रविवार, 31 जनवरी 2010

बरसाती पानी को बचाने की जरूरत

सुभाष चन्द्र कुशवाहा
मानसून की बेरूखी से गांव और शहर दोनों खौफजदा हैं । जहां एक ओर गर्मी,उमस से जीना बेहाल हो गया है वहीं दूसरी ओर पीने के पानी की विकराल होती समस्या के कारण देश में मारा-मारी ,धरना-प्रदर्शन,तोड़-फोड़ का दौर जारी हैं । नदियां ,नाले,झीलें सूख रही हैं । ग्लैशियर पिघल रहे हैं । हमने आज के विकास की कीमत पर कल के विनाश की इबारत अपने हाथों लिख दी है । हम चेतते नहीं, अपनी गलतियों को सुधारने के बजाए,गाल बजा रहे हैं । वातानुकूलित कमरे में , बाहर की गर्मी और पानी के लिए मचा हाहाकार सुनाई नहीं दे रहा । कहा जा रहा है कि हमारी नादानियों की वजह से इक्वीसवीं सदी के अन्त तक गंगा को पानी देने वाला ग्लैशियर हमेशा के लिए पिघल जायेगा । हिमालय से निकलने वाली नदियां सूख जायेंगी । नदियों के सूखते ही धरती पर रक्तरंजित मार-काट मचेगी और फिर मानव सभ्यता का दुखद अन्त हो जायेगा । यह कोई भविष्यवाणी नहीं है । कल का यथार्थ है ।
संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट के अनुसार सन् 2050 तक चार अरब लोग पानी की कमी से प्रभावित होंगे । आज भी एक अरब लोगों को शुद्ध पानी नसीब नहीं है । मुम्बई महानगर को पानी देने वाली चार महत्वपूर्ण झीलें सूख रही हैं । दूसरी ओर पहली ही बारिश में मुम्बई की सड़कों पर जलभराव दिख रहा हैं, कालोनियां पानी से लबालब भर गई हैं । यह हर साल का नजारा है । अब भला कोई पूछे कि जब मुम्बई की चारों झीलें सूख रही हैं तो बरसाती पानी से हम उन्हें भरने की कार्ययोजना क्यों नहीं बनाते ?
हमारे नीति नियन्ताओं की कार्ययोजना में गम्भीरता का मतलब महज यही है कि बारिश न होने पर वे जगह-जगह हवन,पूजा,यज्ञ के आयोजनों को कराकर, टी0वी0 पर दिखा देते हैं और समस्या को भगवान की ओर खिसका कर चैन से सांस लेते हैं । महिलाओं द्वारा नंगी होकर हल चलाने,बच्चों के कीचड़ में लोटने या मेढ़क-मेढ़की की शादी कराकर इन्द्र देवता को रिझाने जैसे टोटकों को प्रसारित कराते हैं और अपने द्वारा पैदा की गई समस्याओं को कभी ग्लोवल वार्मिंग का कारण बताकर तो कभी भगवान की मर्जी बताकर अपनी नालायकी को ढंक लेते हैं । आखिर ग्लोवल वार्मिंग के लिए जिम्मेदार कौन हैं ? नदियों से नहरों का संजाल फैलाते समय जो गुलाबी तस्वीर पेश की गई थी वह महज दो-तीन दशकों में मटमैली हो गई है । अधिकांश नहरों के अन्तिम सिरे(टेल) तक पानी नहीं पहुंचता । नहरें सिल्ट से भर गई हैं । नदियों का पानी खेतों तक पहुंचने के बजाय, वाष्प बनकर उड़ रहा है और नदियों को सुखता जा रहा है । जितने क्षेत्रफल में देश की नहरें फैली हैं, उतने क्षेत्रफल में झीलों का निर्माण कर तथा बरसाती पानी संरक्षित कर हम सिंचाई के लिए पानी बटोर लेते और साथ ही साथ खेतों की उर्वरकता को सिल्ट से प्रभावित न होने देते ।
आजादी के बाद देश में जलसंरक्षण के जितने भी साधन थे, धीरे-धीरे हमने सबको भूमाफियाओं के हवाले कर दिया जहां उन्होंने अपने लाभ के लिए कंकरीट के जंगल उगाए । विकास के आधुनिक तौर-तरीकों के नाम पर हमने खेती, सिंचाई की पूरी संरचना बदल दी । जहां पहले जमीनी पानी का इस्तेमाल न कर,परंपरागत जलस्त्रोतों से सिंचाई होती थी वहीं परंपरागत जलस्त्रोतों यथा-तालाब,कुएं और झीलों की हमने उपेक्षा कर जगह-जगह ट्यूबवेल लगा कर जमीन खोखला कर दिया । ट्यूबवेलों के चलन ने न केवल कुओं और तालाबों को पाटा अपितु जमीन के अन्दर के पानी को निचोड़ कर पूरे ऋतु चक्र को प्रभावित किया । कुओं और तालाबों के माध्यम से बरसाती, पानी जमीनी पानी के तल को बनाए रखता था। गांवों में