो गई हो पर यह साक्षरता मात्र नाम लिखने भर को है । ऐसी साक्षरता सामाजिक हस्तक्षेप के लिए कतई नहीं है ।
अपने देश में 26 करोड़ लोग ऐसे हैं, जिन्हें खाने के लिए दाल, सब्जी या चटनी में से कोई एक चीज बामुश्किल मिल पाती है । ग्रामीण क्षेत्रों में 28 प्रतिशत लोगों कि दैनिक उपभोक्ता व्यय 12 रुपए से कम है जबकि शहरी क्षेत्र के 33 प्रतिशत लोग, रोजाना खाने-पीने पर 20 रुपए से ज्यादा खर्च नहीं कर पाते हैं। 11 प्रतिशत ग्रामीण आबादी ऐसी है जिनके पास दैनिक व्यय के लिए 8 रुपए से ज्यादा उपलब्ध नहीं है । ऐसी स्थिति में इन गरीबों के बच्चे लाखों की सलाना फीस वाले किसी निजी या व्यावसायिक संस्थान में कैसे पढ़ेंगे ? योग्यता की बात करने वाले यह नहीं बताते कि गरीब मेधावी लड़के आई0आई0टी0 या आई0एम0ए0 में चयनित होने पर लाखों की फीस कैसे चुकाएंगे ? क्या इन संस्थानों में चयनित गरीबों को निशुल्क पढ़ाने की व्यवस्था है ? दूसरी ओर पैसे वाले अपने आवारा और अयोग्य बच्चों को बिना प्रतियोगी परीक्षा पास कराए पेड सीट पर दाखिला करा ही रहे हैं ।
गरीबों की हिमायती सरकारें दोहरी शिक्षा नीति पर प्रहार क्यों नहीं करतीं ? समान नागरिकों को समान शिक्षा पाने का हक क्यों नहीं दिया जाता ? गुणात्मक शिक्षा से गरीबों को वंचित कर प्रतियोगिता परीक्षाओं से अलग करने की चाल है । प्रतियोगी परीक्षाओं का सारा ढ़ांचा पैसे वालों के लिए तैयार किया जा रहा है । देश में खुल रहे महंगें कोचिंग संस्थान और महंगी पुस्तकें गरीबों को दौड़ से बाहर कर रही हंै । गरीबों के बच्चे जिन प्राथमिक स्कूलों में खिचड़ी खाने के लालच में जाते हैं वहां पढ़ाई किसके सहारे होगी, एक बानगी देखिये । देश के 6,51,064 प्राथमिक स्कूलों में से 15.67 फीसदी स्कूलों में एक या एक भी शिक्षक नहीं हैं । जहां हैं वहां पढ़ाने के बजाए, खाना पकाने की तैयारी में लगे रहते हैं । अध्यापकों के जिम्मे मिड-डे-मील तैयार करवाना, स्कूल भवन बनवाना, जनगणना, चुनाव और पल्स पोलियो अभियान में काम करना भी होता है। 1996 में कराये गए छठे सम्पूर्ण भारतीय सर्वेक्षण में बीस फीसदी स्कूलों में सिर्फ दो अध्यापक पाए गए । सातवें सर्वेक्षण में पाया गया कि प्राथमिक स्कूलों के कुल 25,33,205 पूणर््ाकालिक शिक्षकों में से लगभग 21 प्रतिशत अप्रशिक्षित हैं । यह विचार करने का विषय है कि जब स्कूलों में अध्यापक ही नहीं होंगे तब क्या खिचड़ी खिलाने से बच्चे पढ़ पायेंगे ? अभी हाल में लोकसभा में बताया गया कि देश में कुल 6.89 लाख प्राथमिक अध्यापकों की कमी है । इनमें से उत्तर प्रदेश मंे 1.4 लाख, बिहार में 2..11 लाख, म0प्र0 में 72,980 प0बंगाल में 86,116 झारखंड में 20,745 और महाराष्ट्र में 26,123 प्राथमिक अध्यापकों की कमी है ।
वर्तमान केन्द्रीय बजट में स्कूल भवन बनवाने पर तो जोऱ दिया गया है, पर इन स्कूलों में बेहतर शिक्षा कैसे दी जाये, इस पर कोई कार्ययोजना बनाने की जरूरत नहीं समझी गई है। जिस ‘मिड-डे-मील’ ने प्राथमिक स्कूलों से शिक्षा को बेदखल किया है उसके मद में 11,937 करोड़ का प्राविधान किया गया है । सरकार को गरीबों की मदद करनी है तो सीधे बच्चें के मां-बाप को करे । उन्हें राशन दे । पुस्तकें और बेहतर शिक्षा के लिये आवश्यक सामग्री दे पर स्कूलों में पढ़ाई और अन्य रचनात्मक कार्यों यथा खेल-कूद, सांस्कृतिक प्रशिक्षण, वाद-विवाद प्रतियोगितायें ही होने चाहिये । शिक्षामित्रों के सहारे या अयोग्य मृतक आश्रितों को अध्यापक बना कर शिक्षण कार्य नहीं किया जा सकता । अगर यह व्यवस्था उचित है तो इसे नीजि स्कूलों में क्यों नहीं लागू किया जाता ? शहरी मांयें पैरेंट्स डे पर अपने बच्चें की प्रोग्रेस जानने जाती हैं जबकि गांव की मांओं को कहा जाता है कि -‘बारी, बारी मांयंे आयें, जाचें, परखें तभी खिलायें ।’ तो क्या यह नीति गंवई बच्चों को बेहतर शिक्षा देने की है या सर्व शिक्षा अभियान के बहाने उन्हें शैक्षिक अपाहिज बनाकर ऊपर बढ़ने से रोकने का एक कुचक्र है ?
सुभाष चन्द्र कुशवाहा
बी 4/140 विशालखंड
गोमतीनगर
लखनऊ 226010

शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

अमानवीय व्यवहार और मजदूर आंदोलन

विगत कुछ माहों से देश में मजदूर आंदोलन की सुगबुगाहट, निजी सेवा के अमानवीयकरण की कथा-व्यथा उजागर करने के लिये पर्याप्त है । हुंडई, अशोक ले-लैंड और मारुति-सुजुकी के मजदूर आंदोलनों ने औद्योगिक नीति निर्माताओं को सचेत किया है और बताने की कोशिश की है कि जुल्म की भी इंतहा होती । यह तब हो रहा है जब वैश्वीकरण ने मजदूर चेतना को न केवल कुंद किया है अपितु तमाम मजदूर संगठनों को उत्पादक विरोधी बताते हुये हाशिये पर डालने की ऐसी अर्थनीति स्थापित की है जहां सरकारी और स्थाई नौकरियों के लिये जगह न बचे । नौकरियां घरेलू नौकरों की तरह बना दी जायें और पूरी तरह नियोक्ता की मर्जी पर निर्भर रहें । कानून सम्मत व्यवस्था का हस्तक्षेप समाप्त कर दिया जाये । सरकारें दायित्वविहीन, लाचार या मौन सहमति देती नजर आयें । दरअसल यह दास प्रथा का एक ऐसा रूप है जहां नौकरी छोड़ने का अधिकार तो है पर सेवा में रह कर स्वतंत्र सोच, सुविधा, मनुष्यता, घर-परिवार, समाज, भविष्य और राष्ट्रहीत के लिये सोचने का अवसर समाप्त कर दिया जा रहा है ।
वैश्वीकरण अर्थनीति में औद्योगिक क्षेत्रों में स्थाई कर्मचारियों की नियुक्तियां नहीं हो रहीं । संविदा के तहत सस्ते मजदूर रखे जा रहे हैं । कंपनी कर्मचारियों के हितों की सुरक्षा यथा- पेंशन, बीमा, शिक्षा और चिकित्सा से पूरी तरह मुक्त हो गयी है । निजी सेवाओं में प्रबंधकों की अच्छी पगारें, जल्दी-जल्दी बदलते मातहतों से हाड़तोड़ मेहनत करा लेती हैं । वहां सेवा की अनिश्चितता के चलते नौकरी बचाने के लिए सेवक दिन-रात कार्य करते हैं । कार्य के लक्ष्य ऐसे निर्धारित किये जाते हैं कि 16 से 18 घंटे कार्य करने पर ही नौकरी सुरक्षित रहे । घर पर भी लैपटाप पर काम करते हुए भोजन करना, चार से पांच घंटा सोना और संयुक्त परिवार से तौबा कर लेना, नई सेवा नीति का अमानवीय चेहरा है । लम्बे आंदोलन के बाद दुनिया के मजदूरों ने एक दिन में आठ घंटे काम का अधिकार हासिल किया था । आज वह अधिकार बेमानी साबित हो रहा है । विकास की नई प्रक्रिया इतनी अमानवीय बना दी गई है कि निजी सेवाओं से संबद्ध सेवक अपने मां-बाप की मृत्यु पर श्राद्ध जैसे कामों को पूरा नहीं कर पाते । वहां पत्नी और बच्चों के लिए समय की गुंजाइश नही है । फिर तो अन्य सामाजिक अभिरुचियों यथा, खेल-कूद, कला, संस्कृति, साहित्य के लिए समय के बारे में सोचना ही बेमानी होगी । निजी सेवायें, सेवकों की क्षमता का अंतिम बूंद निचोड़ लेना चाहती हैं और बदले में उन्हें डायबिटीज, ब्लडप्रेशर जैसी घातक बीमारियों का तोहफा सौंप रही हैं । संविदा और स्थाई कर्मचारियों के वेतन का अंतर, नौकरीकत्र्ता के प्रति सामाजिक संबंधों का विलोप, मजदूर आंदोलन के कारण हैं । केवल अपने लाभ के लिये कर्मचारी से काम लेना और उनकी मुश्किलों को दरकिनार करना, विकास का पैमाना नहीं हो सकता । अपने देश के नीजि क्षेत्र में कर्मचारियों से कितना काम लिया जाता है और बदले में उन्हें क्या दिया जाता है, इस संबंध में अर्थशास्त्री सुरजीत मजमूदार कहते हैं- 1998-99 की तुलना में वर्ष 2008-2009 में अपने यहां प्रति मजदूर ने दो लाख शुद्ध मूल्य सृजन(नेट वैल्यू एडेड) की तुलना में 6 लाख मूल्य सृजन किया जबकि इसी अवधि में उसके वेतन में नेट वेल्यू एडेड की तुलना में 18 प्रतिशत की तुलना में 11 प्रतिशत की कमी की गई । मारुति-सुजुकी के स्थाई कर्मचारियों को जहां 13000 से 17000 रुपये वेतन मिलता है वहीं संविदा कर्मचारियों को मात्र रु0 6500 ।
अपने देश में ज्यादातर मजदूर असंगठित क्षेत्रों में काम करते हैं और लचर श्रम कानून की सीमा से परे होते हैं । केवल 8-9 प्रतिशत मजदूर ही श्रम कानून के अंतर्गत आते हैं । इसके बावजूद हमारे उद्योगपतियों का नजरिया यह है कि फिक्की के श्रम ब्यूरो प्रमुख बी0पी0 पंत कहते हैं कि श्रम कानून अंग्रेजों के जमाने का है । तब की परिस्थितियां ऐसी थीं कि मजदूर हितों की हिफाजत की जरूरत थी । अब इसकी जरूरत क्या है ? यानी, अंग्रेजों की जगह भारतीय हैवानों से बचाने की कोई जरूरत नहीं ? यह तर्क गले नहीं उतरता । अब पंत हरियाणा स्थित मारुति-सुजुकी कंपनी में हड़ताल के कारणों का शायद ही खुलासा करें या बतायें कि बिना किसी वामपंथी संगठन के सोनू गुज्जर नामक आई0टी0आई0 पास एक कर्मचारी ने, जिसकी विगत पांच सालों में 98.1 प्रतिशत उपस्थिति रही, जिसे सर्वश्रेष्ठ आपरेटर पुरस्कार और सर्वश्रेष्ठ कर्मचारी के लिये प्रबंधकीय निदेशक ट्राफी दी गई, वह क्यों कर्मचारियों को आंदोलन के रास्ते पर ले जाने और कंपनी को घाटे में पहुचाने का कारण बना ? वह क्यों कंपनी को इस स्थिति में ले गया जहां प्रबंधकों को घोषणा करनी पड़़ी कि कंपनी हरियाणा से गुजरात स्थानान्तरित कर दी जायेगी ।
न्यायपरक औद्योगिक नीति का दायित्व होता है कि सेवक और स्वामी का संबंध, कार्य की गुणवत्ता, दायित्वबोध, सेवाभाव और कुल मिलाकर राष्ट्र सेवा की संस्कृति निर्धारित करे । पर संविदा सेवायें, सेवा और समाज से जुड़ाव नहीं पैदा कर रहीं , यहां तक की कार्यरत संस्थान से भी नहीं । जब सेवा शर्ते लोकतांत्रिक हों तो सेवक भी लोकतांत्रिक व्यवहार करता है अन्यथा तात्कालिक लाभ के लिए वह अलोकतांत्रिक तरीके अपनाता है जिसमें आंदोलन या तालाबंदी भी शामिल है । सेवक के अंदर दायित्वबोध का आभास तभी होता है जब उसे लगता है कि नियोजक, उसके दुख-सुख का साथी है । इसलिये औद्योगिक विकास और तालाबंदी से बचने के लिये जरूरी है कि प्रबंधतंत्र, मजदूर को परिवार का हिस्सा समझे और तदनुसार मानवीय व्यवहार करे ।

