शनिवार, 23 जनवरी 2010

सपने जो खुदकुशी तक ले जाते हैं

सपने जो खुदकुशी तक ले जाते हैं
हाल-फिलहाल बच्चों और युवाओं में आत्महत्या करने की प्रवृत्ति बढ़ी है । मुम्बई जैसे अति आधुनिक महानगरीय संस्कृति से लेकर लखनऊ जैसे आधुनिक और पुरातन संस्कृति के बीच पले-बढ़े बच्चों में भी, सात साल के अबोध और 25 साल के शिक्षित युवाओं में भी । किशोरावस्था की दहलीज पर पहुचने वालों से लेकर, युवावस्था तक के छात्र, अपनी जिन्दगी से निराश होकर और उससे जूझने का हौसला खोकर, स्वयं को खत्म कर लेना मुनासिब समझ रहे हैं । अभिभावक हैरान, परेशान हैं । कहां है खोट ? कौन निगल ले गया सुख-दुख में जिन्दगी से जूझने की क्षमता को ? अपने ही लाड़लों को समझने-बूझने में चूक रहे हैं माता-पिता । मनोचिकित्सकों के सामने नई उपजती ग्रन्थियों को समझने, सुलझाने की चुनौतियां आ खड़ी हुई हैं । समाचार पत्रों में हर रोज आत्महत्या की खबरें आ रही हैं । आखिर इस आत्मघाती समाज के बीज, बाजारवाद के गर्भ में तो नही पल-बढ़ रहे ? आत्महत्या करने के जो कारण दिखाई दे रहे हैं, वह `सुपर मैन´ `अवतार´, हैरीपाटर´ जैसी चमत्कारी या जादुई यथार्थ को आत्मसात करने वाली शहरी पीढी को झुग्गियों में पलने वाली पीढ़ी जैसी आत्मबल भी प्रदान नहीं कर पा रही है ।
कुछ आत्महत्याओं के पीछे शिक्षा और परीक्षा का दबाव है तो कुछ के पीछे मात्र अभिभावकों की सामान्य सी डांट, अपने या सहपाठियों की उपेक्षा या अंग्रेजी भाषा का अभाव । ऐसे कारणों से आत्मघाती निर्णय तक पहुंचने वाली यह पीढ़ी, अपने मां-बाप, भाई-बहन के प्यार और उन पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों की परवाह नहीं कर रही । यानी कि हमने नितान्त आत्मकेन्द्रित, आत्मजीवी पीढ़ी की बुनियाद रख दी है और शायद यही बाजारबाद की मूल आत्मा भी है । हमारे नौनिहालों में, एक भरी-पूरी जिन्दगी को अपने ही हाथों खत्म करने की प्रवृत्ति का यूं बढ़ जाना चिन्ता का विषय होना चाहिए । पूरी वैश्विक अर्थव्यवस्था और उसके सामानान्तर निर्मित हो रही वैश्विक संस्कृति, जिसमें हमारी शिक्षा प्रणाली भी है, कि क्रूरता, निरर्थकता की पड़ताल होनी चाहिए । किशोरों और युवाओं के भविष्य के जो सपने हम तैयार कर रहे हैं, उसमें व्याप्त खोट की पड़ताल होनी चाहिए । करियर का जो अत्यधिक दबाव हम उन पर थोप रहे हैं, उनसे उनका बचपन या किशोरापन छीन रहे हैं, उनकी अव्यावहारिकता की भी समीक्षा होनी चाहिए । इस नई पीढीं के सामने हम जो आदर्श प्रस्तुत कर रहे हैं, वे कितने वाजिब या गैर वाजिब हैं, नई पीढ़ी की आत्महत्या करने की परिणति देख, मूल्यांकन किया जाना चाहिए । युवा पीढ़ी, इस अवसादग्रस्तता के लिए कत्तई जिम्मेदार नहीं है । समाज का नया ढांचा जिसमें विकास का नया ढ़ांचा शामिल है, जिम्मेदार है । ऐसी अवसादग्रस्त दुनिया की बुनियाद हमने स्वयं रखी है ।
बाजार का सबसे अधिक दबाब बच्चों और युवाओं पर है । आज की सम्पूर्ण आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था, युवा पीढ़ी या बच्चों को ध्यान में रखकर बनाई जा रही है । आर्थिक लाभ के लिए इन्हें गैर जरूरी प्रवृत्तियों की ओर ढकेला जा रहा है । बच्चे बाजार के सबसे महत्वपूर्ण अंग बना दिए गए हैं । जादुई तिलिस्म और महत्वाकांक्षी दुनिया की तस्वीर के अलावा जिन्दगी के वास्तविक यथार्थ उनके सामने दिखाये, बताये नहीं जा रहे । उनके सामने सब कुछ हासिल करने का ख्वाब दिखाया जाता है, वह भी बिना संघर्ष किए, बिना असफल हुए । असफलता भी सफलता के लिए जरूरी है, आज की पीढ़ी को स्वीकार्य नहीं ।
