रविवार, 12 जून 2011

समय और साहित्य

अमानवीय समय का साहित्य, साहित्य का अमानवीयकरण करने लगे तो सर्जनात्मकता पर आसन्न खतरे के प्रति हमें सतर्क हो जाना चाहिए । पिछली शताब्दी का अंतिम दशक हिंसा, साम्प्रदायिकता, अमानवीयता को संस्थागत जामा पहनाने, अंधराष्ट्रवाद, लूट और अपराधीकरण को आदर्शवाद बनाने, विचारशीलता और विश्वसनीयता को अविश्वसनीयता की संस्कृति में बदलने का प्रस्थान बिन्दु है जो नर्इ सदी के प्रथम दशक तक आते-आते अपने प्रचंड आवेग में, अपने निर्लज्ज रूप-रंग पर इतराने लगा है । यह वह काल है जो जनपक्षधर लोगों को अपराधपरस्त और अपराधपरस्तों को जनपक्षधर दिखाने, बताने के कुचक्र को संवैधानिक जामा पहनाने लगा है । यह मुनष्यता का 'काल है । यह दौर मनुष्य को मनुष्य से इतर वह सब कुछ बनाने, दिखाने की प्रक्रिया की शुरूआत करता है जिसमें मानवीय संवेदनाओं के लिए जगह न बच पाये । तभी तो आज आंखों के आंसू मर गये लगते हैं । हम लातूर, गोधरा, गुजरात दंगों पर आह भरने के बजाय इस दौर की विश्व सुन्दरियों पर जान निछावर करते नजर आते हैं । यह दौर सात समंदर पार संपर्क कर सकता है पर पड़ोसी का आर्तनाद नहीं सुन सकता । यह दौर हमें अपनी जमीन, बोली-भाषा, संस्कृति या कुल मिलाकर कहें तो भारत से नफरत और इंडिया को मस्त रहने की संस्कृति को मजबूती प्रदान करता दिखार्इ देता है । यह आम और खास में फर्क करने का दौर है । संचारक्रांति का आक्रमण, आम और खास के बीच इतनी दूरी बढ़ाता जा रहा है कि अतीत की दास प्रथा शर्मिंदा नजर आ रही है । यह दौर इस मायने में वैशिवक है जिसमें पूंजी अपनी गुंडागर्दी और उदंडता से सब कुछ खरीद सकती है । उसकी नजर में सब कुछ बिकाऊ है जहां हम अपने परिवेश को बेचकर, 'स्व खरीदना चाहते हैं । अपने इतिहास और भविष्य की कीमत पर वर्तमान भोगना चाहते हैं । वैश्वीकरण में कोर्इ सगा नहीं है । यहां अपने हित के लिए दूसरे का अहित कोर्इ अपराध नहीं है । यहां मानवीय संवेदनायें जीवन-मरण से रिश्ते जोड़ने के बजाय चंद लम्हों के लिए इंटरनेट पर समय बिताने तक की प्रक्रिया में तब्दील होती दिखती हैं । यह र्इ-मेल, चैटिंग, एस0एम0एस0, डिजिटल और मोबाइल की चहकती दुनिया है जो गांवों को अपनी गिरफ्त में लेकर, उन्हें उपेक्षित करती है ।
यह दौर श्रम की कमार्इ को पीछे ढकेलता है और ठगी(जिसमें कर्ज, करार, कमीशन और कब्जा की नीति शामिल है), सटटेबाजी और खास तकनीकी कमार्इ को आगे लाता है । बिना हींग-फिटकरी के माल चोखा बनाने का यह दौर है जिसमें तकनीकी ज्ञान में पीछे कर दिये गये समाज के सामने आत्महत्या का विकल्प बचता है । तभी तो इन दशकों में बड़े पैमाने पर किसानों ने आत्महत्या की है । यह दौर बड़े-बड़े मुनाफाखोंरों के लिए प्राकृतिक संपदा के दोहन, पर्यावरणीय संतुलन को तहस-नहस कर कुछ के लिए सबके 'जीवन को कैद कर लेने वाला है । इस दौर में लोकतांत्रिक व्यवस्था में गरीबों के गुर्दे निकाले गये हैं और मजबूरों को अस्पतालों की कीमत अदा न करने पर मरते देखा गया है ।
यह दौर गलाकाट प्रतियोगिता का है । प्रतियोगिता ऐसी जहां असमानता की खार्इ इतनी बढ़ा दी गर्इ है कि एक शख्स पैदल या लंगड़ा कर दिया गया है, दूसरे को बी.एम.डब्लू गाडि़यां थमा दी गर्इ हैं और तब कहा जा रहा है दोनों के बीच लम्बी दौड़ की प्रतियोगिता होगी । जो जीतेगा वह जीवन जियेगा, जो हारेगा उसे शौक से आत्महत्या करने की छूट होगी । ऐसी नीति में वैश्वीकरण का तुर्रा यह कि प्रतिस्पर्धा से गुणवत्ता निखरती है ।