गुरुवार, 3 नवंबर 2011

सूफ़ीवादः एक नूर ते सब जग उपज्यां

विश्व के सभी धर्मों की उत्पत्ति, तत्कालीन समाज के अनसुलझे, अतार्किक, पाखंडी और दुरूह क्रियाकलापों के समाधान की सरलीकृत, अंगीकृत, रहस्यवादी प्रक्रिया है । ‘सभी धर्मों में कमोबेश रहस्यवाद की प्रवृत्ति पाई जाती है । रहस्यवादी प्रवृत्ति, धर्म से जुड़ी होकर भी धर्म के संस्थानिक रूप की विरोधी होती है । वह प्रत्येक व्यक्ति की आध्यात्मिक, दार्शनिक जिज्ञासा के स्वाभाविक एवं लोकतांत्रिक अधिकारों को बनाये रखने की दृष्टि से जुड़ी होती है । रहस्यवादी मानता है कि संपूर्ण सांसारिक गतिविधियां परम सत्ता से पैदा होकर उसी में विलीन हो जाती हैं । रहस्यवादी परम सत्ता को सांसारिक बुद्धि से नहीं, आंतरिक साधना से जानना चाहता है । वह सबसे ज्यादा प्रेम की अनुभूति पर बल देता है । इस प्रकार प्रेम साधना ही रहस्यवादी साधक की सच्ची साधना होती है । उसमें ‘मैं’ का पूर्ण विसर्जन करना पड़ता है । इससे परमात्मा से जो अंतरंगता स्थापित होती है, उससे कोई अलग या पराया नहीं रह जाता ।’1 सूफ़वादी विचारधारा के मूल में इसी दर्शन का प्रभाव है ।
धर्म मानव निर्मित हैं । यह और बात है कि इनकी रचना प्रक्रिया में हमने निर्माता को परम मानव या ईश्वरीय शक्ति का वाहक स्वीकार कर, उसे अपना नियंता मान लिया है । कोई भी धर्म शून्य से पैदा नहीं हुआ । नवीन धर्म पर पूर्वगामी धर्मों के उज्जवल पक्षों का न्यूनाधिक ही सही, प्रभाव पड़ा है। स्वयं नवीन धर्मों के देवदूत, किसी न किसी पूर्वगामी धर्म में ही जन्म लिये हैं । यानी कि उनके बाल्यावस्था पर पूर्वगामी धर्मों का प्रभाव पड़ा है । ऐसे में संयुक्त धर्मोत्पत्ति के कारण अनेको मिश्रित धर्म साखाओं की भी उत्पत्ति हुई है । जैसे कि हिन्दू धर्म पर पाषाणकालीन मूर्ति पूजा, पशु-पक्षी पूजा, प्राकृतिक शक्तियों का दैवीयकरण, मूर्तिपूजा से विरक्ति, इस्लाम धर्म की उत्पत्ति पर उसके पूर्वगामी आत्मा-परमात्मा के रहस्यवादी दर्शन, माला और छाप-तिलक, धूनी-साधना और भजन-कीर्तन का और सिक्ख धर्म पर हिन्दू धर्म, संत साहित्य, सूफीवाद और रहस्यवाद का । ऐसे में सूफीवाद की उत्पत्ति इस्लाम धर्म के अंदर, पूर्ववर्ती धर्म साधना के औजारों के साथ, प्रेममार्गी आलंबनों को आत्मसात करते हुये ‘एक नूर ते सब जग उपज्यां’ के मिथकीय परिकल्पना से हुई जान पड़ती है । यानी कि इस्लाम के रहस्यवादी चिंतक ही सूफी कहलाते हैं। सूफीवाद या तसव्वुफ, हिंदुओं के विशिष्ट अद्वैतवाद से बहुत भिन्न नहीं है । यह इस्लाम का एक रहस्यवादी पंथ है । ‘सूफी’ मूल रूप से पैगंबर, कुरआन और हदीस के वचनों को मानते हैं पर अपनी साधना में इस विश्वास को तरजीह देते हैं कि धर्म बाह्याचार का नहीं, आंतरिक अनुभूति का मामला है । आमतौर पर वे अपने सिद्धातों को कुरआन और हदीस के हवाले से पुष्ट करते हैं लेकिन जहां तालमेल नहीं बैठ पाता वहां अपनी अलग व्याख्या भी देते हैं ।’2 वे परमात्मा को प्रेम स्वरूप मानते हैं । परमात्मा के प्रति प्रेम को वे धार्मिक आचरण की कसौटी मानते हैं । सूफी साधक अल शिवाली के अनुसार सूफ़ीवाद में-‘प्रेम प्रज्ज्वलित अग्नि के समान है जो परम प्रियतम की इच्छा के सिवा हृदय की समस्त चीजों को जला कर खाक कर डालता है ।’ कुछ सूफी विद्वानों ने सूफ़ीवाद को कुरआन एवं शरीअत की प्रतिबद्धता की पुष्टि के लिये तो कुछ ने इस्लाम के पैतृक वजन और अधिकार से बच निकलने के साधन के रूप में उपयोग किया । शुरूआती सूफ़ी विद्वानों, जैसे कुछ महिलाओं यथा-रबिया(9वीं सदी) और नूरी(10वीं सदी)ने दुनियावी त्याग पर जोर दिया और बतलाया कि आध्यात्मिक उपलब्धि ईश्वर को अपने भीतर ही खोज लेने में है । इसी प्रकार रूमी के सामाजिक विकास का सिद्धान्त, भारत के पूर्ववर्ती आध्यात्मिक सिद्धातों से मेल खाता प्रतीत होता है ।
सूफ़ीवाद, तमाम वादों में सन्निहित प्यार-मुहब्बत का फकीरी पैगाम है। सूफ़ीवाद पर हिन्दू धर्म के अद्वैतवाद के प्रभाव को ‘वहदतुलवजूद‘ नाम दिया जाता है। भारतीय सूफ़ीवाद में ‘वहदतुलवजूद‘ का प्रमुख स्थान तो है परन्तु उसमें अनेकानेक विचारधाराएं समाहित हैं। दरअसल जब इस्लाम धर्म का यूनानी, ईरानी तथा भारतीय विद्वानों से संपर्क हुआ तो इन देशों के धर्मों- यहूदीमत, ईसाईमत, वेदान्त, बौद्ध और पारसीमत की समस्याओं से तर्क-वितर्क भी प्रारंभ हुआ। अरबवासी यहूदियों और ईसाइयों से परिचित थे ही । उनके आक्षेपों का भी उन्हें संज्ञान था3। कुछ विद्वान जो मुसलमान हो गए थे, वे अपने पूर्व धर्म-सिद्धान्तों से इस्लामी सिद्धान्तों का परीक्षण कर रहे थे। ऐसे ही तर्कों, उत्तराधिकार एवं राजनैतिक नियमों आदि को लेकर समय के साथ मतभेद प्रारम्भ हुए और सर्व प्रथम ख़ारिजी, मुरीजी, शिया और कादिरी संप्रदायों का प्रादुर्भाव हुआ4। कालांतर में शिया संप्रदाय के चिंतन में तमाम बदलाव आए। उनका एक वर्ग ‘गुलात‘ हिन्दू धर्म से मिलते-जुलते सिद्धांतों में विश्वास करने लगा5। वे ‘गुलुब‘ और ‘तक़सीर‘ में विश्वास करने लगे। ‘गुलुब‘ अर्थात मनुष्य ईश्वरत्व तक पहुंच सकता है और ‘तक़सीर‘ अर्थात ईश्वर मानव के धरातल पर उतर सकता है। इस प्रकार वे ‘इमाम‘ में ईश्वरत्व की स्थापना करने लगे। आगे चलकर उनका विश्वास ‘हुलूल‘ अर्थात ईश्वर के मानव रूप में प्रकट होने, ‘तसबीह‘ अर्थात शरीरधारी ब्रह्म एवं ‘रजा‘ अर्थात इमाम के पुनर्जन्म तक पहुंच गया6। इस प्रकार शियाओं के अंतर्गत अनेक उपसंप्रदाय भिन्न-भिन्न देशों में विभिन्न नाम से प्रकट हुए। इनमें से अली इलाही उपसंप्रदाय विशेष महत्व का है जो ईरान और भारत में फैला। इसी प्रकार बसरा में इमाम सहन अल बसरी, जो मदीना में पैदा हुए थे और बसरा में रहने लगे थे के शिष्य अबू हुजैफा वासिल-बिन-अता-अल गज्ज़ाल (699 से 749 ई0) ने अलग होकर ‘मुअतज़ला‘ संप्रदाय का प्रादुर्भाव किया जो बुद्धिवादी और तार्किक थे। ‘मुअतज़ला‘ आन्दोलन को इस्लाम में ‘एतज़ाल‘ नाम दिया गया है। मुअतज़ला आन्दोलन ने अद्वैतवाद से बहुत कुछ ग्रहण किया। धीरे-धीरे इनमें सन्यासवृत्ति एवं चिंतन के मनोभाव उत्पन्न हुए जो आगे चलकर सूफ़ीमत के रूप में सामने आया। मुअतज़ला पंथ इस्लामी विधि में सुन्नी सम्प्रदाय के धर्मशास्त्रीय सिद्धान्त ‘इजमाअ‘ (सर्वसम्मति) को अमान्य मानता था। इसी युग में ‘मुशक्कीन (द्विधावादी) विचार पद्धति का जन्म हुआ जो मूलतः प्रकृतिवादी थे। इसके प्रमुख प्रतिनिधि इब्न-अशरस और अलजाहिज़ (मृ0869 ई0) थे। एक अन्य उदारवादी पंथ ‘अहिया-ए-सनद‘ ईरान में प्रचलित हुआ। इसके विरोध में अबुल हसन अलअशअरी (मृ0 941 ई0) ने अशाअरा आंदोलन को जन्म दिया। यही वह पृष्ठभूमि है, जिसने सूफ़ीवाद को जन्म दिया।
सूफ़ीमत पर वेदान्त एवं बौद्ध धर्म के प्रभाव को यूरोपीय समीक्षकों ने भी स्वीकार किया है । फ्रांसीसी विद्वान डोजी, होपेनहावर गोल्डजिहर ह्यूगेस तथा सर विलियम जोन्स आदि का ऐसा ही मत है7। लेकिन निकोल्सन, ब्राउन का मत है कि सूफ़ीमत मूलतः यूनानी नव अफलातूनी दर्शन से प्रभावित है तथा इस पर कुछ नास्टिक, मानी एवं बौद्ध धर्म के भी प्रभाव हैं। इन मतांतर का कारण यह हो सकता है कि सातवीं सदी तक सूफ़ी मत की कोई विशिष्ट मान्यता या चिंतन धारा न थी। केवल सन्यासपूर्ण विरक्त जीवन, आत्मचिंतन, भगवतप्रेम तथा तल्लीनता का प्राधान्य था। इसमें उत्तरोतर विकास हुआ और आगे जाकर नवीं सदी से लेकर परवर्ती सूफि़यों की चिंतन धाराओं पर हिन्दू और बौद्ध धर्म का प्रभाव पड़ा । ऐसा स्वाभाविक ही था । क्योंकि अरब से भारत के संबंध बहुत पुराने समय से रहे हैं। अंक ज्ञान को भारत से ग्रहण करने के कारण ही वे इसे हिन्दसा कहते हैं। कालगणना भी उन्होंने भारत से ही सीखी थी।
सत्ता संघर्ष और रक्तपात ने भी मनुष्य को सूफ़ीवाद की ओर ढकेलने का काम किया । आठवीं सदी से लेकर नवीं सदी तक लगातार अरब राष्ट्रों में सत्ता संघर्ष हुए। इस प्रकार सत्ता युद्ध कलह एवं रक्तपात से मन हटाकर आत्मलीन होने या धूनी रमाकर ध्यानमग्न होने, माला फेरने की संस्कृति सूफ़ीमत के रूप में सामने आई। सूफी़मत ने बहुत हद तक इस्लाम को लोकप्रिय बनाने, उसे फैलाने में मदद पहुंचाई । इस्लामी साम्राज्य के पूर्वी उपनिवेश-खोरासान, अफगानिस्तान, बलूचिस्तान, सीस्तान, धर्म परिवर्तन के पूर्व हिन्दू या बौद्ध थे । इसलिये सूफ़ीमत पर इन धर्मों का प्रभाव स्वाभाविक है। सूफि़यों ने हिन्दू चिंतनधारा से प्रत्यक्ष रूप से तथा बौद्ध धर्म से परोक्ष रूप में विचार ग्रहण किए। ‘निर्वाण‘ या ‘मोक्ष‘ की भांति ‘फना‘ की भावना, त्याग एवं सन्यासपूर्ण जीवन विधि, जपमाला आदि, भारतीय साधना से लिया। भगवान बुद्ध के जीवन कथाओं को सूफ़ी संतों के जीवन के साथ जोड़कर बताया जाने लगा ।
भारतीय उपमहाद्वीप में सूफ़ीवाद को इस्लामी धर्माेत्थान का सबसे बड़ा आंदोलन कहा जा सकता है। सूफ़ीमत ने सीमाओं के परे एवं धर्म विभाजन की रेखाओं को तोड़ते हुए सभी प्रकार के लोगों को आकर्षित किया। भारत में सूफ़ीवाद इस्लाम और हिन्दू धर्म के सम्मिश्रण की कड़ी बनी। यद्यपि सूफ़ीवाद के मूलभूत सिद्धांत, दर्शन एवं पीठिका की खोज असंभव है8 तथापि सूफ़ी संतों के महान उद्देश्य विभिन्न चमत्कारिक कथाओं में मिल जाते हैं। वे सूफ़ी संत, जिनके आचरण और व्यवहार ने लोगों के मन मोह लिए, मुसलमानों में ही नहीं, हिन्दुओं में भी इस्लाम के प्रति विश्वसनीयता उत्पन्न कर सर्व धर्म समभाव के पुष्प उपजाए, मानवीय मरूस्थलों को हरा-भरा कर इंसानियत के उपवन लगाये, उनके विचार ही आगे चलकर सूफ़ीवाद के सिद्धान्त बने। यह और बात है कि उनके श्रद्धालुओं ने चमत्कारपूर्ण कथाओं द्वारा उन्हें मानवीय स्वभाव से हटाकर पारलौकिक प्राणी बना दिया। उनका कार्यक्षेत्र इतना व्यापक बना दिया कि प्रकृति के कई विधान उनके सामने गौण नज़र आने लगे। सूफ़ी संत ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों और पंचभूतों पर अपनी स्वतंत्र सत्ता सिद्ध करते रहे। परिणामस्वरूप सूफ़ीवाद के लोक व्यावहारिक दर्शन मज़ारों, कुल, उर्स, संदल, नज्र-नियाज़, चढ़ावे और कव्वालियों में देखने को मिलने लगे 9
सूफ़ीवाद सरलीकृत और क्लिष्टता का अद्भुत संगम है । इसके अर्थ विवेचन में बड़ी-बड़ी बारीकियां उत्पन्न की गयीं हैं। सर्वाधिक प्रचलित विचार यह है कि अरबी शब्द ‘तसव्वुफ़‘ की धातु अरबी अक्षरों-‘स्वाद‘, ‘वाव‘, ‘फे़‘ से उद्धृत है, जिसका भावार्थ होगा-स्वयं को सूफ़ी जीवन-शैली के प्रति समर्पित कर देना। अन्य स्थितियों में इसका भावार्थ सीधे मूलधातु से प्राप्त किया जाए तो ‘सौफ़‘, या ‘सूफ़, अर्थात ऊन या ऊनी वस्त्र होगा। अने हदीसों में कहा गया है कि इस्लामिक पैग़म्बर ऊनी वस्त्र पहनते थे।10 यह भी संभव है कि ‘तसव्वुफ़‘ शब्द ‘सौफ़‘ या ‘सूफ़‘ के अतिरिक्त किसी अन्य पारिभाषिक शब्द से उद्धृत हुआ हो।11। इनके अलावा कुछ अन्य व्याख्याएं भी बताई जाती हैं। जैसे कि पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद के द्वारा निर्मित कराया गया मदीना मस्जि़द के सामने जो चबूतरा था उसे ‘सुफ़्फा‘ कहा जाता था। इसी ‘सुफ़्फ़ा‘ या ‘सुफ्फाह‘ शब्द से सूफ़ी शब्द बना। कुछ लोग ग्रीक शब्द ‘सोफिया‘ ‘सोफिस्ता‘ या ‘सोफी‘ से इस शब्द की उत्पत्ति मानते हैं। कुछ लोग ‘बनू सूफा‘ नामक अरब की एक भ्रमणशील जाति से इस की उत्पत्ति जोड़ते हैं। अधिकांश सूफ़ी विचारकों ने ‘सूफ़ी‘ शब्द की उत्पत्ति ‘सफ़ा‘ से ही माना है। ‘सफ़ा‘ शब्द का अर्थ ‘पवित्रता‘ है। इस मत के अनुसार पवित्र जीवन व्यतीत करने वाले महात्माओं को ही सूफ़ी कहा गया। उपरोक्त तमाम मतों में से ‘सौफ‘ या ‘सूफ़‘ से ही सूफ़ी की उत्पत्ति भाषाशास्त्र की दृष्टि से सही प्रतीत होती है।
शुरूआत में हमने सूफ़ीवाद के कुछ मूलभूत विचारों का जिक्र किया है । यहां इस दृष्टि की विवेचना करेंगे कि सूफ़ी किस मानी में दूसरे संप्रदायों से अलग हैं । इसके लिये हमें कुछ सूफ़ी विद्वानों के बताए सिद्धान्तों का अनुसरण करना होगा। सुविख्यात सूफ़ी विद्वान हज़रत जुनैद बग़दादी ने सूफ़ीवाद की आठ विशेषताएं बताई हैं-‘सख़ावत (दानशीलता), ‘रिज़ा‘ (सहमति), ‘सब्र‘ (धैर्य), ‘इशारत‘ (संकेत), ‘गुरबत‘ (उत्प्रवासन-अन्य देश में जाकर रहना), ‘सौफ़‘ या ‘सूफ़‘ (ऊनी वस्त्र), ‘सयाहत‘ (यात्रा), ‘फुक्र‘ (निर्धनता)। फिर इसका स्पष्टीकरण भी किया है-दानशीलता के आदर्श पैग़म्बर इब्राहिम है उन्होंने अपने प्राणों से लेकर सुपुत्र तक को ईश्वर के मार्ग में बलिदान कर दिया। सहमति के आदर्श पैग़म्बर अय्यूब हैं, जिन्होंने अपने घर-बार तथा विशाल परिवार के विनाश एवं प्रताडि़त होने तथा अपने शरीर में कीड़े पड़ जाने पर भी धैर्य का परित्याग नहीं किया। संकेत के आदर्श पैग़म्बर ज़कारिया हैं, जिन्होंने ईश्वरी आदेश के अनुपालन में अनेक दिनों तक मौन धारण किया तथा संकेत द्वारा बातें करते रहे। उत्प्रवासन के आदर्श पैग़म्बर यहिया हैं, जो ईश्वर की कृपा प्राप्ति के लिए अपने ही देश में प्रवासी बनकर रहे। ऊनी वस्त्र धारण करने का पैग़म्बर मूसा ने अपने जीवन का आदर्श बनाया। यात्रा की पराकाष्ठा पैग़म्बर ईसा से प्राप्त होती है, जो ईश्वर के मार्ग पर एक प्याला और एक कंघी लेकर घर से चले थे परन्तु एक व्यक्ति को चुल्लू से पानी पीते देखा तो प्याला फेंक दिया तथा एक व्यक्ति को अपनी अंगुलियों को बालों में फेरते देखा तो कंघी फेंक दी। निर्धनता की पराकाष्ठा इस्लामी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद में है, जिन्हें समस्त ईश्वर ने विश्व के समस्त कोष का अधिकारी बनाया, परन्तु उन्होंने अपनी निर्धनता पर गर्व किया तथा ईश्वर से प्रार्थना की: ‘‘हे पालनहार ! मुझे निर्धनता की स्थिति में जीवित रख, निर्धनता की स्थिति में मृत्यु प्रदान कर तथा निर्धनों की श्रेणी में मेरा लेखा-जोखा कर।‘12 सय्यद अली हज़वेरी का कथन है- ‘‘सूफि़यों तथा अध्यात्मिक महापुरूषों का मूल मिशन ही यह था कि जनसाधारण के भीतर उस वास्तविक धार्मिकता एवं ईश्वरी उपासना की मूल आत्मा जागृत एवं प्रज्ज्वलित की जाए, जो विभिन्न नबियों के आह्वान का मूल उद्देश्य था। परन्तु यह बात निरंकुश एवं अन्यायी शासकों को असह्य थी। अतः सूफियों ने अपनी बात ऐसी भाषा, शब्दावली में व्यक्त किया कि उनके समुदाय के लोग तो उसे भली-भांति समझ लें परन्तु यदि यह बात उनके क्षेत्र के बाहर जाए तो दूसरे इस परम्परा के भेद को न पा सकें।‘‘
ईरान के इमाम ग़जाली के जरिये सूफीवाद, तुर्की होते हुये भारत पहुंचा । बाद में सूफियों का आगमन इराक तथा मध्य एशिया से भी हुआ। ईरान के सूफी संतों, खास तौर पर- जलालुद्दीन रुमी और हाफि़ज शीराज ने सुफीवाद को अपने कलामों के जरिये बुलंदी पर पहुंचाया । सूफि़यों की सत्यवादिता, न्यायप्रियता एवं शुद्ध आध्यात्मिक जीवन ने भारतीयों का मन जीत लिया। उनकी उदारता, कट्टरवादिता से विरक्ति ने धार्मिक सीमाएं तोड़ दीं। सूफि़यांे ने धर्मशास्त्रवादियों की अनेक पाबंदियों को तोड़ दिया और हिन्दू जनमानस से घुल-मिल गए। उनसे उन्हीं की शैली में बात की। संगीत से ‘समाअ‘ की महफिलें सजायीं। प्रेम और श्रद्धा से भारतीय उपवन सुगंधित हो उठा। सूफि़यों ने इस्लामी पैग़म्बर के परिवारजनों के सम्मान एवं प्रेम में डूबकर तमाम भाव व्यक्त किए एवं कविताएं लिखीं। उनके संदेश महफि़लों, सभाओं के माध्यम से जनता तक पहुंचे। सूफ़ी कलंदर संगीत एवं कविता के रसिया थे। इस परंपरा के विशिष्ट सूफ़ी शेख़ लाल शहब़ाज कलंदर की ख़ानकाह, सहेबान सिंध (पाकिस्तान) मे हज़रत अली की स्तुति में गीत अत्यंत उत्साह से गाए जाते हैं- दमादम मस्त कलंदर, अली दा पहला नम्बर !
दक्षिण भारत में सूफि़यों का आगमन ख़्वाजा हसन बसरी (मृ0 734 ई0) से बताया जाता है लेकिन इसका कोई ऐतिहासिक साक्ष्य मौजूद नहीं है। फिर भी ऐसी संभावना को नकारा नहीं जा सकता, क्योंकि यह प्रमाणित हो चुका है कि भारत में मुसलमानों का आगमन इस्लामी पैग़म्बर के जीवनकाल में ही प्रारम्भ हो चुका था जो धर्म प्रचार के लिए यहां आते थे। मालिक-बिन-दीनार (मृ0 744 ई0) भारत के दक्षिणी समुद्र तट पर आए थे। अबूतमीम अंसारी के विषय में कहा जाता है कि वे इस्लामी पैग़म्बर के स्वर्गवास (632 ई0) के बाद भारत आए थे। चेन्नई से 50 किमी0 दूर कोलम (तमीम नगर) में समुद्र तट पर उनका मज़ार आज भी श्रद्धालुओं के आस्था का केन्द्र बना हुआ है। शैख़ अब्दुल्लाह-बिन-अनवर, जो श्रद्धालुओं में ‘दादा हयात कलंदर‘ के रूप में जाने जाते हैं, का मज़ार चिकमंगलूर (कर्नाटक) में आज भी विभिन्न धर्मावलम्बियों की आस्था का केन्द्र है। इनके अलावा अबूउक्कासा, अब्दुर्रहमान अस्तख़री, अबूमूसा सिंधी, मुहम्मद-बिन-ज़याद सिंधी, रबीअ-बिन-शबीह, मकहोल सिंधी जैसे प्रमुख सूफि़यों का नमन किया जाना भी जरूरी है। सूफ़ी संत नतहरवली (मृ0 1026 ई0) के नाम पर त्रिचनापल्ली में सूफी आध्यात्मिक केन्द्र बना ही है13।
उत्तर भारत के सूफि़यों का आगमन सुलतान महमूद ग़जनवी के मुलतान विजय (1009 ई0) से प्रारम्भ होता है। सुल्तान इल्तुतमिश के शासनकाल (1210-1235 ई0) में सूफि़यों का प्रभाव इतना बढ़ गया था कि सुलतान मुहम्मद गोरी के प्रशासक नसिरउद्दीन क़बाचा के विरूद्ध सूफ़ी संत शेख़ बहाउदीन ज़करिया (मृ 1262 ई0) की शिकायत पर इल्तुतमिश ने उसका राज्य ही समाप्त कर दिया। जब शेख़ जलालउद्दीन तबरेजी़ (मृ0 1226 ई0) दिल्ली पधारे तो इल्तुतमिश उनके स्वागत में शहर के बाहर तक गया और घोड़े से उतर कर उनका स्वागत किया। सुल्तान ग़यासउद्दीन बलबन (1266-1287 ई0) के बारे में कहा जाता है कि जब सूफ़ी शेख़ अली, दिल्ली से चिश्त वापस जाने को उद्धत हुआ तब बलबन ने उनके चरणों में गिरकर क़सम खायी कि यदि आप चिश्त गए तो मैं राज्य त्यागकर आपके साथ चल दूंगा। बलबन जब कभी बाबा फरीद गंजशंकर (मृ0 1269 ई0) की सेवा में उपस्थित होता, हाथ बांधे, गुनहगारों की भांति खड़ा रहता। सुल्तान अलाउद्दीन खि़लजी (1316-1392 ई0) की ख़्वाजा निज़ामउद्दीन औलिया (मृ0 1224 ई0) के प्रति ऐसी श्रद्धा थी कि वह अपने दोनों बेटों-खिज्र ख़ान और शादी ख़ान को उनकी शरण में दे दिया था। सुल्तान फि़रोजशाह तुगलक़ (1351-1388 ई0) के राज्य में ख़्वाजा जहांनियां-जहांगश्त (मृ0 1383 ई0) प्रत्येक दूसरे-तीसरे वर्ष दिल्ली पधारते तो सुल्तान शहर से बाहर जाकर उनका स्वागत करता14।
भारत के उत्तर-पश्चिम में सूफि़यों का आगमन मध्य एशिया से हुआ। सर्वप्रथम शेख सफ़ीउद्दीन गाज़रूनी सिंध घाटी के ऊछ में (लगभग 1025 ई0 के आसपास) आए। महमूद गज़नवी ने जब पंजाब को अपने राज्य में मिला लिया तब मध्य एशिया से सूफि़यों का आगमन शुरू हुआ। जुनैदिय परम्परा के सूफ़ी शेख अबुल फ़ज्ल मुहम्मद-बिन-हारून ख़त्तली ने अपने शिष्य हुसैन ज़नजानी को लाहौर में धर्म सेवा हेतु नियुक्त किया। फिर एक और शिष्य अबुल हसन अली-बिन-उस्मान हज़वेरी (‘कश्फ़- अलमहजूब‘ पुस्तक के रचइता) को सन् 1035 ई0 में नियुक्त किया। कहा जाता है कि लाहौर में ज़नजानी के यहां ख़्वाजा मुईनउद्दीन चिश्ती भी गए थे15। ख़्वाजा सय्यद अली हज़वेरी को ‘दातागंजबख़्श‘ की उपाधि मिली हुई है। ख़्वाजा मुईनउद्दीन चिश्ती ने उनकी मज़ार पर श्रद्धा-सुमन स्वरूप निम्न पक्तियां प्रस्तुत की थीं-‘गंजे-बख़्शे-फै़ज़े-अलम,मज़हरे-नूरे-ख़ुदा/नाकि़सां रा पीरे-कामिल,कामिलां रा रहनुमां।’
ख़्वाजा सय्यद अली हज़वेरी का स्वर्गवास लाहौर में ही सन् 1072 ई0 में हुआ। महमूद गज़नवी के बेटे ज़हीरउद्दीन ने वहां मज़ार बनवाया तथा बाद में सम्राट अकबर ने ख़ानकाह और ड्योढ़ी का निर्माण कराया। भारत में इनके अलावा चिश्ती, सुहरवर्दिया, कुबराविया, हमदानी, कश्मीरी सूफ़ी, फि़रदौसिया, नक़्शबंदी, क़ादिरिया, क़लंदरी, रणबांकुरी के अलावा महिला सूफ़ी परम्परा का भी फैलाव हुआ। सूफि़यों ने कुरान में व्यक्त सर्वशक्तिमान एकेश्वरवादी अल्लाह की मान्यता को स्वीकार किया। इब्नुल अरबी के मत को उद्धृत करते हुए एम0एम0 शरीफ कहते हैं- ‘‘वह एक ही अपने को अनके रूपों में अभिव्यक्त करता है। उसी प्रकार जैसे कोई वस्तु विभिन्न दर्पणों में अभिव्यक्त होती है। प्रत्येक दर्पण विभिन्न दर्पणों में अभिव्यक्त होती है। प्रत्येक दर्पण अपनी प्रकृति और क्षमता के अनुसार उस पदार्थ को प्रतिबिम्ब रूप में अभिव्यक्त करता है। वह एक प्रकाशपुंज की भांति है जिससे असंख्य प्रकाश की किरणें फूटती हैं अथवा वह उस शक्तिमान समुद्र के समान है जिसकी सतह पर असंख्य उर्मियां प्रकट और लीन हुआ करती हैं16।
भारतीय सूफीवाद पर पूर्वगामी सिद्ध संतों का प्रभाव पड़ा । नाथ परंपरा से सूफियों ने और सूफियों ने नाथों से बहुत कुछ सीखा । प्रेम प्रधानता को परलौकिक शक्ति और भक्ति का मूलाधार बनाया । कबीर की वाणी और रहीम के दोहे प्रेम की पराकाष्ठा तक गये । ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया के शिष्य अमीर खुसरो(1253 ई0), सूफी दर्शन में ऐसे रमे कि उन्हें कहना पड़ा-‘प्रेम भटी का मदवा पिलाइके/मतवारी कर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके ।’ बाद की मुगल संस्कृति, भारतीय संस्कृति की रक्त सम्मिलित संस्कृति बनी । औरंगजेब और मुराद को अपवाद मान लें तो ज्यादातर मुगल शासक सूफी संस्कृति में जीये । कई महत्वपूर्ण सूफी संतों से मुगलों का घनिष्ठ संबंध रहा । सलीम चिश्ती(फतेहपुर सिकरी) और ख्वाजा निजामुद्दीन(दिल्ली) की दरगाहों को दिया गया महत्व आज भी हमारे सामने हैं । मुमताज और शाहजहां का वारिश दारा शिकोह(20 मार्च, 1615-10 सितम्बर,1659ई0) को सूफियों और हिंदू सन्यासियों के साथ देखा गया । उसने ‘सूफीनात अल औलिया’, ‘सकीनात अल औलिया’ नामक सूफी संतों की जीवन चरित्र पर पुस्तकें लिखीं । उसकी ‘रिसाल-ए-हकनुमा’(1646), और ‘तारीकात-ए-हकीकत’ नामक सूफी दर्शन की पुस्तकें उल्लेखनीय हैं । उसने ‘मजमा अल बहरेन’ में वेदांत और सूफ़ीवाद के शास्त्रीय शब्दों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया । सिक्ख धर्म के उदय के बाद, संत और सूफी वाणी का लहजा गुरुनानक (अव्वल अल्ला नूर उपाया, कुदरत दे सब वंदे / एक नूर ते सब जग उपज्यां, कौन भले कौन मंदे । ) से लेकर बुल्ले शाह, वारिस शाह और बाबा फरीद के कलामों में देखा जा सकता है ।
देखा जाये तो सूफीवाद का चरित्र एक स्त्रैण धर्म का है । पुरुष का समर्पण वाह्य कारकों से होता है जबकि स्त्री का अन्तःप्रेरणा से । इस्लाम में स्त्रैणता(जमाल) के अभाव को सूफीवाद पूरा करता है । ‘यहां अल्लाह का क़हर पौरुष भाव है और अल्लाह का रहम स्त्रैण भाव । अल्लाह के सारी सिफ़तों(गुणों) को तीन भागों में बांटा जा सकता है । एक पौरुषेयता(जलाल) के गर्म स्वभाव का गुण, दूसरा सौंदर्य और करुणा का गुण और तीसरा सर्वव्यापकता का गुण । जन्नत भी अल्लाह के जमाल यानी स्त्रैणता की अभिव्यक्ति है । तभी तो इब्नुल अरबी, शेखुल अकबर जैसे सूफी कवि स्त्री के चेहरे, उसके सौंदर्य को लेकर काव्य रचे । उनके अनुसार ईश्वर का सौन्दर्य स्त्री के मुखड़े में ही उच्चतम अभिव्यक्ति पाता है । स्त्री के रूपक में अल्लाह की बंदगी सूफ़ी मार्ग की मजबूत पाये बन गई ।’17
सूफि़यों की सर्वात्मवादी भावनाएं विकसित होकर ईश्वर और जीव के संबंध में अद्वैत भावना तक पहुंच गईं। इस्लाम भावना के अंतर्गत ‘मैं ब्रह्म हूं (अहं ब्रह्मास्मि) की भावना का स्थान नहीं है। वहां ईश्वर और जीव की अलग-अलग सत्ताएं मानी गयी हैं। सूफि़यों ने अपने चिंतन में इस ब्रह्मवादी विचार का समावेश किया। बायजीद विस्तामी ने कहा -‘तकून अंतजाक‘ अर्थात ‘वह तू ही है।‘ मंसूर हल्लाज का प्रसिद्ध वाक्य -‘अनहलक‘ (मैं ही सत्य ब्रह्म हूं), ‘अहं ब्रह्मास्मि‘ का अनुवाद प्रतीत होता है। उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘किताबुल तवासीन‘ में लिखा- ‘मैं’ ‘वह’ (खुदा) हूं जिसे मैं प्रेम करता हूं और जिसे मैं प्रेम करता हूं वह ‘वह’ है । हम दो आत्माएं, एक शरीर हैं। यदि तुम मुझे देखते हो तो उसे भी देखते हो और यदि तुम उसे देखते हो तो हम दोनों को देखते हो।‘18 इन अद्वैतवादी विचारों का प्रसिद्ध सूफ़ी चिंतक इब्नुल अरबी ने विस्तार से वर्णन किया है। इन विचारों के परिणामस्वरूप सूफि़यों के दो विचार मिलते हैं। एक ‘वहदतुल वजूद‘ में और दूसरा ‘वहदतुल शहूद‘ में विश्वास प्रकट करता है। ‘वहदतुल वजूद‘ का तात्पर्य है अस्तित्व, अन्य का नहीं। शेष अस्तित्व उसके प्रतिबिम्ब हैं जो उससे भिन्न नहीं कहे जा सकते। इसके प्रतिकूल ‘वहदतुल शहूद‘ के प्रतिपादक ईश्वर को एकमात्र सत्य मानते हैं। सृष्टि, उनके अनुसार प्रतिबिम्ब या आभास मात्र है। छाया में उस परमसत्य का आभास अवश्य मिलता है पर छाया को ही सत्य नहीं माना जा सकता। उपरोक्त दोनों विचारधाराएं इस्लामी ‘तौहीद‘ (एकेश्वरवाद) को प्रतिपादक बताती है। ‘तौहीद‘ की मूलभावना यह है कि ईश्वर एक है, पर सूफ़ी चिन्तकों ने इस विचार को एक डग आगे बढ़ाकर यह प्रतिपादित किया कि एक ईश्वर ही है अन्य कोई नहीं। सूफ़ी विचारकों में एक विचार प्रभाव बायजीय विस्तामी, मंसूर हल्लाज जैसों का है जिसके मुख्य प्रतिपादक इब्नुल अरबी तथा अब्दुल करीम-अल-जिली हैं जिन्होंने सूफ़ी दर्शन को भारतीय अद्वैतवाद की पीठिका पर अवस्थित करने का प्रयास किया। इसके प्रतिकूल दूसरा प्रभाव उन विचारकों का है जो मूल इस्लाम और तौहीद के दायरे के भीतर ही सूफ़ी दर्शन को समेटने का प्रयास करते हैं, जैसे प्रसिद्ध मीमांसक अल गज़ाली ।
सूफि़यों ने ईश्वर के साथ ही आत्मा के संबंध में अपने विचार प्रकट किए हैं। इस्लामी सृष्टि-प्रक्रिया के अनुसार-अल्लाह ने अपनी इच्छा से ही सृष्टि का निर्माण किया। उसके मुख से ‘कुन‘ (हो जा) शब्द निकलने से सृष्टि निर्मित हो गई। सबसे पहले उसने ‘मुहम्मदीय आलोक‘ (नुरूल मुहम्मदिया) का निर्माण किया। इसी से चार तत्व (अग्नि, हवा, जल और पृथ्वी), स्वर्ग, आकाश, तारे आदि का निर्माण हुआ। इसी से आदम, पैग़म्बर तथा सभी जीव बने। सूफि़यों के अनुसार आत्मा, परमात्मा में लौटने के लिए अनजाने ही उत्सुक रहती है, क्योंकि वही उसका मूल उद्गम है। सूफी आत्मा के दो भेद बताते हैं-नफ़्स और रूह । ‘नफ़्स’ निम्नकोटि का माना जाता है जो कुप्रवृतियों का स्थल होता है। ‘रूह‘ सद्प्रवृतियों का उद्गम स्थल है और विवेक द्वारा परिचालित होता है। सूफ़ी नफ़्स पर नियंत्रण करके रूह को परमात्मा की ओर उन्मुख करने का प्रयास करते हैं।
सूफ़ी अपनी साधना को एक यात्रा मानते हैं जो चार पड़ावों से होकर गुजरती है। ये पड़ाव हैं- शरीअत, तरीक़त, मारिफ़त, और हक़ीकत। सभी इस्लाम धर्मानुयायियों के लिए शरीअत अर्थात कुरान के नियम के अनुसार आचरण करना आवश्यक है। यद्यपि मुसलमान के लिए शरीअत ही लक्ष्य है पर सूफ़ी इसके द्वारा आत्मनियंत्रण कर, आगे बढ़ जाता है। इस अवस्था में सूफ़ी साधक को ‘मोमिन‘ कहा जाता है। सूफ़ी आत्मनियंत्रण के लिए, सलात (नमाज़), जक़ात (दान), सौम या रोजा, तथा हज्ज का सहारा लेता है।
दूसरे पड़ाव तरीक़त में सूफी को ‘सालिक‘ कहा जाता है। दूसरे पड़ाव के लिए सूफ़ी को एक गुरू की आवश्यकता होती है। यहां सूफ़ी समस्त सांसारिक संबंधों को छोड़कर गुरू की शरण में चला जाता है और परमात्मा के विरह में तड़पने लगता है। तीसरा पड़ाव मारिफ़त का होता है। यह अवस्था सूफि़यों का ज्ञानकांड है। ज्ञान के दो भेद होते हैं-इल्म और म्वारिफ़। इल्म सांसारिक ज्ञान है और म्वारिफ़ ईश्वरीय। इस अवस्था में सूफ़ी ‘आरिफ‘ (ज्ञानी) कहलाता है। यहां पहुंचकर सूफ़ी को परमात्मा की परमसत्ता का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। वह उसके समस्त रहस्यों को जान जाता है। इसमें ‘हाल‘ (मूच्र्छा) की स्थिति आती है। वास्तव में सूफि़यों का प्रधान साधन म्वारिफ़ ही है। जब आरिफ़ परमात्मा के सभी गुप्त रहस्य जान लेता है और उसके स्मरण (जिक्र) एवं ध्यान (फिक्र) द्वारा उसमें तल्लीनता के स्तरों को पार करता हुआ तदाकार हो जाता है, तब उसमें और उसके प्रियतम परमात्मा के बीच समस्त अंतर समाप्त हो जाता है। वह स्वयं हक बन जाता है। यह जीव की मुक्तावस्था (मकाम) होती है। यही वह अवस्था है जहां पहुंचकर साधक घोषित करता है कि मैं ही सत्य हूं (अनलहक)।
अंत में इतना और कि भारत में कारीगरों की जमात बहुतायत में सूफी पंथ की ओर आकर्षित हुई, विशेषकर बुनकरों की । कबीर भी उसी श्रेणी में आते हैं । सूफीवाद के अनेक विकल्प दूसरे पंथों में यथा-तांत्रिकों और भक्ति साधकों में दिखाई पड़ते हैं । सिक्ख धर्म पर भी सूफीवाद का जबरदस्त प्रभाव रहा है । अपने परिवर्तनगामी, संगीत-प्रियता और साधना-संस्कृति के कारण कई बार सूफियों को कट्टरपंथियों का कोपभाजन बनना पड़ा है । फिर भी अपनी लोकतांत्रिकता, जनपक्षधरता के कारण वे आबाद रहे हैं ।19 सूफ़ी संस्कृति के चलते मजारों, उर्स और मेलों की जो परम्परा भारत में पनपी है, वैसी कहीं और नहीं। दुनिया के अधिकांश भव्य दरगाह और मेले इसी देश में स्थित हैं। देवमणि पांडेय के अनुसार -‘सूफियाना कलामों के जरिये सूफी शायरों और संतों ने लोगों को मुहब्बत का ऐसा खूबसूरत पैगाम दिया है कि उन्हें अपनी रूह के आईने में सारी दुनिया का अक्स नजर आने लगा ।’ यहां धर्म की दीवारें ढहा दी गई हैं। इन मेलों में लाखों ने सूफ़ीरस का पान किया है। ऐसा हो भी क्यों न ? यह जीवन प्रेम रूपी दो दिनी मेला जो है। फिर तो-‘चार कहांर मिल डोलिया उठाई, संग परोहत, भाई‘। कौव्वालियों की जितनी खूबसूरत ‘समाअ‘ यहां बंधती है, अन्यत्र दुर्लभ है। यहां इस्लाम, अद्वैतवाद और रहस्यवाद का हिन्दवी ओज है, जहां आत्मा, परमात्मा के प्रेम कुएं में बढ़ती हुई कठिन परीक्षा के दौर से गुजरती है और मन कह उठता है -‘और सखी सब पी पी माती, मैं बिन पियां ही माती/प्रेम भट्ठी को मैं मद पीयो, छकी फिरूं दिन राती ।’