इस युवा पीढ़ी के सामने हमने नितान्त व्यक्तिक और बाजारू दुनिया खड़ा कर दिया है । हम सुख-सुविधाओं के पीछे भाग रहे हैं । हमारे पास ठहर कर सोचने, कुछ पल सुकून से जिन्दगी जीने का समय नहीं है । विकास हमें दौड़ा रहा है और हम भाग रहे हैं । इस भागा-भागी में मां-बाप, भाई-बहन, रिश्ते-नाते, गांव-देहात, पास-पड़ोस और यहां तक की राष्ट्रीयता का भी कोई मूल्य नहीं रह जाता है । हमें लगता है कि इस गलाकाट प्रतियोगिता में जरा-सी देरी या चूक सतरंगी दुनिया से बेदखल कर सकती है और हमें आर्थिक नुकसान पहुंचा सकती है । इसलिए हम केवल पैसा बनाने की मानसिकता में जी रहे हैं । हमारे पास साहित्य, संगीत, कला और संस्कृति के लिए समय नहीं है । हम अपने बच्चों को सामाजिक परिवेश से जोड़ने के बजाय, नितान्त व्यावसायिक मानसिकता में ले जा रहे हैं और गैर जरूरी दबाव बनाकर उन्हें सिर्फ चमकते बाजार का हिस्सा बनाना चाहते हैं । हम उन्हें बाजार में ऊंचे दाम पर बिकते देखना चाहते हैं । उन्हें समय से पहले हॉस्टल में डालकर अकेलापन दे रहे हैं । परिवार से कट कर स्वयं की अलग दुनिया बसा लेना, परिवार की अन्तरंगता से विमुखता, रिश्तों में ठण्डापन का होना, बाजारीकरण के बुनियादी तत्व बताए जा रहे हैं । बाजारीकरण, संघर्षशीलता का पाठ पढ़ाने के बजाए, पैसे से सबकुछ हासिल करने, धूर्तता, ठगी या छीनाझपटी को कोई अवगुण नहीं बता रहा है । मनोकांक्षाओं का विस्फोट, सब्र की समाप्ति और सामाजिकता का लोप, बहुत हद तक इसके लिए जिम्मेदार है । इस पीढ़ी के ऊपर कृत्रिम बाजार का, नई चहकती दिखती दुनिया के ग्लैमर का, कल्पनालोक का ऐसा आकर्षण पैदा कर दिया गया है, गोया इसके इतर जिन्दगी बेकार है ।
जिन्दगी को भोगने की प्रवृत्ति और दायित्वबोध की समाप्ति, युवाओं को विपरीत स्थितियों से उबारने में अक्षम बना रही है । बाजारवाद ने आज जिस समाज की रचना की है, वहां संवेदना, सम्बंध, समाजिकता का कोई मतलब नहीं रह गया है । हर कोई उपभोक्ता है । हर कोई अपने लिए जी रहा है । हम भूखों का रुदन नहीं देखते, सिर्फ सेंसेक्स का ग्राफ देखते हैं । जबकि इसी दुनिया में करोड़ों लोग भूखे रहते हैं, आधा पेट खाते हैं, उनके पास रहने को घर नहीं है पर वे आत्महत्या नहीं करते । जिन्दगी से जूझने की विकट क्षमता है उनमें । जो बाजार से नहीं जुड़े हैं वे सबसे जुड़े हैं ।
जो लोग संघर्षशील जिन्दगी जीते हैं, उनकी संवेदना मरती नहीं है । वे अपने सामने आईं विपरीत परिस्थितियों से लड़ लेते हैं । दूसरी ओर समाज का जो वर्ग सिर्फ हवा में उड़ना जानता है, वह भी उधार के या नकली डैनों से, वह हल्के तुफानों में भी नीचे टपक पड़ता है । मात्र नब्बे या निन्यानबे प्रतिशत अंक पाना सफलता का पैमाना होता तो न्यूटन, गैलीलियो, आर्किमिडीज, जेम्सवाट जैसे सामान्य विद्यार्थी आज वैज्ञानिकों की सूची में न होते ।
दरअसल यह नई अर्थव्यवस्था, सुविधाओं का अंबार लगा कर मनुष्य विरोधी होती जा रही है । यह मनुष्यता की कीमत पर समाज का निर्माण कर रही है । किताबों का बोझ बढ़ाकर बच्चों को दादा-दादी, मां-बाप, घर-परिवार, खेल-कूद सबसे काट रही है । घर के कोने में रखा बुद्धू बक्सा, कार्टून फिल्मों से बच्चों को संवेदनहीन बना रहा है । अब बच्चों के आंखों में आंसू नहीं दिखते । मां-बाप के बीमार पड़ने पर सिर्फ फोन पर हिदायत, सलाह देकर अपने दायित्व की इतिश्री कर लेते हैं । जब अपनों से संवादहीनता की स्थिति बनती जा रही हो तब इस समाज की नई पीढ़ी असफलता का दर्द किससे बांटेगी ? इन्टरनेट से ?
इसलिए आज की पीढ़ी को टूटने से बचाने के लिए जरूरी है, हम विकास के सारे मॉडलों की पुन: समीक्षा करें । प्रगति, जिन्दगी से बड़ी नहीं होती । तमाम सामाजिक कार्यो द्वारा जिन्दगी को सार्थक और संवेदनशील बनाया जा सकता है । सार्थक और संवेदनशील जिन्दगी के मायने समझ लेने वाली समाज की नई पीढ़ी न तो अवसादग्रस्त होगी और न आत्महत्या करेगी ।

सुभाष चन्द्र कुशवाहा
बी 4/140 विशालखण्ड
गोमतीनगर, लखनऊ ।