जगह-जगह खुदे कुएं `रेन वाटर हार्वेस्टिंग का काम करते थे । आज गांवों में कुएं दिखाई नहीं देते । यही हाल तालाबों का है । जमीनों को पट्टों पर देने की राजनीति ने तमाम भूमाफियाओं को तालाबों की जमीन पर कब्जा दिला दिया । मिट्टी के बरतनों ,घरों का निर्माण रूकने से बचे-खुचे तालाब भरते गए । उनके पाट सिमटते गए । आज इक्का-दुक्का ही ऐसे तालाब बचे हैं जो पूरे साल बरसाती पानी को बचाये रखने की क्षमता रखते हैं । सामन्त, राजे-महाराजे,अपने शौक के लिए ही सही, मगर तालाबों और झीलों के संरक्षण पर विशेष ध्यान देते थे । हमारी लोकतन्त्रात्मक दृष्टि उनसे भी गई गुजरी है । या यों कहें, हमारे पास ऐसी कोई दृष्टि है ही नहीं । हम महज इन्द्र देवता को हवन, पूजा से रिझाने का ढोंग कर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेना चाहते हैं । जब ऐसे ढोंग सफल नहीं होते तब अपने कृत्यों पर शर्मिन्दा होने के बजाए दूसरे ढ़ोंग का प्रदर्शन करने लगते हैं ।
अपनी अर्कमण्यता छोड़ हमें बरसाती पानी को बचाने के बारे में गम्भीरता से सोचने की जरूरत है । बरसाती पानी बचा कर जमीनी पानी बढाने के लाभदायक परिणाम के सम्बंध में केरल का एक उदाहरण हमारे सामने है । सन् 2005 में केरल पब्लिक स्कूल ने अपने 250 वर्ग मीटर छत से 2,40,000 लीटर बरसाती पानी को संरक्षित कर अपने जमीनी पानी को इतना बढ़ा लिया कि अब गर्मियों में भी वहां कुएं और ट्यूबवेल नहीं सूखते ।
जमीनी पानी के स्तर को नीचे खिसकने से बचाने के लिए रेन वाटर हार्वेस्टिंग ही एक मात्र विकल्प है । विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार यदि हमने बरसाती पानी को संरक्षित कर जमीनी पानी के स्तर को बचाने की कोशिश नहीं की तो पानी की वर्तमान उपलब्धता 500 घन किलोमीटर से घट कर स्न 2050 तक मात्र 80 घन किलोमीटर रह जायेगी । विश्व बैंक की रिपोर्ट के अनुसार आज जहां भारत का 15 प्रतिशत भू-भाग पानी के गम्भीर संकट से घिरा हुआ है वहीं सन् 2030 तक 60 प्रतिशत भू-भाग इसकी चपेट में आ जायेगा । सबसे पहले वही क्षेत्र संकटग्रस्त होंगे जहां जमीनी पानी का ज्यादा दोहन हो रहा है जैसे राजस्थान,पंजाब,हरियाण, तमिलनाडु और कर्नाटक ।
रेन वाटर हार्वेस्टिंग के बारे में कहा-सुना बहुत जा रहा है,पर किया कुछ नहीं जा रहा । शहरों में सड़कों के किनारे, बरसाती पानी को जमीन में संरक्षित करने के लिए अभी तक कोई योजना अमल में नहीं लाई जा रही है । छतों के बरसाती पानी को जमीन में पहुंचाने की बाध्यकारी योजनाएं कार्यरूप में नहीं हैं । कागजी कार्यवाहियां, पानी के संकट से हमें उबार नहीं पायेंगी । दिनों-दिन पक्की होती जा रही जमीनों से पानी जमीन के अन्दर जाता नहीं और यूं ही वाष्प बनकर उड़ जाता है ।
हमें बरसाती पानी के हर बून्द के संरक्षण के बारे में गंमीरता से सोचना चाहिए । हालात चिन्ताजनक हैं और टोटकों से हल नहीं होने वाले हैं । वोट बैंक को लहलहाने के लिए आबादी को नियन्त्रित करने की कोई योजना बनती दिखाई नहीं देती । ऐसे में ज्यादा आबादी के लिए पानी की जरूरतें बढ़ती जायेंगी । दिनोन्दिन कम होते पानी की पूर्ति के लिए जरूरत है तालाबों और झीलों को गहरा और विस्तार दिया जाए । शहरी बस्तियों में पार्को और सार्वजनिक स्थलों पर गहरे तालाबों का निर्माण कर बरसाती पानी को जमा किया जाए । घरों के प्रयुक्त पानी को नालियों में बहाने के बजाए पुन: जमीन में डाल कर संरक्षित किया जाए । बरसाती पानी को संरक्षित कर हम कुओं, तालाबों, झीलों के माध्यम से जमीनी पानी के स्तर को बढ़ा सकते हैं ।

सुभाष चन्द्र कुशवाहा
बी 4/140 विशालखण्ड
गोमतीनगर,लखनऊ 226010