संदर्भ ग्रंथ-
1-प्रेम सिंह, लोकसंघर्ष पत्रिका,जून 2010
2-वही
3-इस्लामी अध्यात्म सूफ़ीवाद-जाफर रजा, पृष्ठ 14
4-इन्फ्लुएंस आफ इस्लाम आन इंडियन कल्चर-ताराचंद पृष्ठ 51
5-वही, पृष्ठ 50
6-वही, पृष्ठ 52
7-सूफ़ीमत साधना और साहित्य-रामपूजन तिवारी पृष्ठ 183
8-इस्लामी अध्यात्म सूफ़ीवाद-जाफर रजा पृष्ठ 17
9-वही पृष्ठ 18
10-सहीह-अलबुखारी, हदीस सं0 766ः3/189
11-Esai sur les Origines du Lexique Technique de la mystique musulmane p 155
12-कश़्फ-अलमहजूब,पृष्ठ 89-90
13-Arbic, Arwi and Persian in Sarandib and Tamil Nadu p12-20
14-इस्लामी अध्यात्म सूफ़ीवाद-जाफर रजा पृष्ठ 106
15-सियर-अल आरफीन, पृष्ठ 7
16-हिस्ट्र आफ मुस्लिम फिलासफ़ी, पृष्ठ 413
17- मुनाकिबे आरिफ़ीन के अंग्रेजी अनुवाद फ़ीट्स आफ नोअर्स टाफ गाड-जानॅ ओ केन, पृष्ठ 441
18-आइडिया आफ पर्सनाल्टी इन सूफी़ज्म-निकोल्सन, पृष्ठ 30
19-दी सूफ़ीज-इदरीज शाह

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लोकरंग की आंच : सुभाष चन्द्र कुशवाहा: साहित्य में आरक्षण की बात या आरक्षण का विरोध

साहित्य में आरक्षण की बात या आरक्षण का विरोध

अजीब विडंबना है कि समाज के सृजनात्मक क्षेत्रों में घटकवाद, क्षेत्रवाद, संप्रदायवाद और जातिवाद ने न केवल गहरी पैठ बनाई है अपितु तथाकथित मार्क्सवादियों को भी इस कदर अपनी गिरफ्त में ले लिया है कि उन्होंने जीवन के उत्तरार्द्ध में आते-आते अपने छद्म और सृजनात्मकता को किनारे रख, सीधे-सीधे जातिवादी एजेंडे को उजागर करना शुरू कर दिया है, गोया अब चूके तो पीढि़यां शायद गद्दार कह दें । डा0 रामविलास शर्मा भी अंततः इसी एजेंडे को छुपा न पाये थे और आज नामवर जी सामाजिक आरक्षण के बहाने बोल कर भी अबोले रहना चाहते हैं या राजनैतिक लोगों की तरह कह कर कहना चाहते हैं कि- मेरे कहने का गलत अर्थ लगाया गया है । मेरा कहने का मतलब यह था कि मैं साहित्य में आरक्षण का विरोधी हूं, दलितों और पिछड़ी जातियों को मिलने वाले आरक्षण का नहीं । नामवर जी महान हैं और उन जैसे महान लोग जैसे चाहें वैसे बातों को धार देने की कला रखते हैं । आरक्षण विरोधी होने के बावजूद बात पलटने का अधिकार उनके पास आरक्षित है । तब मन में विचार उठता है कि यूं ही कोई नामवर नहीं होता ? अब यह बात हजम नहीं होती कि अगर नामवर जी के कहने का आशय साहित्य के आरक्षण से था तो फिर बाभन-ठाकुर के लड़कों की भीख मांगने तक की नौबत आ गई है, कहने की सार्थकता या तात्पर्य क्या था ?

समाज का आर्थिक ढांचा जिस ढ़ंग से गैरबराबरी का होता जा रहा है उसमें किसी भी जाति या वर्ग के कमजोर तबके के लिये जीना मुश्किल होता जा रहा है, इसमें बाभन-ठाकुर जाति के लोग भी होंगे और बहुतायत में पिछड़े और दलित भी । पर नामवर जी की बात का यह तात्पर्य तो कतई नहीं था । नामवर जी हमेशा सचेतन रूप से शगूफा छोड़ते हैं । उन्होंने सोच-समझ कर ही प्रगतिशील लेखक संघ के 75वें अधिवेशन को चुना था । अगर नामवर जी के कहने का आशय साहित्य में आरक्षण से था तो इसके कारक कौन है ? अगर नामवर जी की जातिगत भाषा में सवाल करूं तो क्या वे दलित हैं ? फिर कौन ऐसे आरक्षण का नेतृत्व कर रहा है ? साहित्य के सत्ता केन्द्रों पर कितने गैर नामवरी लोग बैठे हैं ? अब तक किन की कहानियों को उछाला गया है और किनको पुरस्कृत किया गया है ? विश्वविद्यालयों की नियुक्तियों में महान साहित्यकारों ने चयन समितियों में अपना स्थान बनाकर किन्हे चुना है ? किन्हे, किसके द्वारा पी0एच0डी0 की उपाधि दिलाई गई है ? शायद नामवर जी यहां उनकी जाति न देखना चाहेंगे । क्योंकि तब वे माक्र्सवादी बन जायेंगे । तब वह वर्ग आधारित समाज की बात पर आ जायेंगे और जाति आधारित समाज की वकालत करने से परहेज करने की बात करेंगे । अगर उनकी जाति देख ली जाये तो तमाम महान लोगों को नंगे होने में ज्यादा समय न लगेगा ।

नामवर जी की वाक् पटुता, स्मृति क्षमता और बौद्धिकता की हम सभी इज्जत करते हैं और उन्हें सुनने जाते भी हैं । पर बदले में नामवर जी से क्या मिलता है ? अपनी कुलीनता का लबादा ओढ़े वह हर सम्मेलन के केंद्र में बने रहते हैं या रहना चाहते हैं । वह अपनी बात कह उठ जाते हैं । दूसरों की सुनते नहीं और उद्घाटन, समापन तक सीमित रहते हैं । प्रलेस में भी उन्होंने यही किया । अपनी बात कह उठ गये, लौटे समापन करने । बाकी साहित्यकारों की बातें उनके काम की न थीं । कुलीनता की यही प्रवृत्ति होती है ।

प्रगतिशील लेखक संघ के 75वें अधिवेशन में जाने का और बोलने का मौका मुझे भी मिला था । नामवर जी ने वीरेन्द्र यादव के जिस आलेख को असत्य, तोड़-मोड़ कर पेश करने वाला बताया है वह गले नहीं उतरता । नामवर जी ने दलित विमर्श और स्त्री विमर्श पर भी अपनी बात रखी थी । उन्होंने कहा था कि गैर दलित, दलित संवेदना को क्यों नही उद्घाटित कर सकता ? जाहिर है उनकी इस बात का विरोध नहीं किया जा सकता । मैंने अपने वक्तव्य में यह सवाल उठाया था कि नब्बे के बाद गैर दलितों ने दलित विमर्श से इसलिये किनारा कर लिया क्योंकि दलितों का भोगा हुआ यथार्थ, दूसरों की तुलना में ज्यादा प्रभावी और उद्वेलित करने वाला था । इससे छद्म मार्क्सवादियों की कुलीनता को झटका लगा था और प्रतिक्रिया स्वरूप उन्होंने दलित संवेदना को विषय बनाना छोड़ दिया । मुझे ही नहीं, तमाम लोगों को नामवर जी की आरक्षण के संबंध में की गई टिप्पणी हैरान करने वाली लगी थी । यह और बात है कि कुलीन तबके ने हमेशा की तरह चुप्पी साधना बेहतर समझा । नामवर जी अपने आरक्षण विरोधी बात को अब वर्ग आधारित समाज की बात बता रहे हैं । जब मैं ‘जातिदंश की कहानियां’ संपादित कर रहा था तब एक प्रसंग में नामवर जी ने मुझसे कहा था कि उन्होंने जाति और वर्ग पर लिखना छोड़ दिया है । हो सकता है कि उनका आशय यह हो कि अब वह जाति और वर्ग पर लिखना छोड़, बोलना शुरू कर दिया है । संभव है नामवर जी को यह याद न हो । क्योंकि महान लोगों को इतनी छोटी बातें याद नहीं रहती ।

नामवर जी दलित विमर्श और स्त्री विमर्श का मजाक उड़ाने के बाद कह रहे हैं कि उन्होंने रचनाओं की गुणात्मकता की बात कही थी । बेशक गुणात्मकता की बात हो तो किसी को क्या आपत्ति ? पर गुणात्मकता का पैमाना ऐसे आलोचकों पर तो नहीं ही होना चाहिये जो साल में छपी सभी कहानियों को पढ़ने के बजाय कुछ चुनिंदा कहानियों पर अपने शिष्यों की राय को राय बना दें ? एक बार कथाक्रम सम्मेलन में नामवर जी के वक्तव्य को याद किया जाये जिसमें उन्होंने कहा था कि सारी कहानियों को पढ़ना संभव नहीं था और उनके एक शिष्य ने कुल बीस कहानियां छांटी थीं और उनमें से उन्होंने कुछ कहानियों को पढ़ा है । मैत्रेयी जी ने उनकी बात पर आपत्ति उठाई थी और कहा था कि उनमें से कोई कहानी किसी लेखिका की क्यों नहीं थी ? दलित लेखक की बात ही छोडि़ये । यही है साहित्य में आरक्षण ।

दरअसल कोई बात संदर्भों से कब कटी बताई जायेगी और कब तोड़-मोड़ कर प्रस्तुत की हुई, कुलीनता और वर्चस्ववादी मानसिकता के अधिकार क्षेत्र में आती है । प्रगतिशील लेखक संघ के 75वें अधिवेशन में नामवर जी ने जो कुछ कहा, उसे हम सभी ने सुना और पढ़ा था । विरोध के स्वर तो तभी उठे थे । नामवर जी ने वीरेन्द्र यादव की बात के खंडन-मंडन में इतना विलंब क्यों कर दिया ? हमें स्वीकार करना होगा कि साहित्य में जातिवादी मानसिकता का एक नया दौर उभार पर है । कमजोर और हासिये के लोगों की बात स्वीकार करने के बजाय समर्थ तबका सीधे-सीधे बेहयाई पर उतर आया है । तभी तो वाराणसी के एक लेखक की बात का उत्तर वाराणसी का ही दूसरा लेखक यह कह कर देता है कि जब ठाकुर की बीवी को ठकुराइन कह सकते हैं तो चमार की बीवी को चमाइन क्यों न कहा जाये ? ऐसी मानसिकता पर शर्म करने के अलावा बचता क्या है ? क्या समाज में ठकुराइन का बोध चमाइन के बोध जैसा निर्मित है ? जो दंभ या कुलीनता का बोध ठकुराइन को प्राप्त है वही चमाइन को दिया गया होता तो यह सवाल उठता ही कहां ?

रविवार, 28 अगस्त 2011

कहीं व्यवस्था के पक्ष में न चला जाये अन्ना आंदोलन


सोवियत संघ के पतन को, पूंजी के समान वितरण जैसे दर्शन का पतन मान कर, महाशक्तियों द्वारा दुनिया में आधिपत्य स्थापित करने के तौर-तरीकों में बदलाव लाया गया । देखते ही देखते पूंजी ने अपने आधिपत्य के लिये खुली अर्थव्यवस्था को धिनौना हथियार बनाया । उसने विकाशसील देशों को एक साथ आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से लकवा ग्रस्त बनाने की कुचक्र रचा तथा प्रतिकार के जनपक्षधर औजारों को अप्रांसंगिक तथा भोथरा बनाया । भारत में जिस तरह उदारीकरण के प्रति अंधभक्ति दिखाई गई, जिस तरह सत्ता के दम पर संविधान की सार्वभौमिकता को नष्ट करते हुये महाशक्तियों या बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित में कानून बनाये गये, उससे न केवल भ्रष्टाचार स्वच्छन्द हुआ अपितु सार्वभौमिक भी हुआ । बाजारवाद ने भ्रष्ट्राचार को व्यापक, स्वीकार्य, बनाने में एन0जी0ओ0 का सहारा लिया । एन0जी0ओ0का आगमन, वैचारिक प्रतिबद्धता के घलमेल का कारण बना । वैचारिक प्रतिबद्धता की कमजोरी ने निराशा का वातावरण पैदा किया और संघर्षशील शक्तियों को उनके मूल रास्ते से भटकाया । कुछ ही वर्षों में एन0जी0ओ0 ने जनपक्षधरता का जामा पहन, संघर्ष की वास्तविक जमीन पर कब्जा जमा लिया । यह विडंबना ही है कि भ्रष्टाचार रूपी वायरस को जिन एन0जी0ओ0 ने देशी-विदेशी सत्ता से दलाली और साठ-गंाठ कर फैलाने में साथ दिया वे ही भ्रष्टाचार के विरूद्ध कारगर लड़ाई लड़ने का छद्म रच रहे हैं ।
दुनिया से वैचारिक जनान्दोलनों की हवा निकालने में जनपक्षधर मुखौटे के एन0जी0ओ0 ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । मोटे तौर पर एन0जी0ओ0 का आगमन समाज को सुधारने-संवारने के लिये नहीं, अतिरेक पूंजी के बंटवारे, उसके हितपोषकों को जनपक्षधर दिखाने या लोकहितकारी बताने के उद्देश्य से हुआ । महाशक्तियों की उदंड पुंजी ने खुली अर्थव्यवस्था का ऐसा व्योमोह रचा कि बड़े-बड़े वामपंथी, चिंतक भुलावे में आये और कहीं-कहीं तो गुणगान करते नजर आये । कुछ जमीनी संघष्र से कट कर एन0जी0ओ0 की ओर सरक गये और कुछ ने वैचारिक संघर्ष के रास्ते को बंद कर यथास्थितिवाद को स्वीकार कर लिया । आज भ्रष्टाचार मुहिम को गैर वैचारिक लोगों द्वारा नेतृत्व देने के पीछे यही कारण है । वैचारिक स्पष्टता के बिना भी इस मुहिम को व्यापक समर्थन मिलने के पीछे खुली अर्थव्यवस्था की वह दरिंदगी है जो अपनों को निगलने से भी परहेज नहीं कर रही है । वैश्विक दबाव इतना है कि सरकारें निम्न और मध्यम वर्ग की भावनाओं से परे काम कर रही हैं । सत्ता सिंघासन पर बैठे लोग विदेशी भाषा, संस्कृति, अर्थनीति और राजनीति से चंद लोगों का हितपोषण कर रहे हैं । लेकिन जब माॅल कल्चर के लुभावने तुरूपों और के0एफ0सी0 के लजीज व्यंजनों के सहारे मध्यम वर्ग को फांसने के हथियार नकारे साबित हो रहे हैं तो वे सड़कों पर उतरने को बेचैन दिख रहे हैं और अन्ना उनके माध्यम बनते हैं ।
आज भारत का मध्यम वर्ग वैश्विक स्वप्नलोक में जीते हुये, उस देशीय लूट को जो उसके हिस्से में आने के बजाय विदेशों में चला जा रहा है देख आंदोलित है तो आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिये । उदारीकरण की लूट, झूठ और फूट तंत्र से दुनिया कराह रही है । ऊंच-नीच की खाइयां बढ़ रही हैं । यह बात मध्य-पूर्व के देशों से लेकर भारत में दिखाई देने लगी है । लंदन के दंगों, ट्यूनीशिया और मध्य-पूर्व के हिलते निजामों, मिस्त्र, अल्जीरिया, सीरिया, सूडान में धधकते जनांदोलनों की आग स्वतः स्फूर्त तो है पर इसका कारण उदारीकरण के गर्भ में छुपा है । नव उदारवादी, पूंजीवादी नीतियों और शासकों के जनतंत्र विरोधी नीतियों से त्रस्त जनता प्रतिरोध के रास्ते पर बढ़ती नजर आ रही है । ये वो लोग हैं जो समान्यतया अपनी दिनचर्या में मशगूल रहते आये हैं और कभी-कभी नवउदारवादी पूंजीवादी छलावे पर इतराते भी रहे हैं । आज वे उस छलावे की असलियत देख रहे हैं । वे इस उदारवादी लूट की अनैतिकता और अमानवीयता से विचलित हो गये हैं । अपने स्वार्थ के लिए हर कुकृत्य को जायज ठहराने वाले तंत्र की नंगई देख रहे हैं । तभी तो वे इस सड़ांध से उठने वाले धुएं को देख आग धधकाने की तमन्ना लिए बढ़े चले आ रहे हैं ।
आज विश्व के तमाम निजामों के लिये राहत भरी बात यह है कि स्वतः स्फूर्त आंदोलनों को वैचारिक दिशा नहीं मिल पा रही । वामपंथियों में बिखराव और भटकाव है और मैकडानल्ड का बर्गर खाये युवाओं में वामपंथ से दुराव भी । ऐसा नहीं होता तो आज भ्रष्टाचार मुक्ति के साथ पूरी दुनिया, आतताई खुली अर्थव्यवस्था से मुक्ति की लड़ाई लड़़ती ।

हमें इस तथ्य को स्वीकार करना चाहिये कि धरती पर सृष्टि के समय से ही अन्याय की सत्ता ज्यादा मजबूत रही है और न्याय की कम । न्याय एक सापेक्ष और परिकल्पित शब्द है । ऊंच-नीच और गैरबराबरी के समाज में न्याय, छलावे के सिवा कुछ नहीं होता और अन्याय की सत्तायें बिना भ्रष्टाचार की खड़ी नहीं होतीं । संभव है आज आर्थिक भ्रष्टाचार का कदाचार शहरी मध्यम वर्ग को इतना जकड़ा हुआ है कि वे उन तमाम भ्रष्टाचार को भ्रष्टाचार मानने को तैयार नहीं हैं जो परोक्ष रूप से व्यापक और कमजोर समाज को प्रभावित कर रहा है । मसलन कि दोहरी शिक्षा नीति की बुनियाद रखने का खेल किसी भ्रष्टाचार से कम है ? आज जिन निजी स्कूली बच्चों के हाथों में अन्ना आंदोलन की तख्तीयां हैं, सिर पर सफेद टोपी हैं और जो चमचमाते स्कूली पहनावे में सड़कों पर दिखाई दे रहे हैं उनके कारण देश के करोड़ों बच्चों के हिस्से में मात्र मिड-डे-मील का भुलावा है । गरीब बच्चे सर्व शिक्षा अभियान के नाम पर कुछ अनुदान, कुछ राहत और नाम लिखना सीख नरेगा मजदूर से आगे नहीं बन पा रहे हैं और संपन्न तबकों के हिस्से में चिकित्सा, इंजिनीयरिंग, प्रबंधन से लेकर तमाम क्षेत्रों की सीटें आरक्षित कर दी जाती हैं । उच्च शिक्षा क्षेत्रों को नकारा साबित करने और विदेशी विश्वविद्यालयों के आगमन के औचित्य को सही बताने के लिये माध्यमिक कालेजों से लेकर विश्वविद्यालयों में अध्यापकों का अकाल पैदा कर दिया जाता है । बाहर से भव्य दिख रहे उच्च शिक्षण संस्थान अंदर से खोखले कर दिये गये हैं और और दूसरे तरीकों मसलन सीट कटौती, फीस बढ़ोत्तरी और पुस्तकालयों की कमी से गरीबों की सरकारी शिक्षण संस्थानों से बेदखली की जा रही है । चिकित्सा क्षेत्र का आलम यह है कि सरकारी अस्पतालों के नाम पर सिर्फ भवन बचे हैं और चिकित्सा के नाम एकाध सर्दी,बुखार की गोलियां । जिनके जेब में पैसा है वे तो पंच सितारा अस्पतालों में काया कल्प करा रहे हैं और गरीबों के हिस्से में गांव के ओझा-सोखा, पीर, मजार हैं । तैंतीस वर्षों से पूर्वांचल का अभिशाप बन चुकी इंसेफेलाइटिस बीमारी से हजारों बच्चे मर चुके हैं । जुलाई से अक्टूबर तक अस्पतालों में बिस्तर नहीं मिलते । फिर भी न तो इसके लिये कोई बड़ा जनान्दोलन हुआ और न सरकारें चेतीं । दरअसल मरने वाले जब दबे-कुचले हों तब मीडिया और सरकारों के मायने बदल जाते हैं । भ्रष्टाचार की वास्तविक लड़ाई, बिना समान शिक्षा और सर्व सुलभ चिकित्सा की लड़ाई लड़े, पूरी हो सकती है ? देश के न्यायालयों में न्याय का गोरखधंधा घूस के अलावा अंग्रेजी भाषा के एकाधिकार के कारण मजबूत हुआ है । देश की अनपढ़ या अल्प शिक्षित जनता ऐसे अदालती कार्यवाहियों को समझने की कूबत नहीं रखती और न यह समझ पाती कि उसके वकील उसकी पैरवी कर रहे हैं या खिलाफत ।
दृश्य मीडिया जो आज भ्रष्टचार मुहिम में अपनी नैतिकता को सबसे ज्यादा प्रमाणित करने में जुटा है यही अंघ विशवासों को फैलाकर गरीबों को ठगने और मरने को मजबूर भी कर रहा है । दिन भर टी0वी0 चैनलों पर तमाम रक्षा कवचों, यथा रूद्राक्ष कवच, हनुमान कवच और शिव कवच, भभूत, अंगूठियों बेचने का काम तो होता है, असाध्य बीमारियों, सभी मुश्किलों, दुखों को दूर करने के पाखंड़ी उपाय बताते दिखते हैं । यानी कि पाखंडियों को महिमा मंडित करने वाला दृश्य मीडिया ही अन्ना हजारे को जबर्दस्त समर्थन देता दिख रहा है । सरकारी विज्ञापनों के लिये चाटुकारिता की हद तक गिरने वाला और माफियाओं के पैसे पर पलने वाला मीडिया स्वयं को जनपक्षधर दिखाने का स्वांग भी रचता है और मौके-बे मौके जनपक्षधरता का गला भी घोटता है । मामला सिर्फ टी0आर0पी0 का है । उसे किसी सरोकार से क्या लेना-देना ?
भ्रष्टाचार के विरूद्ध चलाई जा रही मुहिम और सशक्त लोकपाल की नियुक्ति का समर्थन करने के बावजूद हमें सतर्क दुष्टि अपनाने की जरूरत है । सिर्फ लोकपालों के सहारे भ्रष्टाचार समाप्त नहीं किया जा सकता । एकाध के विरूद्ध कार्यवाही कर कुछ सनसनी खेज समाचार बनाये जा सकते हैं । कोई भी लोकपाल वैश्विक दबाव में तैयार की जा रही सरकारी नीतियों को नहीं रोक सकता । वह दोहरी शिक्षा, चिकित्सा व्यवस्था की मार से गरीबों की हिफाजत भी नहीं कर सकता । ऐसे में इस अंादोलन के सकारात्कम पहलू को समर्थन देने के साथ-साथ उसके नेतृत्व को परम मानवीय बनाने की भूल नहीं करनी चाहिये । व्यक्ति विशेष को देवत्व प्रदान कर पूजने के अलावा और कुछ हाथ नहीं लगता । परम मानव, कुलीनतावाद को जन्म देता है जो अंततः जनविरोधी ही होता है।
अन्ना आंदोलन को मिल रही सफलता, संसदीय व्यवस्था की अनैतिकता में छिपी है । इसी अनैतिकता ने महाशक्तियों के आगे घुटने टेक कर लूट के दरवाजे खोले हैं । कुछ के लिये बहुतों को बर्बाद किया है । संसदीय प्रणाली ने जनपक्षधरता के बजाय, व्यक्तिपरकता को बढ़ावा दिया है। माफिया, गुंडे सत्ता के केन्द्र में ला दिये गये हैं । जनसामान्य के हिस्से में विकल्पहीन वोट के सिवा कुछ नहीं । संसदीय चुनाव मात्र धनबल और बाहुबल से जीते जा रहे हैं और चुन प्रतिनिधि जवाबदेही से मुक्त हो, रातोंरात करोड़़ पति हो रहे हैं । जाली डिग्रीयों, जाली नोट, जाली कंपनियों का बोलबाला है । पैसे के बल पर बाजारवाद में सब कुछ खरीदा जा सकता हैं यहां तक की इमान और न्याय भी । पैसा मनुष्य का नियंत्रक बन बैठा है और विचार निरर्थक । खुलीअर्थ व्यवस्था को स्थापित करने में ये ही कारक महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे हैं । मूल्यपरक जीवन निर्माण के लिये संस्कृति, साहित्य, चैपाल, लोकसंस्कृतियों को तिलांजलि दे दी गई है और कूपमंडूपता के लिये अंधविश्वासों को मजबूत बनाया गया है ।
ऐसे में अन्ना आंदोलन को मिल रहा व्यापक जन समर्थन, वैश्विक अर्थ व्यवस्था के कारण नये मघ्यम वर्ग के अंदर पनपे हताशा, कुंठा और स्वपनलोक को हाशिल न कर पाने की बेचैनी का हिस्सा है । इस मध्यम वर्ग के एक तबके के हाथों में बेशक तिरंगा है पर पैसे और ऐसो आराम के लिये वाशिंगटन और लंदन है । इसका एक तबका देश के पैसे से आई0आई0टी0 कर विदेशों को सेवा देता है और भ्रष्टाचार के विरोध में बोलता भी है । अन्ना आंदोलन में अगर पूरा देश शामिल बताया जा रहा है तो फिर भ्रष्टाचार बैकुंठ में तो है नहीं ? एन0जी0ओ0 गामी आंदोलनों के सहारे भ्रष्टाचार की लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती और न इमानदार अधिकारियों को संरक्षण प्रदान किया जा सकता । इसके लिये इस आंदोलन की दिशा और वैचारिकता का मूल्यांकन आवश्यक है । अन्यथा हम कभी मोदी की वकालत करते नजर आयेंगे तो कभी विदेशी पैसे से देशीय लड़ाइयों को व्यवस्था परिवर्तन का नाम देते । लोकपाल की मांग व्यवस्था परविर्तन की मांग नहीं है । यह वही गांधीवादी तरीका है जो अंग्रेजों से कुछ रिआयतें हाशिल कर चुप बैठ जाता या इसे आजादी का नाम दे देता है । बेशक इसे दूसरी आजादी कही जा रही है पर इस आंदोलन में भगत सिंह और गांधी के विचारों में घालमेल पैदा किया जा रहा है । एन0जी0ओ0 यही करते हैं । वे तंत्र के साथ नुक्कड़ नाटकों को स्थापित करते हैं । उनका मकसद तंत्र पर नियंत्रण बनाये रखना और बाजरीकरण को तेज करना ही है । संभव है इस आंदोलन के कुछ सकारात्मक परिणाम निकलें । पर व्यापक जनमुक्ति की लड़ाई, वैचारिक नूतृत्व के बिना और अराजक हो जायेगी । इससे व्यवस्था में कोई आमूल परिवतर्न नहीं होगा । अन्ना हमारे लिये भगवान बना दिये जायेंगे और हम उन्हें पूजते हुये लूटने को अभिशप्त होंगे । जनपक्षधर शक्तियों के लिये यह सीखने और मूल्यांकन कर आगे बढ़ने का समय है । जनता को उनके हाल पर छोड़ देने से ऐसी ही लड़ाइयां जन्म लेंगी जो अंततः व्यवस्था के पक्ष में जायेंगी ।

सुभाष चन्द्र कुशवाहा
बी 4/140 विशानखंड
गोमतीनगर,लखनऊ 226010

रविवार, 12 जून 2011

लोकरंग की आंच : सुभाष चन्द्र कुशवाहा: समय और साहित्य

लोकरंग की आंच : सुभाष चन्द्र कुशवाहा: समय और साहित्य

इस आग की तपिश महसूस कीजिए

उदारीकरण की लूट, झूठ और फूट तंत्र से दुनिया कराह रही है । ऊंच-नीच की खाइयां बढ़ रही हैं । यह बात मध्य-पूर्व के देशों से लेकर भारत में भी दिखार्इ देने लगी है । टयूनीशिया में एक शिक्षित बेरोजगार युवक के आत्महत्या की प्रतिक्रिया में वहां के तानाशाह को देश छोड़ भागना पड़ता है तो समूचा मध्य-पूर्व का निजाम हिलता दिख रहा है । मिस्त्र, अल्जीरिया, सीरिया, सूडान और न जाने कितने नाम धधकने लगे हैं । नव उदारवादी पूंजीवादी नीतियों और शासकों के जनतंत्र विरोधी नीतियों से त्रस्त जनता प्रतिरोध के रास्ते पर बढ़ती नजर आ रही है । अन्ना हजारे जब भ्रष्टाचार के विरोध में भूख हड़ताल पर बैठते हैं तो देखते-देखते हर शहर, कस्बे में लोग घरों से निकलने लगते हैं । ये वो लोग हैं जो सामान्यतया अपनी दिनचर्या में मशगूल रहते आये हैं और कभी-कभी नवउदारवादी पूंजीवादी छलावे पर इतराते भी रहे हैं । आज वे उस छलावे की असलियत देख रहे हैं । वे इस उदारवादी लूट की अनैतिकता और अमानवीयता से विचलित हो गये हैं । अपने स्वार्थ के लिए हर कुकृत्य को जायज ठहराने वाले तंत्र की नंगर्इ देख रहे हैं । तभी तो वे इस सड़ाध से उठने वाले धुएं को देख आग धधकाने की तमन्ना लिए बढ़े चले आ रहे हैं ।
सर्वोच्च न्यायालय कह रहा है कि अमीर और गरीब, दो भारत नहीं हो सकते । बात सुनने में अच्छी लग रही है । मगर हकीकत तो यही है । अब तो खार्इ और गहरी हुर्इ है । और गहरी की जा रही है । शापिंग माल, पब, चियर्स गर्ल संस्कृति के अंदर हजारों लोग भूखों मर रहे हैं । मनरेगा पर करोड़ों लुटा कर भी गांवों की तस्वीर नहीं बदल रही । कन्या धन, विधवा पेंशन, वृद्धा पेंशन, इंदिरा आवास योजनायें गांवों तक जा कर सामंतों या प्रधानों के जेब में जा रही हैं और गांवों में ऊंच-नीच की खाइयां बढा़ रही हैं । पानी संचयन के नाम पर खोदे जा रहे तालाबों में पानी नहीं है और मिड-डे-मील खाने वाले बच्चे पढ़ार्इ का ककहरा भी नहीं सीख रहे हैं । दूसरी ओर वातानुकूलित स्कूलों की भव्य इमारतों में पढ़ रहे बच्चे हैं जो घुड़सवारी, तैराकी ही नहीं सीख रहे, कम्प्यूटर, इंटरनेट से अपना कल संवार रहे हैं । कहने को तो साक्षरता का ग्राफ ऊंचा हुआ है पर ऐसी साक्षरता किस काम की ? ऐसे साक्षर इस देश की राजनीति, अर्थतंत्र और समाजशास्त्र को समझने का ज्ञान नहीं रखते, सिर्फ पाखंडियों के प्रवचन सुनते हैं । ज्ञान का ग्राफ शहर और गांवों के बीच और भी चौड़ी खार्इ खींच रहा है । यानी कि एक साक्षर मात्र नाम लिखने भर को है तो दूसरा के0जी0 वन में ही फर्राटे से अंग्रेजी बोल रहा है । फिर भला दो भारत कैसे नहीं होंगे ? सारी नीतिया ही दो भारत के निर्माण के लिए बनार्इ जा रही हैं ।
सत्ता केन्द्रों के इर्द-गिर्द जो राजनीति हो रही है वह समाज के नैतिक मूल्यों को कुतर रही है । आज की राजनीति के पास मानवीय मूल्यों या नैतिकता के लिए बहुत कम जगह बची है । वोट जब पैसे और गुंडर्इ से खरीदे जा रहे हों वैसे में भला समाजिक मूल्यों की हिफाजत की बात करना मूर्खतापूर्ण जान पड़ेगी । जहां सिफारिशों के लिए उचित-अनुचित का विचार मायने नहीं रखता । हत्यारों को बचाने में राजनीति के उच्च तंत्र काम करते हों, गुंडे कानून को ठेंगा दिखाते हों, न्यायालयों की कार्यप्रणालियां धनिकों के पक्ष में तैयार की गर्इ हों, ऐसे में न्यायप्रिय तंत्र की बात कैसे की जा सकती है ? सांसद और विधायकी पैसे के बल पर हासिल की जा रही है और दूसरी ओर समाज के मानसिक स्तर को इतना गिरा दिया गया है कि पाउच बांटने वाले माननीय बना दिये जाते हैं । जाति, धर्म, आतंकवाद और अंधराष्ट्रवाद के बीच नैतिकता की बात करने वाले हासिये पर डाल दिये जाते हैं, तब पूरे तंत्र में भ्रष्टाचार, अनैतिकता और लंपटर्इ को सफलता का मापदंड मान लिया जाना कोर्इ आश्चर्य की बात नहीं कही जा सकती । ऐसे में समाज घोर निराशा के दौर से गुजरता दिख रहा है । वह ऊपर से जितना शांत दिख रहा है उतना है नहीं । आज अन्ना हजारे की मुहिम को जो सफलता मिलती दिख रही है वह समाज के अंदर पैदा निराशा और सत्ता तंत्र से उठते विश्वास का ही नतीजा है । समाज के तमाम मानसिक विभिन्नताओं और तमाम ऊंच-नीच की खाइयों के बावजूद ऐसी चेतना उपजती दिख रही है जो चुने प्रतिनिधियों को तो इस मुहिम से बाहर कर रही है पर पारदर्शी व्यकितयों को हाथों-हाथ ले रही है । दरअसल यह लोकतंत्रात्मक व्यवस्था के खोखलेपन को स्पष्ट करती दिख रही है । वोट से बदलती सत्तायें जनता को संतुष्ट नहीं कर पा रहीं । सिर्फ मजबूरीवश जनता ऐसे तंत्र के साथ दिखती जान पड़ती है । जैसे ही कोर्इ बयार उसकी हताशा, कुंठा और निराशा की नब्ज पकड, बहना शुरू करती है, जनता सड़कों पर आने को बेचैन दिखती है । उदारीकरण ने जितनी तेजी से अपने पांव फैलाये हैं शायद उतनी ही तेजी से परिवर्तन की बयार तूफान बनने को उमड़-घुमड़ रही है । आप भुलावे में मत रहिये । धुएं को देखिये और जितनी जल्दी हो सके तंत्र के दोगलेपन को नेस्तनाबूद कीजिये । वरना जनता अपना फैसला सुनायेगी और मजबूत से मजबूत तंत्र को सुनामी की तरह उखड़ फेंकेगी । बेहतर होगा कि दो भारत की कल्पना करने वाले जल्द से जल्द इस आग की तपिश को महसूस करें ।
सुभाष चन्द्र कुशवाहा
सृजन
बी 4140 विशालखंड
गोमतीनगर,लखनऊ 226010

समय और साहित्य

अमानवीय समय का साहित्य, साहित्य का अमानवीयकरण करने लगे तो सर्जनात्मकता पर आसन्न खतरे के प्रति हमें सतर्क हो जाना चाहिए । पिछली शताब्दी का अंतिम दशक हिंसा, साम्प्रदायिकता, अमानवीयता को संस्थागत जामा पहनाने, अंधराष्ट्रवाद, लूट और अपराधीकरण को आदर्शवाद बनाने, विचारशीलता और विश्वसनीयता को अविश्वसनीयता की संस्कृति में बदलने का प्रस्थान बिन्दु है जो नर्इ सदी के प्रथम दशक तक आते-आते अपने प्रचंड आवेग में, अपने निर्लज्ज रूप-रंग पर इतराने लगा है । यह वह काल है जो जनपक्षधर लोगों को अपराधपरस्त और अपराधपरस्तों को जनपक्षधर दिखाने, बताने के कुचक्र को संवैधानिक जामा पहनाने लगा है । यह मुनष्यता का 'काल है । यह दौर मनुष्य को मनुष्य से इतर वह सब कुछ बनाने, दिखाने की प्रक्रिया की शुरूआत करता है जिसमें मानवीय संवेदनाओं के लिए जगह न बच पाये । तभी तो आज आंखों के आंसू मर गये लगते हैं । हम लातूर, गोधरा, गुजरात दंगों पर आह भरने के बजाय इस दौर की विश्व सुन्दरियों पर जान निछावर करते नजर आते हैं । यह दौर सात समंदर पार संपर्क कर सकता है पर पड़ोसी का आर्तनाद नहीं सुन सकता । यह दौर हमें अपनी जमीन, बोली-भाषा, संस्कृति या कुल मिलाकर कहें तो भारत से नफरत और इंडिया को मस्त रहने की संस्कृति को मजबूती प्रदान करता दिखार्इ देता है । यह आम और खास में फर्क करने का दौर है । संचारक्रांति का आक्रमण, आम और खास के बीच इतनी दूरी बढ़ाता जा रहा है कि अतीत की दास प्रथा शर्मिंदा नजर आ रही है । यह दौर इस मायने में वैशिवक है जिसमें पूंजी अपनी गुंडागर्दी और उदंडता से सब कुछ खरीद सकती है । उसकी नजर में सब कुछ बिकाऊ है जहां हम अपने परिवेश को बेचकर, 'स्व खरीदना चाहते हैं । अपने इतिहास और भविष्य की कीमत पर वर्तमान भोगना चाहते हैं । वैश्वीकरण में कोर्इ सगा नहीं है । यहां अपने हित के लिए दूसरे का अहित कोर्इ अपराध नहीं है । यहां मानवीय संवेदनायें जीवन-मरण से रिश्ते जोड़ने के बजाय चंद लम्हों के लिए इंटरनेट पर समय बिताने तक की प्रक्रिया में तब्दील होती दिखती हैं । यह र्इ-मेल, चैटिंग, एस0एम0एस0, डिजिटल और मोबाइल की चहकती दुनिया है जो गांवों को अपनी गिरफ्त में लेकर, उन्हें उपेक्षित करती है ।
यह दौर श्रम की कमार्इ को पीछे ढकेलता है और ठगी(जिसमें कर्ज, करार, कमीशन और कब्जा की नीति शामिल है), सटटेबाजी और खास तकनीकी कमार्इ को आगे लाता है । बिना हींग-फिटकरी के माल चोखा बनाने का यह दौर है जिसमें तकनीकी ज्ञान में पीछे कर दिये गये समाज के सामने आत्महत्या का विकल्प बचता है । तभी तो इन दशकों में बड़े पैमाने पर किसानों ने आत्महत्या की है । यह दौर बड़े-बड़े मुनाफाखोंरों के लिए प्राकृतिक संपदा के दोहन, पर्यावरणीय संतुलन को तहस-नहस कर कुछ के लिए सबके 'जीवन को कैद कर लेने वाला है । इस दौर में लोकतांत्रिक व्यवस्था में गरीबों के गुर्दे निकाले गये हैं और मजबूरों को अस्पतालों की कीमत अदा न करने पर मरते देखा गया है ।
यह दौर गलाकाट प्रतियोगिता का है । प्रतियोगिता ऐसी जहां असमानता की खार्इ इतनी बढ़ा दी गर्इ है कि एक शख्स पैदल या लंगड़ा कर दिया गया है, दूसरे को बी.एम.डब्लू गाडि़यां थमा दी गर्इ हैं और तब कहा जा रहा है दोनों के बीच लम्बी दौड़ की प्रतियोगिता होगी । जो जीतेगा वह जीवन जियेगा, जो हारेगा उसे शौक से आत्महत्या करने की छूट होगी । ऐसी नीति में वैश्वीकरण का तुर्रा यह कि प्रतिस्पर्धा से गुणवत्ता निखरती है ।
यह दौर संघर्षशील शकितयों को किनारे लगाने, संघर्ष की ऊर्जा को समाप्त करने के अप्रत्यक्ष तरीकों को अपनाने, परिवर्तनगामी नारों, स्वरों को एन0जी0ओ0गामी बनाने और कुछ हद तक इनमें घालमेल पैदा करने का भी है । यह दौर माक्र्सवादी वैज्ञानिक ऊर्जावान विचारशीलता का मजाक उड़ाने का और समाज में हताशा फैलाने का है । इस दौर में चिंतनशील लोगों के दिमाग में यह बात डाल दी गर्इ है कि यथासिथतिवाद समाज की नियति है । बदलाव की विचारधारा एक छलावा है । जबकि यथार्थ हमारे सामने है । भविष्य को अपने इशारे पर चलाने वालों के सामने संकट दिखार्इ देने लगा है । वैश्वीकरण के इन दो दशकों के जाते-जाते मिस्त्र, टयूनीशिया, लीबिया, सीरिया और न जाने कितने नाम उन सारे उदंड विचारधाराओं को ध्वस्त करते दिखार्इ देने लगे हैं जिनको आदर्श बनाकर यह दौर बिगड़ैल सांड़ की तरह कुलांचे भर रहा था । यथासिथतिवाद निरंकुशता की कोख से भले जनमता हो, बहुत दिनों तक वह निरंकुशता के बल पर जिंदा नहीं रह सकता । वह अपने खात्मे का हथियार स्वयं तैयार करता है, यह बात एक बार फिर सिद्ध होती दिख रही है ।
इस बात पर हमें गौर करना चाहिये कि पिछली सदी के अंतिम दशक के प्रारम्भ में भूमंडलीकरण से कहीं अधिक उन्मादी, राष्ट्रवादी साम्प्रदायिकता युवा पीढ़ी के सामने खतरा बन कर आर्इ थी क्योंकि पूर्व के साम्प्रदायिकता के रंग-रूप की तुलना में वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जैसी विचारधारा से लैस थी । वह उदारता के मुखौटे के भीतर खूंखार थी । उसने संवैधानिकता का जामा भी पहन लिया था । ऐसे समय में भी बिना किसी बड़े जनान्दोलनों की पृष्ठभूमि से सीखे कथाकारों ने उस खतरे को भांपा । सांप्रदायिकता की अंतर्वस्तु- गंवर्इ जातिवाद और छुआछूत को केन्द्र में रखकर शिवमूर्ति(तर्पण), संजीव(योद्धा), ओमप्रकाश वाल्मीकि(छुआछूत) हस्तक्षेप करते हैं । वैचारिक प्रतिबद्धता के क्षरण के शुरूआती दौर में मदनमोहन अपने 'हारू कहानी के माध्यम से हमारे बीच आते हैं । टेक्नालाजी और कला के त्रासद संबंधों को व्यक्त करने वाली मनोज रूपड़ा की कहानी 'साज-नासाज देखने को मिलती है । गांव-गिरांव की कथा-व्यथा को महेश कटारे जैसे कहानीकार अपनी कहानी 'कुआं में और मिथिलेश्वर 'बाबूजी में जितनी संजीदगी से प्रस्तुत करते हैं उतनी ही संजीदगी से देवेन्द्र 'क्षमा करो हे वत्स के माध्यम से बेटे की निर्मम हत्या पर बाप द्वारा कुछ न कर पाने के आर्तनाद और संवेदनात्मक अनुभूतियों को चरम पर ले जाते हैं । इस दौर के दूसरे महत्वपूर्ण कथाकारों में योगेन्द्र आहूजा, कैलासचंद्र, सुभाष पंत और भालचंद जोशी को भी नहीं भूलना चाहिये जो वैशिवक दुनिया की मक्कारियों को अपनी कहानियों में उधेड़ कर सार्थक हस्तक्षेप करते नजर आते हैं । उसी दौर की एक अजीब विडम्बना है कि विचारधारा को 'साहित्य या कला के क्षेत्र में गुण्डागर्दी(वर्तमान साहित्य,जनवरी-फरवरी 2000) कहने वाले उदय प्रकाश जैसे महत्वपूर्ण और बहुचर्चित कहानीकार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को सचेतन ढंग से अपनी कहानियों में पिरोते हैं जैसे कि 'वारेन हेसिटंग का सांड़ में ।
यह सही है कि सदी के पहले दशक के आस-पास के ज्यादातर युवा कहानीकारों की कहानियों में गांव-गिरांव, भूख और जातिवादी दंश देखने को नहीं मिलता जो समाज की ज्वलंत समस्या है । सुरेश कांटक, वासुदेव, गौरीनाथ और कैलाश बनवासी जरूर कुछ हस्तक्षेप करते हैं और श्रीधरम अपनी कहानी 'नवजात-क-कथा के माध्यम से अपनी बोली-बानी और कथा शिल्प के द्वारा गांव के वर्तमान सवर्णवादी मानसिकता की जड़ता, उसकी विसंगतियों को कथा साहित्य में स्थान देते हैं । सांप्रदाकिता के नये उभार पर युवा पीढ़ी की चिंता जरूर उभरती है परन्तु वैचारिक अस्पष्टता के चलते अपनी सघनता को बिखेर देती है ।
विगत सौ वर्षों की हिन्दी कहानी परंपरा में अधिकांशत: प्रेमचंद की कहानियों ने ही प्रभाव डाला है । 'पंच परमेश्वर का वर्ग चरित्र आज की पंचायती व्यवस्था में और भी मूल्यहीन हुआ है । तब एक होरी आत्महत्या करता है आज हजारों होरी आत्महत्या कर रहे हैं। जीवन संघर्ष और सघन हुआ है । अमरकांत की 'डिप्टी कलेक्टरी, 'जिंदगी और जोंक, शेखर जोशी की 'हलवाहा और 'नौरंगी बीमार है, मन-मसितष्क से उतरती ही नहीं ।
बहुचर्चित युवा कथाकारों की कहानियों से गुजरते हुए हमें यह आभास होता है कि उनके पास निजी भाषा, मुहावरा और कथन का खास लहजा तो है पर कथा में मानवीय संवेदनशीलता और दृषिट का अभाव है । आज युवा पीढ़ी की हिन्दी कहानी में दो धारायें समानांतर चल रही हैं । मैं इसे गैरजरूरी भी नहीं मानता । बात सिर्फ इतनी है कि कलावादी रूझानों को जिस तरह सचेतन ढ़ंग से कुछ मठाधीशों द्वारा आसमान पर बैठाने का कुचक्र रचा जा रहा है और जिस तरह जमीनी कहानियों को सामान्य भाषा और कमजोर शिल्प बताकर खारिज किया जा रहा है, जिस तरह कहानी की सकारात्मक परंपरा को हाशिये पर ढकेलने का काम किया जा रहा है, वह साहित्य के लिए खतरनाक तो है ही, पूरे रचनाक्रम को दक्षिणपंथी रुझानों में संतृप्त करने का प्रयास भी दिखता है । बस इसी हद तक कुछ बहु उछालू कथाकारों में नयापन दिखता है । साहित्य मात्र शब्दों की जुगाली नही है । अगर है तो प्रेमचंद अब तक भुला दिये गये होते । आज कहानी प्रेमचंद की शिल्प और भाषा से बेशक आगे निकल गर्इ हो, सामाजिकता और सरोकारों के क्षेत्र में प्रेमचंद से आगे निकलना अभी भी संभव नहीं हुआ है । कहानियां पढ़ने के बाद देर तक मसितष्क में जिंदा नहीं रह पातीं
कहानी की दूसरी धारा, यथार्थवादी जमीन पर खड़ी है और उपेक्षा के तमाम हथकंडों के बावजूद अपना स्थान हासिल कर रही है । यथार्थ का लेखकीय गल्प कहानी को एकरस, उबाऊ और नीरस बनाने के बजाय संवेदनशील और विश्वसनीय बनाता है । कलावादियों के इस आरोप को कि यथार्थ से मुकित रचनात्मकता के लिए जरूरी है तभी स्वीकार्य किया जा सकता है जब मनुष्यता की बात को हवा-हवार्इ मान लिया जाये और उसको बचाने की प्रासंगिकता को खारिज किया जाये । आज पूंजी की आवारगी ने जो व्यूह रचना की है, उससे मनुष्यता का संकट और गांव का अंधकार और सघन होता जा रहा है । ऐसे में रोम के जलने पर नीरो बंशी नहीं बजा सकता । साहित्य का सामाजिक सरोकारों के इतर कोर्इ स्थार्इ स्थान नहीं हो सकता । चाहें आप इसे कितना ही पीछे ढकेलने की राजनीति कर लें, कालजयीे रचनायें वहीं होंगी जो विचारधारा और सामाजिक सरोकारों की सघन बुनावट लिये होंगी । पंचतंत्र की मिथकीय कहानियां, विशुद्ध गल्प होते हुए भी सामाजिक सरोकारों के साथ गुथी होने के कारण अमर हैं ।
समय, समाज और जिंदगी के दुरूह पेचों को बिना विचारधारात्मक बोध के नहीं समझा जा सकता और केवल समझ ही पर्याप्त तो नहीं ? इन दुरूहता की काट और उससे निकलने की राह भी विचारधारात्मक बोध से ही संभव है । श्रंृखलाबद्ध नाभिकीय विखंड़न की असीमित ऊर्जा मानवता का संहार करती है लेकिन ग्रेफाइट की छड़ों से विखंड़न को नियंत्रित कर हम उपयोगी ऊर्जा पैदा कर लेते हैं । ठीक उसी तरह, वैचारिक दिशा, लेखकीय दायित्वबोध को नियंत्रित करती है और दायित्वबोध से उत्पन्न ऊर्जा, सामाजिक सरोकारों को स्थापित करने में मदद पहुंचाती है । जो लोग 'कला, कला के लिए का राग अलापते है वे प्रतिगामी विचारों के संरक्षण की दिशा में काम करते हैं । वैचारिक लेखन को खारिज करने वाले दरअसल खुद किसी न किसी वैचारिक तंत्र के पक्ष में खड़े होते हैं जहां उन्हें कुछ मान-सम्मान हासिल होता दिखता है और ऐसा कर के वे बहुत हद तक अराजकता के पक्ष में चले जाते हैं । गुजरात के दंगों के बारे में बहुत से साहित्यकारों के वक्तव्यों से यह बात सही भी साबित हुर्इ है । यहां मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि वैचारिक प्रतिबद्धता से मेरा मतलब मात्र 'कामरेड कहने वाली संस्कृति से नही है । देखने को तो प्रगतिशील लेखकों के दाहिने हाथ में भी रक्षासूत्र बंधा दिखता है । शुभ-अशुभ से पुस्तकों का लोकार्पण होता है । प्रात: सूर्य को अघ्र्य दिया जाता है । कर्मकांड़ों पर जान निछावर की जाती है और उस पर तुर्रा यह कि वे समाज को सही रास्ता बताने वाले जीव हैं । विचारधारा खेमेबंदी जैसी चीज भी नहीं है जहां पाँव छुआकर शिष्यत्व प्रदान किया जाये तथा खराब से खराब रचना को विभिन्न कोणों से जाँच-परख कर अदभुत चमत्कार पैदा कर दिया जाये । विचारधारात्मक बोध संवेदनात्मक बोध को सघन बनाने का हथियार है और जिंदगी की समझ को मजबूत बनाने का भी।
मनुष्य-मुनष्य के बीच बनने वाले सभी संबंध, आर्थिक और सामाजिक होते हैं । आर्थिक और सामाजिक संबंध, सामाजिक परिवेश का निर्माण करते हैं । मुनष्य के अंदर मनुष्यता और सामाजिक असिमता के बीज बोते हैं । फिर मनुष्य, मनुष्यता और सामाजिक असिमता की रक्षा के लिए अपने सभी औजारों का उपयोग करता है । उन्हीं में से साहित्य भी एक औजार है । ऐसी सिथति में साहित्य को सामाजिकता से अलग नहीं किया जा सकता । संभव है साहित्य कोर्इ क्रांति न कर पाए, पर जब भी कोर्इ क्रांति या बदलाव होगा, वहां साहित्य बेहतर दिशा या राह दिखाने को मौजूद रहेगा । समाज, संवेदना और साहित्य की अनिवार्यता बनी रहेगी ।

सुभाष चन्द्र कुशवाहा
सृजन
बी 4140 विशालखंड
गोमतीनगर, लखनऊ 226010

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

यूं चले गये भाई अनिल सिन्हा




यूं चले गये भाई अनिल सिन्हा? 23 जनवरी के ई-मेल में आप ने वादा किया था कि 25 फरवरी को लखनऊ आ जाऊंगा । आना तो दूर, सदा-सदा के लिए शरीरिक दूरी बना ली । आप थे तो पत्रकारपुरम की ओर अनायास मुड़ जाता था । जाता तो भाभी जी बहुत कुछ जबरदस्ती खिलाती और आप बहुत प्यार से घर-परिवार, देश-समाज, साहित्य-संस्कृति पर बोलते-बतियाते । क्या बताऊं, लखनऊ बसने के बाद, आप का होना, अभिभावक का होना था । इतनी जल्दी टुअर कर चल दिए । जाइए, मैं नहीं बोलता आप से ? यह भी कोई बात हुई । जब मैं बीमार था पिछले दिनों, कितनी बार देखने आये थे आप ? साथ में भाभी जी भी थीं । अब ? कौन देखेगा मुझे । अब तो मुझे पक्का विश्वास है कि आप लोकरंग में भी नहीं आयेंगे । अब तक तो आप आते ही रहे, बेहतर करने के बारे में सिखाते रहे । अब ? क्या करूं फोल्डर से नाम निकाल दूं ? लेकिन दिल में जो कसक है उसका क्या ? दिल के फोल्डर जो आप की स्मृति है उसका क्या ? पटना आपकी कर्मभूमि थी, वहां जाकर आपने चीरनिद्रा ग्रहण कर ली । अब आप के चाहने वाले, आपके संगी-साथियों पर जो बीत रही है उसके बारे कुछ तो विचार किये होते । विगत तीन दिनों से मन खटक रहा था पर एक विश्वास भी कि आप आयेंगे जरूर । कुछ दिन पूर्व ही आप ने 27 फरवरी के कार्यक्रम के लिए मुझसे मैंनेजर पाण्डेय का रेलवे आरक्षण कराने को कहा था जिसे मैंने तत्काल करा कर भेज दिया था । अब आप के कारण वह सब खत्म । संचालक तो आप ही थे ? ऐसा धोखा ? मुझे तो अब भी विश्वास नहीं होता कि आप ऐसा करेंगे ? जाइये मैं आप से नहीं बोलता ... । ----मेरे भा...ई ।

सुभाष चन्द्र कुशवाहा

रविवार, 23 जनवरी 2011

लोकरंग की आंच : सुभाष चन्द्र कुशवाहा: लोकरंग २०११ कार्यक्रम की पूरी जानकारी वेब साइट ww...

लोकरंग की आंच : सुभाष चन्द्र कुशवाहा: लोकरंग २०११ कार्यक्रम की पूरी जानकारी वेब साइट ww...: "पूर्वांचल का चर्चित कार्यक्रम- लोकरंग 2011, का विस्तृत कार्यक्रम उसके वेब साइट पर प्रकाशित कर दिया गया है ।"

लोकरंग २०११ कार्यक्रम की पूरी जानकारी वेब साइट www.lokrang.in

पूर्वांचल का चर्चित कार्यक्रम- लोकरंग 2011, का विस्तृत कार्यक्रम उसके वेब साइट पर प्रकाशित कर दिया गया है ।

शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

लोकरंग की आंच : सुभाष चन्द्र कुशवाहा: फरी,फरुवाही या अहीरऊ और पंवरिया नृत्य

लोकरंग की आंच : सुभाष चन्द्र कुशवाहा: फरी,फरुवाही या अहीरऊ और पंवरिया नृत्य

फरी,फरुवाही या अहीरऊ और पंवरिया नृत्य

अपने आरम्भिक काल से ही अहीर एक जुझारू और घुमन्तू जाति रही है । जिसका मूल पेशा पशुपालन और चरवाही रहा है । पहाड़ी क्षेत्रों के गूजरों की जीवन शैली की तरह अहीरों ने भी आरम्भिक काल में पशुओं को चराने तथा गांव-क्षेत्र की सीमाओं को लांघने का काम किया। पशुचारण के कारण भाग-दौड़, उछल-कूद, पहलवानी और लाठी चलाने जैसे श्रमशील कार्य इन्हें करने पड़े । श्रम की प्रकृति ने इनकी जीवन संरचना और मनोरंजन के तत्वों का निर्धारण किया । यद्यपि कि हर क्षेत्र के अहीरों (यादवों) का काम पशुचारण ही रहा फिर भी स्थान विशेष की प्रवृत्तियों की भिन्नता के कारण छत्तीसगढ़ी यादवों में जन्मा `राउत नाच´ की शैली, भोजपुरी क्षेत्र के यादवों में न आ सकी । यहां नृत्य की दो प्रकार की शैलियां जन्मीं : जांघिया नृत्य और फरी या फरुवाही नृत्य । इन दोनों ही शैलियों में गायकी के रूप में मूलत: बिरहा को ही अपनाया गया । इस प्रकार बिरहा विशुद्ध रूप से अहीरों का गीत है तथा जांघिया और फरी अहीरऊ नृत्य । जांघिया और फरी, दोनों नृत्यों में कलाकारों की कद-काठी की मजबूती, पांवों की चपलता देखते ही बनती है । जांघिया नृत्य में जांघ पर जांघिया पहना जाता है जिसमें टांके गए घुंघरू, कदमतालों, मृदंग/नक्कारा (नगड़िया और टिमुकी) की आवाज पर लयबद्ध हो कर मन और शरीर दोनों को झंकृत कर देते हैं । मुख्य गायक के साथ कोरस गायकों की टीम और नृत्यकारों की चपलता श्रोताओं को मुग्ध कर देती है ।
फरी भी मूलत: अहीर वर्ग का ही नृत्य है । इसमें नक्कारा (नगड़िया और टिमुकी) का प्रयोग तो होता ही है, लोहे के वजनी फालों (फार) का भी प्रयोग वाद्ययन्त्र के रूप में अद्भुत ढ़ंग से किया जाता है । दो फार एक-एक हथेली में होते हैं जो आपस में इस प्रकार टकरा कर बजाये जाते हैं कि श्रोता झंकृत हो जाए । इसलिए इसे फरी या फरुवाही नृत्य कहते हैं । यहां यह भी स्पष्ट कर देना होगा कि फरी नृत्य में घुंघरू, फार, नक्कारा के अलावा करताल का भी प्रयोग किया जाता है । नृत्यकार एक हाथ में करताल बजाते हैं । इस नृत्य में कलाकार उछलते-कूदते, नाचते दूर तक चले जाते हैं और नक्कारे की आवाज पर कदमों की चाल बदलते हुए लौट आते हैं । कभी-कभी जमीन पर तरह-तरह के करतब भी दिखाते हैं । दरअसल फरी नृत्य के भी दो भाग होते हैं । प्रथम भाग में टीम के सदस्य लोहे के फारों को बजाते हुए बिरहा गायकी करते हैं और नक्कारे की बदलती ध्वनियों पर कदम ताल धीमा और तेज कर नाचते-गाते रहते हैं । गायन की जिम्मेदारी फार बजाने वाले सदस्यों की होती है जबकि नृत्यकारों के उछलते, कूदते नृत्य करने के कारण ऐसी स्थिति नहीं होती कि वे गायकी में साथ दे सकें । उनका दम फूल चुका होता है । वे पसीने-पसीने हो जाते हैं । उनकी कमर की लचक, कदमताल और पांव में बंधे घुंघरुओं की खनक माहौल को उत्साहित कर देती है । नृत्यकार जो पुरुष परिधान में ही होते हैं, नक्कारे की ध्वनि का अनुसरण कर बराबर कदम-ताल बदलते, उछलते, नाचते रहते हैं ।
फरी नृत्य के दूसरे भाग में गायकी को रोक कर केवल नृत्य को स्थान दिया जाता है । इस अवस्था में फारों का बजाना बन्द कर दिया जाता है पर नक्कारा बजता रहता है । नक्कारे की आवाज के साथ ताल मिलाकर नृत्यकार सर्कस जैसे शारीरिक करतब भी दिखाते हैं । जैसे कि हवा में गोता लगाना, पलटी मारना, अपने शरीर पर सात से आठ लोगों को चढ़ाना या अपने ऊपर बैलगाड़ी चढ़ाना या छाती पर ईंटों को फोड़ना आदि । फरी नृत्य में इन दोनों प्रकारों का प्रयोग बारी-बारी से किया जाता है जिससे दर्शकों को विषय परिवर्तन का आनन्द मिलता रहे । दरअसल एक गीत समाप्त होने और दूसरे के प्रारंभ करने के अन्तराल में नृत्य वाले भाग को सम्मिलित कर लिया जाता है । खड़ी बिरहा (चारकड़िया बिरहा) खड़े होकर ही गाया जाता है इसलिए फरी नृत्य और गायकी के सभी सदस्य खड़े होकर ही इस विधा को प्रस्तुत करते हैं । आधुनिक बिरहा जिसे फरी नृत्य में गाया जा रहा है, चारकड़िया बिरहा (मुक्तक काव्य) और लोरकी गायकी (गाथा गायकी) का संयुक्त रूप है । बहुधा बिरहा गायकी में गाथात्मक गीत ही गाये जाते हैं । यद्यपि की फिल्मी गानों के प्रभाव के कारण बिरहा गायकी में कुछ परिवर्तन देखने को मिलता है तथा फरी गायक कई बार लोक प्रचलित भोजपुरी गानों को भी अपनी गायकी में प्रयोग करने लगे हैं तथापि बिरहा कथात्मक गीत ही होते हैं ये किसी न किसी कहानी पर आधारित होते हैं । इनमें पौराणिक, ऐतिहासिक और दूसरे चमत्कारिक कथाओं को भी स्थान दे दिया जाता है । अधिकांश बिरहा गायक धार्मिक प्रसंगों को प्रमुखता से गाते हैं । बिरहा गायकी के बारे में `लोकरंग-1´ पुस्तक में विस्तार से सामग्री दी गई है । लोकरंग सांस्कृतिक समिति, जोगिया जनूबी पट्टी, फाजिलनगर, कुशीनगर, बी 4/140 विशालखण्ड, गोमतीनगर, लखनऊ 226010 फरी नृत्य को संवर्द्धित करने में लगी हुई है ।


पंवरिया नृत्य
पूर्वांचल का गंवई समाज अपने रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा और संस्कृति के माध्यम से सदियों से समाज के साम्प्रदायिक विभाजन को नकारता रहा है । आज के तथाकथित आधुनिक समाज को भले विश्वास न हो पर हकीकत यह है कि पूर्वांचल के तमाम त्यौहार हिन्दू और मुसलमान मिलजुल कर मनाते रहे हैं । मुहर्रम में हिन्दू झारी गाते हैं, गटका खेलते हैं, ताजिया बनाते और ढोते हैं । किसी मुसलमान भाई के यहां महलूद होने पर उसमें शरीक होते हैं और बताशा खाकर लौटते हैं । उसी प्रकार मुसलमान भाई होली-दीवाली साथ मनाते हैं । कीर्तनों में आते-जाते हैं । हिन्दुओं की शादी में मुसलमान नाऊ की भूमिका सदियों से हैं । वे निमन्त्रण बांटते हैं । शादी कराते हैं और पण्डित से नोकझोंक कर अपना नेग वसूलते हैं । उसी प्रकार लोक गायकी की पंवरिया परंपरा भी अदृभुत सांस्कृतिक एकता की मिशाल रही है । पंवरिया गायक गरीब मुसलमान होते हैं, जो सदियों से अपने पंवारे और सोहर गायकी से जनता के द्वार पर बधाई देने आते रहे हैं । रामजन्म और कृष्णजन्म की गाथा गायकी के अलावा तमाम पौराणिक गाथाओं को भी इनकी गायकी में स्थान मिला हुआ है । पुत्र प्राप्ति के अवसर पर हिजड़ों द्वारा बधाई देने की परंपरा से अलग पंवरिया गायकों द्वारा बधाई देने की परम्परा रही है जो तुतुही और ढोलक बजाकर अपने चुहलपन द्वारा समाज का मनोरंजन करती रही है ।
घंटों चलने वाले पंवारों में किसी न किसी नायक की गाथा को कई-कई घंटे तक गाते हुए ये गायक पूरा महाकाव्य सुना डालते हैं । शायद लोकगाथाओं के विस्तार के कारण ही यह मुहावरा चल पड़ा होगा कि - पंवारा मत सुनाइये। प्रारंभ में पंवरिया संपन्न लोगों के यहां अपनी गायकी प्रस्तुत कर सोना, चान्दी, सेरवानी या अन्य महंगे वस्त्रों को इनाम स्वरूप पाते थे । सेरवानी को ये अपना पोशाक बना लेते, कंधे पर कोई साड़ी, पैरों में घुंघरू और हाथ में तुतुही को रगड़ कर स्वर देते कलाकार आज उपेक्षित हैं और यह परंपरा समाप्त होने के कगार पर पंहुच चुकी है । तुतुही एकतारा और सारंगी का मिलाजुला सरलीकृत वाद्य यन्त्र है जिसे लोक कलाकार आसानी से तैयार कर लेते है । कोरस गायकों की टीम बैठी रहती है जबकि मुख्य गायक खड़ा होकर, नाचते हुए गाता है । कई बार इनकी गायकी में दुखान्त गीतों /पंवारों को स्थान मिलता है । बंध्या स्त्री की पीड़ा को व्यक्त करने वाला एक अत्यन्त कारुणिक गीत `लोकरंग-1´ पुस्तक में प्रकाशित किया गया है । जिस घर पंवरिया गायक पंहुचते हैं, उस घर की स्त्रियां उनके ढोलक को सिन्दूर से टीकती हैं । उसके बाद ही पंवरिया अपनी गायकी को अंजाम देते हैं । पंवरिया गायकी में तमाम ऐसे गीत मिलते हैं जिनमें हिन्दू और मुसलमान संस्कृतियां एकाकार हो गई हैं । यह खेद का विषय है कि ऐसी संस्कृति जो समाज को जोड़ने वाली है, को बचाने का कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है जबकि तमाम लंपट अपसंस्कृतियां निर्भय हो, फल-फूल रही हैं ।
सुभाष चन्द्र कुशवाहा

रविवार, 5 दिसंबर 2010

लोकरंग की आंच : सुभाष चन्द्र कुशवाहा: जातिवाद, मनुष्यता से नफरत करने की मानसिकता है

लोकरंग की आंच : सुभाष चन्द्र कुशवाहा: जातिवाद, मनुष्यता से नफरत करने की मानसिकता है

जातिवाद, मनुष्यता से नफरत करने की मानसिकता है

समता, समानता और बन्धुत्व को बढ़ावा देने वाले भारतीय संविधान को आत्मसात किए साठ साल बीत चुके हैं । यद्यपि कि विगत साठ सालों में जाति आधारित जनगणना नही हुई फिर भी जातिवादी घृणा और अमानवियता में कोई बदलाव नही आया है । जाति जनगणना से जातिवाद बढ़ने का मर्सिया पढ़ने वाले, प्राथमिक पाठशालाओं में मिड-डे-मील बनाने वाली दलित महिलाओं द्वारा तैयार भोजन को खाने से इनकार करने वाले समाज के कुलीन तबकों के जेहादी आचरण पर मौन हैं । प्रधानाध्यापक से लेकर गांव के सवर्णों द्वारा मनुष्यता के खिलाफ जो आचरण अपनाया जा रहा है, उसके खिलाफ समाज की चुप्पी, जातिवादी मानसिकता के दोगले चरित्र को उजागर करती है । न केवल सवर्ण अपितु कुछ पिछड़े और दलित भी जातिवादी मानसिकता से ग्रस्त हैं । यही है जातिवादी हिन्दू समाज की बुनियादी जड़ । यह जड़ जनगणना से न तो और गहरी होने वाली है और न जनगणना न होने से उखड़ने वाली ।
ब्राह्मणवाद ने अपनी सर्वोच्चता बनाये रखने के लिए इसकी जड़ें, इतनी पुख्ता कर दी हैं कि तमाम दलित और पिछड़े भी भुलावे में इसे सींच रहे हैं । अभी रमाबाई नगर(कानपुर देहात) के एक पाठशाला में दलित महिला द्वारा तैयार खाना न तो प्रधानाध्यापक ने खाया और न किसी बच्चों को खाने दिया । उल्टे गांव वालों को बटोर कर स्कूल में पथरबाजी कराई गई । प्रधानाध्यापक कहता रहा कि वह नब्बे दिन का व्रत रख लेगा पर दलित महिला द्वारा बनाया खाना न चखेगा । बेसिक शिक्षा अधिकारी कहते दिखे कि दलित रसोइया स्वीकार्य नहीं तो वह उससे कोई दूसरा कार्य करा लेंगे । ऐसी निरीहता, ऐसी बेचारगी पर भला क्या कहना ? कहां गई संविधान प्रदत्त समानता का अधिकार ? ब्राह्मणवाद द्वारा रोपी गई जातिवादी मानसिकता से मुकाबला करने की ताकत न तो शासन में है, न समाज इस कुचक्र को ठीक से समझ पाया है । और तो और उन्नाव के गांव रानीपुर में पासी जाति के रसोइये के हाथ का बना खाना अन्य दलित संवर्ग के बच्चों ने नहीं खाया । ऐसा अपने आप नहीं हुआ । इसमें वहां के प्रधानाध्यापक की मुख्य भूमिका रही । उसी ने अस्पृष्यता की ऐसी आग दहकाई जो धीरे-धीरे तमाम विद्यालयों में फैलती गई । अभी तो जाति आधारित जनगणना हुई ही नहीं, फिर मिड-डे-मील बनाने वाली दलित रसोइये के विरूद्ध जहर किसने धोला ? क्या यह दलित और पिछड़ों की राजनीति का परिणाम है या ब्राह्मणवाद द्वारा रोपे गए जातिवादी नफरत का ?हिन्दूधर्म में अब भी मनुष्य को इतना घृणित मान लिया जाता है कि उसका छूआ स्वीकार्य नहीं और पशुओं को माता की तरह पूजा जाता है । फिर ऐसे धर्म में मनुष्यता के बीज ढ़ूंढना ढ़ोंग नहीं तो क्या है ?
स्कूलों में खाने की गुणवत्ता या साफ-सफाई की बात नहीं उठाई जा रही है । बात पढ़ाई की भी नहीं उठाई जा रही है । व्रत करने का ढ़ोंग करने वाले प्रधानाध्यापक द्वारा दी जा रही शिक्षा के स्तर पर भी सवाल नहीं उठाया जा रहा है । बात महज यह है कि एक मनुष्य को इतना घृणित मान लिया जाता है कि उसके द्वारा तैयार खान, खाने योग्य नहीं ? कहां हैं शबरी के मीठे फल या विदुर का साग खाने का दृष्टान्त देने वाले ? कहां हैं दलित वोटों के लिए दलित सम्मान की रक्षा की बात करने वाले ?
हिन्दू समाज की सम्पूर्ण सामाजिकता, आर्थिक और प्रबंधकीय व्यवस्था ऐसे ही जातिवाद मानसिकता पर आधारित रही है । यहां कभी भी योग्यता या कर्म के आधार पर समाज को सम्मान नहीं मिला है । इसलिए जातिवादी आधार पर राजनीति का गोलबन्द होना भारतीय समाज का बुनियादी चरित्र रहा है । यहां आर्थिक से ज्यादा कुलीनतावाद या वर्चस्ववाद का सिद्धान्त प्रभावी रहा है । यहां चुनाव और वर्चस्ववाद एक दूसरे के पर्याय रहे हैं । लिहाजा हिन्दी प्रदेशों में ज्यादातर पार्टियां चुनावों में जातितवादी समीकरणों के सहारे वर्चस्ववाद को स्थापित करती हैं ।
जिस समाज का सम्पूर्ण ढ़ांचा जातिवादी हो, वहां की राजनीति जातिवाद विहिन कैसे हो सकती है ? हिन्दी प्रदेशों में जातिवाद के विरूद्ध, 19वीं सदी में पश्चिम बंगाल के `ब्रह्म समाज´ की तरह कभी भी कोई जन आन्दोलन नहीं छेड़ा गया। जाति आधारित जनगणना पर हाय तौबा मचाने वाले, मनुष्यता विरोधी जातिवाद के विरूद्ध कोई आन्दोलन नहीं खड़ा करना चाहते । दरअसल उनका जातिवाद विरोध का नाटक आरक्षण विरोध की मानसिकता से जुड़ा हुआ है । उनका जातिवाद विरोध, दलितों और पिछड़ों को शासन, प्रशासन में मिले स्थान के प्रतिकार के रूप में है । जिस समाज में गिनीज बुक ऑफ रिकार्ड में एक से एक बेहूदे आंकड दर्ज होते हों, वहां जातियों के आंकड़े जानने से भूचाल आने का अन्देशा है । तमाम लेखक भी इस आशंका से गले जा रहे हैं । गोया जाति गणना हुई तो सब कुछ खत्म । पर नब्बे दिन तक व्रतधारण करने की धमकी देने वालों के खिलाफ कोई आन्दोलन नहीं खड़ा करते ।
भारतीय जातिव्यस्था के केन्द्र में सबसे ज्यादा उपेक्षित, प्रताड़ित और घृणित दलितवर्ग रहा है । पिछड़ी जातियों को हासिल कुछ रियायतों के बावजूद, वर्णवादियों द्वारा उन्हें भी उसी प्रकार उपेक्षित और प्रताड़ित किया जाता रहा है जिस प्रकार दलितों को । इस प्रताड़ना को झेलने के बावजूद, जातिवाद की पीड़ा भोगने वाली पिछड़ी जातियों की स्थिति बड़ी ढुलमुल रही है । एक ओर तो वे जातिवाद की प्रताड़ना से आहत दिखती हैं, तो दूसरी ओर दलितों को प्रताड़ित या अपमानित करने के अवसर से चूकती नहीं । जीवन-मरण, शादी-व्याह के अवसर पर दलितों को खिलाने में, या मृतक पशुओं को फेंकवाने में जो नज़रिया सवर्ण रखते हैं, वही नज़रिया पिछड़ी जातियां भी रखती हैं । शायद इसलिए जातिवाद के खिलाफ दलितों और पिछड़ों की व्यापक गोलबन्दी अभी तक नहीं बन पाई है और दलित रसोइये द्वारा पकाये मिड-डे-मील को खाने से नकारने में सवर्णों के साथ पिछड़े भी आ जाते हैं ।
ऊंची जातियों द्वारा आज भी दलितों की बस्तियों में आग लगाई जाती है, उनकी बहू-बेटियों की इज्जत लूटी जाती है । जाहिर है ऐसे अपमान झेलने वाले दलित, अपना भविष्य दृष्टिहीन दलितवादी पार्टियों में सुरक्षित समझने लगे हैं । दूसरी ओर ब्राह्मणवाद जातिवाद समाप्त करने की मानसिकता में नहीं है । वह जानता है, जातिवाद समाप्त होते ही उसका अस्तित्व समाप्त हो जायेगा । जातिवादी हथियार के बल पर ही उसने लम्बे समय तक राज किया है । आज वही जातिगणना से जातिवाद बढ़ने का मर्सिया पढ़ रहा है ।
वर्णवादियों द्वारा आरोप लगाया जाता है कि जातिवादी फैलाव 1990 के पहले नहीं था । सच्चाई यह है कि नब्बे के पूर्व का जातिवाद छद्म और एकतरफा था । तब प्रतिरोध के स्वर नहीं थे । सवर्ण जातियों के जुल्म, दलित चुपचाप सह लेते थे । उनके अन्दर संचित आक्रोश को भुनाने के लिए नब्बे के बाद कुछ पार्टियां सक्रिय हुईं । यद्यपि कि उनके दृष्टिकोंण बहुत हद तक साफ और वैज्ञानिक नहीं थे तथापि उन्होंने पूर्व के पिछलगूपन से मुक्ति की बात उठाकर नए समीकरणों को जन्म दिया । उन्हें सत्ता हासिल हुई । जिसके प्रतिक्रिया स्वरूप यह प्रचारित किया जाता है कि नब्बे के बाद जातिवाद का फैलाव अधिक हुआ ।
इक्वीसवीं सदी की दहलीज पर खड़े भारत का पढ़ा-लिखा तबका जातिवादी मानसिकता से उबरने के बजाय, इसमें धसता जा रहा है । पंजाब, हरियाण जैसे समृद्ध राज्यों में दलित महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार हो रहे हैं और पानी मांगने पर पेशाब पिलाया जा रहा है । तब हैवानियत की हद तक पहुंच चुके इस इंटरनेटयुक्त समाज में जाति विहिन राजनीति की फिलहाल कल्पना नहीं की जा सकती । मनुष्यता धर्म से ऊपर है, यह स्वीकार किये बिना ऐसी मानसिकता से मुक्ति सम्भव नहीं है । राजनीति तो जातिवाद को संरक्षित और फलने-फूलने का अवसर देती ही रहेगी क्योंकि उसने भारतीय समाज को विखण्डित कर सत्ता हासिल करने की संस्कृति इतिहास से सीखी है ।

सुभाष चन्द्र कुशवाहा
बी-4/140 विशाल खंड़
गोमतीनगर, लखनऊ 226010

रविवार, 1 अगस्त 2010

ऊंच-नीच की पाठशाला

ऊंच-नीच की पाठशाला
प्रयोग-दर प्रयोग, नीति और अनीति, मिड-डे-मील और राजनीति के चलते उत्तर प्रदेश की प्राथमिक शिक्षा सड़ चुकी है और अब उसकी सड़ांध से होकर बह रही है जातिवाद, छुआछूत की बयार । समता, समानता और बंधुत्व को बढ़ावा देने वाले भारतीय संविधान को आत्मसात किए साठ साल बीत चुके हैं । यद्यपि कि विगत साठ सालों में जाति आधारित जनगणना नही हुई है फिर भी जातिवादी घृणा और अमानवीयता में कोई बदलाव नही आया है । जाति जनगणना से जातिवादी मानसिकता बढ़ने का मर्सिया पढ़ने वाले, उत्तर प्रदेश के प्राथमिक पाठशालाओं में मिड-डे-मील में दलित महिलाओं द्वारा तैयार भोजन को खाने से इनकार करने वाले समाज के कुलीन तबके के जेहादी आचरण पर मौन हैं । जहां बंधुत्व, राष्ट्रप्रेम और इंसानियत का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए था वहां ऊंच-नीच का पाठ पढ़ाया जा रहा है । अध्यापकों का यह आचरण चिन्ता का विषय है । प्रधानाध्यापक से लेकर गांव के अन्य सवर्णों द्वारा दलितों के खिलाफ जो आचरण अपनाया जा रहा है, उसके खिलाफ समाज और प्रशासन की चुप्पी, जातिवादी मानसिकता के दोगले चरित्र को उजागर करती है । न केवल सवर्ण अपितु कुछ पिछड़े और दलित भी जातिवादी मानसिकता से बुरी तरह ग्रस्त हैं । यही है जातिवादी हिन्दू समाज की बुनियादी जड़ । यह जड़ जनगणना से न तो गहरी होने वाली है और न जनगणना न होने से उखड़ने वाली । ब्राह्मणवाद ने अपनी सर्वोच्चता बनाये रखने के लिए इसकी जड़े, इतनी पुख्ता कर दी हैं कि बिना उनकी मर्जी से इसे हिलाया नहीं जा सकता । तभी तो दलित चेतना के उभार के बावजूद तमाम दलित और पिछड़े उनके भुलावे में आकर जातिवाद को सींच रहे हैं ।
बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर की धर्मपत्नी रमाबाई के नाम पर कानपुर देहात जिले का नामकरण `रमाबाई नगर´ भले हो गया हो, दलितों की अस्मिता की रक्षा अभी दूर की कौड़ी बनी हुई है । यहां के प्राथमिक पाठशाला भवानीदीन पुरवा की दलित रसोइया रेखा बाल्मीकि द्वारा तैयार खाना न तो प्रधानाध्यापक सुन्दर लाल त्रिपाठी द्वारा खाया गया और न किसी बच्चों को खाने दिया गया । उल्टे गांव वालों को बटोर कर स्कूल में पत्थरबाजी कराई गई । प्रधानाध्यापक कहता रहा कि वह नब्बे दिन का व्रत रख लेगा पर दलित महिला द्वारा बनाया खाना न चखेगा । रेखा को चेतावनी मिली कि जुबान खोला तो गांव से निकाल दिया जायेगा । तनख्वाह लेना है, लो, पर खाना न बनाओ । बेसिक शिक्षा अधिकारी का कहना है कि शासन की नीति के अनुसार ही दलित महिला द्वारा खाना बनवाया गया पर लोगों को यह स्वीकार्य नहीं तो वह दलित रसोइये से कोई दूसरा कार्य करा लेंगे । ऐसी निरीहता, ऐसी बेचारगी पर भला क्या कहना ? कहां गई संविधान प्रदत्त समानता का अधिकार ? और यह चौधराहट तब है जब प्रदेश की सत्ता सवर्णों के हाथ में नही है ।
क्या यह सही नही है कि ब्राह्मणवाद द्वारा रोपी गई जातिवादी मानसिकता से मुकाबला करने की ताकत न तो शासन में है, न दलित समाज इस कुचक्र को ठीक से समझ पाया है । दलित समाज में भी ऊंच-नीच के तमाम स्तर ज़िन्दा हैं । अन्यथा उन्नाव जनपद के रानीपुर में पासी जाति के रसोइये के हाथ का बना खाना अन्य दलित संवर्ग के बच्चों ने खाने से इनकार न किया होता । एक दूसरा प्रकरण रमाबाई नगर के ब्लाक डेरापुर के गांव कपासी खुर्द का है । वहां गांव के अनुसूचित जाति के अध्यापक ने अपनी सास को रसोइया बनाना चाहा । प्रधान ने तुरुप का पत्ता चलते हुए वाल्मीकि महिला को रसोइया नियुक्त कर दिया । बस क्या था, बाल्मीकि महिला के हाथ का खाना कुंवरलाल संखवार के लड़के के अलावा अन्य दलित और सवर्ण बच्चों ने नहीं खाया । महोबा जनपद के लुहेड़ी गांव के पूर्व माध्यमिक विद्यालय के छात्रों ने भी दलित रसोइये के हाथ का बना खाना खाने से साफ इनकार कर दिया है । लखनऊ के करीब स्थित मोहनलालगंज में भी ऐसा ही मामला प्रकाश में आया है । कन्नौज, शाहजहांपुर, बरेली आदि जिलों से भी ऐसे ही समाचार मिल रहे हैं ।
छूआछूत की इन पाठशालाओं में ऊंच-नीच की ऐसी लकीरें अपने आप नहीं खिंची हैं । इन्हें ब्राह्मणवादी मानसिकता के अध्यापकों ने अबोध मस्तिष्क रुपी श्यामपट पर अपने हाथों से गहरी की हैं । अध्यापकों ने अभिभावकों में अस्पृष्यता की ऐसी आग दहकाई जो धीरे-धीरे तमाम विद्यालयों में फैलती जा रही है । हमारे बुद्धिजीवी कहते हैं कि जातिगणना से समाज बिखर जायेगा, जातिवाद बढ़ेगा । गोया समाज अब तक एक है ? अभी तो जाति आधारित जनगणना हुई ही नहीं, फिर मिड-डे-मील बनाने वाली दलित रसोइये के विरूद्ध जहर किसने घोला ? क्या यह दलित और पिछड़ों की राजनीति का परिणाम है या ब्राह्मणवाद द्वारा रोपे गए जातिवादी नफरत का ? यह ब्राह्मणवाद ही है जो मनुष्य को इतना घृणित मान लेता है कि उसका छुआ स्वीकार्य नहीं करता और पशुओं को माता/पिता की तरह पूजता है । फिर ऐसे धर्म में मनुष्यता के बीज ढ़ूंढना ढ़ोंग नहीं तो क्या है ? अजीब बिडंबना है कि लगभग बर्बाद हो चुके प्रदेश के प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ाई, खाने की गुणवत्ता या साफ-सफाई की बात नहीं उठाई जा रही है । व्रत करने वाले ढ़ोंगी प्रधानाध्यापक द्वारा आए दिन गैरहाजिर रहने, अपने खेतों, दुकानों में काम करने पर भी सवाल नहीं उठाया जा रहा है । बात महज यह उठाई जा रही है कि इन शिक्षा केन्द्रों में तैनात एक कर्मचारी को इतना घृणित मान लिया जा रहा है कि उसके द्वारा तैयार खाना, खाने योग्य नहीं ? कहां हैं शबरी के मीठे फल या विदुर का साग खाने का दृष्टान्त देने वाले ? कहां हैं दलित वोटों के लिए दलित सम्मान की रक्षा की बात करने वाले ?
हिन्दू समाज की सम्पूर्ण सामाजिकता, आर्थिक और प्रबंधकीय व्यवस्था ऐसे ही जातिवादी मानसिकता पर आधारित रही है । यहां कभी भी योग्यता या कर्म के आधार पर समाज को सम्मान नहीं मिला है । यहां आर्थिक से ज्यादा कुलीनतावाद या वर्चस्ववाद का सिद्धान्त प्रभावी रहा है । यहां चुनाव और वर्चस्ववाद एक दूसरे के पर्याय रहे हैं । लिहाजा हिन्दी प्रदेशों में ज्यादातर पार्टियां चुनावों में जातिवादी समीकरणों के सहारे वर्चस्ववाद को स्थापित करती हैं । यह कोई आश्चर्य का विषय भी नहीं है । जिस समाज का सम्पूर्ण ढ़ांचा जातिवादी हो, वहां की राजनीति जातिवाद विहिन कैसे हो सकती है ? हिन्दी प्रदेशों में जातिवाद के विरूद्ध कभी भी कोई जन आन्दोलन नहीं छेड़ा गया जैसा कि 19वीं सदी में पश्चिम बंगाल में `ब्रह्म समाज´ के माध्यम से किया गया था । जाति आधारित जनगणना पर हाय-तौबा मचाने वाले, मनुष्यता विरोधी जातिवाद के विरूद्ध कोई आन्दोलन नहीं खड़ा करना चाहते । दरअसल उनका जातिवाद विरोध का नाटक, आरक्षण विरोध की मानसिकता से जुड़ा हुआ है । उनका जातिवाद विरोध, दलितों और पिछड़ों को शासन, प्रशासन में मिले स्थान के प्रतिकार के रूप में है । जिस समाज में गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में एक से एक बेहूदे आंकड़े हों, वहां जातियों के आंकड़े से भूचाल आया हुआ है । तमाम लेखक भी इसकी निन्दा में जुटे हैं । गोया जाति गणना हुई तो सब कुछ खत्म । पर नब्बे दिन तक व्रतधारण करने की धमकी देने वालों के खिलाफ कोई आन्दोलन नहीं उठ खड़ा हो रहा ।
भारतीय जातिव्यस्था के केन्द्र में सबसे ज्यादा उपेक्षित, प्रताड़ित और घृणित दलितवर्ग रहा है । पिछड़ी जातियों को हासिल कुछ रियायतों के बावजूद, वर्णवादियों द्वारा उन्हें भी उसी प्रकार उपेक्षित और प्रताड़ित किया जाता रहा है जिस प्रकार दलितों को । इस प्रताड़ना को झेलने के बावजूद, जातिवाद की पीड़ा भोगने वाली पिछड़ी जातियों की स्थिति बड़ी ढुलमुल रही है । एक ओर तो वे जातिवाद की प्रताड़ना से आहत दिखती हैं, तो दूसरी ओर दलितों को प्रताड़ित या अपमानित करने के अवसर से चूकती नहीं । जीवन-मरण, शादी-व्याह के अवसर पर दलितों को खिलानें, या मृतक पशुओं को फेंकवाने में जो नज़रिया सवर्ण रखते हैं, वही नज़रिया पिछड़ी जातियां भी रखती हैं । शायद इसलिए जातिवाद के खिलाफ दलितों और पिछड़ों की व्यापक गोलबन्दी अभी तक नहीं बन पाई है और दलित रसोइये द्वारा पकाये मिड-डे-मील को खाने से नकारने में सवर्णों के साथ पिछड़े भी आ जाते हैं ।
जातिवादी मानसिकता ने समाज की समरसता तोड़ी है । ऊंची जातियों द्वारा आज भी दलितों की बस्तियों में आग लगाई जाती है तथा उनकी बहू-बेटियों की इज्जत लूटी जाती है । जाहिर है ऐसे अपमान झेलने वाले दलित, अपना भविष्य दलितवादी पार्टियों में सुरक्षित समझने लगते हैं भले ही दृष्टिहीन दलितवादी पार्टियों से उनका भला न होता हो और जातिवादी दंश पीढ़ी-दर-पीढ़ी उन्हें अभिशप्त किए रहता है । ब्राह्मणवाद ऐसी दलितवादी राजनीति को एक हद तक स्वीकार भी कर लेता है । कभी-कभी ऊंच-नीच की दीवार पर परदा भी लगाता दिखता है और बाद में दलितों के तेवर को तोड़ते हुए पुन: अपनी अधीनता में ले लेता है । ब्राह्मणवाद कभी भी जातिवाद को समाप्त नहीं करना चाहता । जातिवाद समाप्त होते ही ब्राह्मणवाद समाप्त हो जायेगा । जातिवादी हथियार के बल पर ही उसने हिन्दू समाज पर लम्बे समय तक राज किया है । लम्बे समय से शिक्षा, ज्ञान और समृद्धि पर एकाधिकार बनाए रखा है और सदियों से वंचित वर्ग को आरक्षण द्वारा कुछ लाभ मिला है तो वह खुली प्रतियोगिता में उतरने की चुनौती दे रहा है या जातिवाद का मर्सिया पढ़ रहा है ।
वर्णवादियों द्वारा आरोप लगाया जाता है कि देश में जातिवाद का फैलाव 1990 के पहले नहीं था । सच्चाई यह है कि नब्बे के पूर्व का जातिवाद छद्म और एकतरफा था । तब प्रतिरोध के स्वर नहीं थे । सवर्ण जातियों के जुल्म को दलित जातियां चुपचाप सह लेती थीं । उनके अन्दर संचित आक्रोश को भुनाने के लिए नब्बे के बाद दलितों और पिछड़ों के नाम पर कुछ पार्टियां सक्रिय हुईं । यद्यपि कि उनके दृष्टिकोण बहुत हद तक साफ और वैज्ञानिक नहीं थे तथापि उन्होंने पूर्व के पिछलग्गूपन से मुक्ति की बात उठाकर नए समीकरणों को जन्म दिया । उन्हें सत्ता हासिल हुई । जिसके प्रतिक्रिया स्वरूप यह प्रचारित किया जाता है कि नब्बे के बाद जातिवाद का फैलाव अधिक हुआ ।
दलित रसोइये द्वारा पकाये भोजन को लेकर बखेड़ा करने के पीछे एक दूसरा घृणित अर्थशास्त्र भी है । जिन पाठशालाओं में मिड-डे-मील खिलाया जाता है वहां मात्र गरीबों के बच्चे खाने और छात्रवृत्ति प्राप्त करने जाते हैं । इन पाठशालाओं में जितने बच्चों के नाम दर्ज हैं, उसके पांचवें भाग के बराबर ही बच्चे मिड-डे-मील खाने आते हैं । अधिक से अधिक बच्चों के नाम इसलिए दर्ज करा दिए जाते हैं जिससे ज्यादा राशन, ज्यादा सरकारी धन मिल सके और उसका सदुपयोग इस तन्त्र के तमाम पायदानों से लेकर प्रधान और प्रधानाध्यापक तक कर सकें । बच्चों की अधिक संख्या दिखाकर ही तो मिड-डे-मील योजना की सफलता के डंके पीटे जाते हैं । जबकि हकीकत यह है कि एक बच्चे का नाम दो-दो सरकारी पाठशालाओं में दर्ज हैं और वह पढ़ने जाता है गांव के निजी पाठशाला में । प्रधान और प्रधानाध्यापक को इन बच्चों के अभिभावक सहयोग इसलिए करते हैं जिससे उनके बच्चे को मुफ्त में प्रत्येक पाठशाला से तीन सौ रुपए वार्षिक छात्रवृत्ति मिलती रहे । यानी कि एक बच्चे का नाम दो प्राथमिक पाठशालाओं में दर्ज होगा तो दोनों जगहों से कुल छ: सौ रुपए वार्षिक छात्रवृत्ति मिल जायेगी । दलित रसोइये द्वारा पके खाने को अपवित्र बता कर बच्चों को न खाने की प्रेरणा देने वाले गुरूजी, मिड-डे-मील का राशन बचा कर बाजारों में बेच लेंगे । दलित के हाथ का बना मिड-डे-मील से परहेज के कारण न तो बच्चे पढ़ने आयेंगे न गुरुजी को पढ़ाने आना पड़ेगा । वेतन मुफ्त में मिलेगा ही । ऊपर से विद्यालय भवन निर्माण की ठेकेदारी से लाभ ही लाभ है । गुरुजी के घर पैसा बरसेगा तो ऊपर वालों को साधने में कठिनाई न होगी । कुल मिलाकर समाज में जातिवादी एड्स ऐसे ही वर्णवादी गुरूओं द्वारा बांटा और बढ़ाया गया है जो शुरू से ही बच्चों के मस्तिष्क में ऊंच-नीच की भावना भर देते हैं । जिन बच्चों को क, ख, ग... नहीं आता उन्हें जातिवादी घृणा का पाठ पढ़ा दिया जाता है । तभी तो औरैया के प्राथमिक पाठशाला भाऊपुर फंफूद की कक्षा तीन की छात्रा मनोरमा कहती है -` पापा ने कहा है कि नीची जाति के हाथ का बना खाना नहीं खाना ।´ ऐसा है सवर्णवाद का अमानवीय और क्रूर चेहरा । सवर्णवाद के आगे नतमस्तक दिखते प्रशासन ने आखिर कार दलित रसोइया तैनात करने की अनिवार्यता समाप्त कर दी है ।
आज दलित के हाथ का बना खाना न खाने के लिए एक सवर्ण प्रधानाध्यापक नब्बे दिन तक व्रत लेने की बात कहता है तो हमें जातिवादी मिजाज में रत्ती भर न हुए बदलाव को आसानी से समझा लेना चाहिए । मिड-डे-मील जैसी योजनाएं दरअसल दलितों का भला करने के बजाय शैक्षिक और सामाजिक रूप से बर्बाद कर रही हैं । उनके आगे बढ़ने के रास्तों पर अवरोध खड़ा कर, कुंठित और अपमानित कर रही हैं तथा गांव की चहारदीवारी से बाहर जाने से रोक रही हैं । इक्वीसवीं सदी की दहलीज पर खड़ा भारत का पढ़ा-लिखा तबका जातिवादी मानसिकता से उबरने के बजाय, इसमें धंसता जा रहा है । पंजाब, हरियाणा जैसे समृद्ध राज्यों में दलित महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार हो रहे हैं और पानी मांगने पर पेशाब पिलाया जा रहा है । तब हैवानियत की हद तक पहुंच चुके इस इंटरनेटयुक्त समाज में जाति विहिन राजनीति की फिलहाल कल्पना नहीं की जा सकती । मनुष्यता धर्म से ऊपर है, यह स्वीकार किये बिना ऐसी मानसिकता से मुक्ति सम्भव नहीं है । राजनीति तो जातिवाद को संरक्षित और फलने-फूलने का अवसर देती ही रहेगी क्योंकि उसने भारतीय समाज को विखण्डित कर सत्ता हासिल करने की संस्कृति इतिहास से सीखी है ।

सुभाष चन्द्र कुशवाहा
`सृजन´
बी-4/140 विशाल खंड़
गोमतीनगर, लखनऊ -226010

शनिवार, 17 जुलाई 2010

बरसाती पानी के संरक्षण की जरूरत

आशंका बलवती होती जा रही है कि धरती से पानी खत्म हो रहा है । नदियां, नाले, झीलें सूख रही हैं । ग्लैशियर पिघल रहे हैं । जमीनी पानी दिनों-दिन नीचे खिसकता जा रहा है । पीने के पानी की विकराल होती समस्या के कारण मार-पीट, धरना-प्रदर्शन, तोड़-फोड़ की नौबत आने लगी है । पानी के कुप्रबंध के कारण प्रकृति की पूरी संरचना बिगड़ चुकी जान पड़ने लगी है । हमने आज के विकास की कीमत पर कल के विनाश की इबारत अपने हाथों लिख दी है । हम अपनी गलतियों को सुधारने के बजाए,गाल बजा रहे हैं । नतीजा यह है कि हमारी नादानियों की वजह से इक्वीसवीं सदी के अन्त तक गंगा को पानी देने वाला ग्लैशियर हमेशा के लिए पिघल जायेगा । हिमालय से निकलने वाली सभी नदियां सूख जायेंगी । केवल गंगा पर 50 करोड़ लोगों का जीवन निर्भर हैं । नदियों के सूखते ही धरती पर रक्तरंजित मार-काट मचेगी और फिर मानव सभ्यता का दुखद अन्त हो जायेगा । यह कोई भविष्यवाणी नहीं है । कल का यथार्थ है ।
संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट के अनुसार सन् 2050 तक चार अरब लोग पानी की कमी से प्रभावित होंगे । आज भी एक अरब लोगों को शुद्ध पानी नसीब नहीं है । मुम्बई महानगर को पानी देने वाली चार महत्वपूर्ण झीलें सूख रही हैं । दूसरी ओर बारिश में मुम्बई की सड़कों पर जलभराव का मंजर हर साल देखने को मिलता है । ऐसे में बरसाती पानी से झीलों को भरने की कार्ययोजना क्यों नहीं बनाई जाती ।
हमारे नीति नियन्ताओं की कार्ययोजना में गम्भीरता का मतलब महज यही है कि बारिश न होने पर वे जगह-जगह हवन, पूजा, यज्ञ कराकर, टी0वी0 पर दिखा देते हैं और समस्या को भगवान की ओर खिसका कर चैन से सांस लेते हैं । बरसात के लिए महिलाओं द्वारा नंगी होकर हल चलाने, बच्चों के कीचड़ में लोटने या मेढ़क-मेढ़की की शादी कराकर इन्द्र देवता को रिझाने जैसे टोटकों को प्रसारित कराते हैं और अपने द्वारा पैदा की गई समस्याओं को कभी ग्लोवल वार्मिंग का कारण बताकर तो कभी भगवान की मर्जी बताकर ढंक देते हैं ।
नदियों से नहरों का संजाल फैलाते समय जो गुलाबी तस्वीर पेश की गई थी वह महज दो-तीन दशकों में मटमैली हो गई है । अधिकांश नहरों के अन्तिम सिरे(टेल) तक पानी नहीं पहुंचता । नहरें गाद से भर गई हैं । नदियों का पानी खेतों तक पहुंचने के बजाय, वाष्प बनकर उड़ रहा है और नदियों को सुखता जा रहा है । आजादी के बाद देश में जलसंरक्षण के जितने भी साधन थे, धीरे-धीरे हमने सबको भूमाफियाओं के हवाले कर दिया, जहां उन्होंने अपने लाभ के लिए कंकरीट के जंगल उगाए । विकास के आधुनिक तौर-तरीकों के नाम पर हमने खेती, सिंचाई की पूरी संरचना बदल दी । जहां पहले जमीनी पानी का इस्तेमाल न कर, परंपरागत जलस्त्रोतों से सिंचाई होती थी वहीं परंपरागत जलस्त्रोतों यथा-तालाब, कुएं और झीलों की हमने उपेक्षा कर जगह-जगह ट्यूबवेल लगा कर जमीनी पानी का दोहन किया । ट्यूबवेलों के प्रचलन ने न केवल कुओं और तालाबों को पाटा अपितु जमीनी पानी को निचोड़ कर पूरे ऋतु चक्र को प्रभावित किया । कुओं और तालाबों के माध्यम से बरसाती पानी, जमीनी पानी के तल को बनाए रखता था। गांवों में जगह-जगह खुदे कुएं `रेन वाटर हार्वेस्टिंग का काम करते थे । आज गांवों में कुएं दिखाई नहीं देते । यही हाल तालाबों का है । जमीनों को पट्टों पर देने की राजनीति ने तमाम भूमाफियाओं को तालाबों की जमीन पर कब्जा दिला दिया । मिट्टी के बरतनों, घरों का निर्माण रूकने से बचे-खुचे तालाब भरते गए । उनके पाट सिमटते गए । आज इक्का-दुक्का ही ऐसे तालाब बचे हैं जो पूरे साल बरसाती पानी को बचाये रखने की क्षमता रखते हैं । सामन्त, राजे-महाराजे अपनी शौक के लिए ही सही, मगर तालाबों और झीलों के संरक्षण पर विशेष ध्यान देते थे । हमारी लोकतन्त्रात्मक दृष्टि उनसे भी गई गुजरी है । या यों कहें ,हमारे पास ऐसी कोई दृष्टि है ही नहीं ।
अब हमें बरसाती पानी को बचाने के बारे में गम्भीरता से सोचने की जरूरत है । बरसाती पानी बचा कर जमीनी पानी बढाने के लाभदायक परिणाम के सम्बंध में केरल का एक उदाहरण हमारे सामने है । सन् 2005 में केरल पब्लिक स्कूल ने अपने 250 वर्ग मीटर छत से 2,40,000 लीटर बरसाती पानी को संरक्षित कर अपने जमीनी पानी को इतना बढ़ा लिया कि अब गर्मियों में भी वहां कुएं और ट्यूबवेल नहीं सूखते ।
जमीनी पानी के स्तर को नीचे खिसकने से बचाने के लिए रेन वाटर हार्वेस्टिंग ही एक मात्र विकल्प है । विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार यदि हमने बरसाती पानी को संरक्षित कर जमीनी पानी के स्तर को बचाने की कोशिश नहीं की तो पानी की वर्तमान उपलब्धता 500 घन किलोमीटर से घट कर स्न 2050 तक मात्र 80 घन किलोमीटर रह जायेगी । विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार आज जहां भारत का 15 प्रतिशत भू-भाग पानी के गम्भीर संकट से घिरा हुआ है वहीं सन् 2030 तक 60 प्रतिशत भू-भाग इसकी चपेट में आ जायेगा । सबसे पहले वही क्षेत्र संकटग्रस्त होंगे जहां जमीनी पानी का ज्यादा दोहन हो रहा है जैसे राजस्थान, पंजाब, हरियाण, तमिलनाडु और कर्नाटक ।
रेन वाटर हार्वेस्टिंग के बारे में हकीकत में कुछ नहीं किया जा रहा । शहरों में सड़कों के किनारे, बरसाती पानी को जमीन में संरक्षित करने के लिए अभी तक कोई योजना अमल में नहीं लाई जा रही है । छतों के बरसाती पानी को जमीन में पहुंचाने की बाध्यकारी योजनाएं कार्यरूप में नहीं हैं । कागजी कार्यवाहियां, पानी के संकट से हमें उबार नहीं पायेंगी । दिनों-दिन पक्की होती जा रही जमीनों से पानी जमीन के अन्दर नहीं जा पाता और यूं ही वाष्प बनकर उड़ जाता है ।
हमें बरसाती पानी के हर बून्द के संरक्षण के बारे में गंमीरता से सोचना चाहिए । हालात चिन्ताजनक हैं और टोटकों से हल नहीं होने वाला है । वोट बैंक के लहलहाने के लिए आबादी नियन्त्रित करने की कोई योजना बनती दिखाई नहीं देती । ऐसे में ज्यादा आबादी के लिए पानी की जरूरतें बढ़ती जायेंगी । दिनोन्दिन कम होते पानी की पूर्ति के लिए जरूरत है तालाबों, झीलों को गहरा और विस्तार दिया जाए । शहरी बस्तियों में पार्कों और सार्वजनिक स्थलों पर गहरे तालाबों का निर्माण कर बरसाती पानी को जमा किया जाए । घरों के प्रयुक्त पानी को नालियों में बहाने के बजाए पुन: जमीन में डाल कर संरक्षित किया जाए । बरसाती पानी को संरक्षित कर हम कुओं, तालाबों, झीलों के माध्यम से जमीनी पानी के स्तर को बढ़ा सकते हैं ।

सुभाष चन्द्र कुशवाहा
बी 4/140 विशालखण्ड
गोमतीनगर, लखनऊ 226010