यह दौर संघर्षशील शकितयों को किनारे लगाने, संघर्ष की ऊर्जा को समाप्त करने के अप्रत्यक्ष तरीकों को अपनाने, परिवर्तनगामी नारों, स्वरों को एन0जी0ओ0गामी बनाने और कुछ हद तक इनमें घालमेल पैदा करने का भी है । यह दौर माक्र्सवादी वैज्ञानिक ऊर्जावान विचारशीलता का मजाक उड़ाने का और समाज में हताशा फैलाने का है । इस दौर में चिंतनशील लोगों के दिमाग में यह बात डाल दी गर्इ है कि यथासिथतिवाद समाज की नियति है । बदलाव की विचारधारा एक छलावा है । जबकि यथार्थ हमारे सामने है । भविष्य को अपने इशारे पर चलाने वालों के सामने संकट दिखार्इ देने लगा है । वैश्वीकरण के इन दो दशकों के जाते-जाते मिस्त्र, टयूनीशिया, लीबिया, सीरिया और न जाने कितने नाम उन सारे उदंड विचारधाराओं को ध्वस्त करते दिखार्इ देने लगे हैं जिनको आदर्श बनाकर यह दौर बिगड़ैल सांड़ की तरह कुलांचे भर रहा था । यथासिथतिवाद निरंकुशता की कोख से भले जनमता हो, बहुत दिनों तक वह निरंकुशता के बल पर जिंदा नहीं रह सकता । वह अपने खात्मे का हथियार स्वयं तैयार करता है, यह बात एक बार फिर सिद्ध होती दिख रही है ।
इस बात पर हमें गौर करना चाहिये कि पिछली सदी के अंतिम दशक के प्रारम्भ में भूमंडलीकरण से कहीं अधिक उन्मादी, राष्ट्रवादी साम्प्रदायिकता युवा पीढ़ी के सामने खतरा बन कर आर्इ थी क्योंकि पूर्व के साम्प्रदायिकता के रंग-रूप की तुलना में वह सांस्कृतिक राष्ट्रवाद जैसी विचारधारा से लैस थी । वह उदारता के मुखौटे के भीतर खूंखार थी । उसने संवैधानिकता का जामा भी पहन लिया था । ऐसे समय में भी बिना किसी बड़े जनान्दोलनों की पृष्ठभूमि से सीखे कथाकारों ने उस खतरे को भांपा । सांप्रदायिकता की अंतर्वस्तु- गंवर्इ जातिवाद और छुआछूत को केन्द्र में रखकर शिवमूर्ति(तर्पण), संजीव(योद्धा), ओमप्रकाश वाल्मीकि(छुआछूत) हस्तक्षेप करते हैं । वैचारिक प्रतिबद्धता के क्षरण के शुरूआती दौर में मदनमोहन अपने 'हारू कहानी के माध्यम से हमारे बीच आते हैं । टेक्नालाजी और कला के त्रासद संबंधों को व्यक्त करने वाली मनोज रूपड़ा की कहानी 'साज-नासाज देखने को मिलती है । गांव-गिरांव की कथा-व्यथा को महेश कटारे जैसे कहानीकार अपनी कहानी 'कुआं में और मिथिलेश्वर 'बाबूजी में जितनी संजीदगी से प्रस्तुत करते हैं उतनी ही संजीदगी से देवेन्द्र 'क्षमा करो हे वत्स के माध्यम से बेटे की निर्मम हत्या पर बाप द्वारा कुछ न कर पाने के आर्तनाद और संवेदनात्मक अनुभूतियों को चरम पर ले जाते हैं । इस दौर के दूसरे महत्वपूर्ण कथाकारों में योगेन्द्र आहूजा, कैलासचंद्र, सुभाष पंत और भालचंद जोशी को भी नहीं भूलना चाहिये जो वैशिवक दुनिया की मक्कारियों को अपनी कहानियों में उधेड़ कर सार्थक हस्तक्षेप करते नजर आते हैं । उसी दौर की एक अजीब विडम्बना है कि विचारधारा को 'साहित्य या कला के क्षेत्र में गुण्डागर्दी(वर्तमान साहित्य,जनवरी-फरवरी 2000) कहने वाले उदय प्रकाश जैसे महत्वपूर्ण और बहुचर्चित कहानीकार सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को सचेतन ढंग से अपनी कहानियों में पिरोते हैं जैसे कि 'वारेन हेसिटंग का सांड़ में ।
यह सही है कि सदी के पहले दशक के आस-पास के ज्यादातर युवा कहानीकारों की कहानियों में गांव-गिरांव, भूख और जातिवादी दंश देखने को नहीं मिलता जो समाज की ज्वलंत समस्या है । सुरेश कांटक, वासुदेव, गौरीनाथ और कैलाश बनवासी जरूर कुछ हस्तक्षेप करते हैं और श्रीधरम अपनी कहानी 'नवजात-क-कथा के माध्यम से अपनी बोली-बानी और कथा शिल्प के द्वारा गांव के वर्तमान सवर्णवादी मानसिकता की जड़ता, उसकी विसंगतियों को कथा साहित्य में स्थान देते हैं । सांप्रदाकिता के नये उभार पर युवा पीढ़ी की चिंता जरूर उभरती है परन्तु वैचारिक अस्पष्टता के चलते अपनी सघनता को बिखेर देती है ।
विगत सौ वर्षों की हिन्दी कहानी परंपरा में अधिकांशत: प्रेमचंद की कहानियों ने ही प्रभाव डाला है । 'पंच परमेश्वर का वर्ग चरित्र आज की पंचायती व्यवस्था में और भी मूल्यहीन हुआ है । तब एक होरी आत्महत्या करता है आज हजारों होरी आत्महत्या कर रहे हैं। जीवन संघर्ष और सघन हुआ है । अमरकांत की 'डिप्टी कलेक्टरी, 'जिंदगी और जोंक, शेखर जोशी की 'हलवाहा और 'नौरंगी बीमार है, मन-मसितष्क से उतरती ही नहीं ।
बहुचर्चित युवा कथाकारों की कहानियों से गुजरते हुए हमें यह आभास होता है कि उनके पास निजी भाषा, मुहावरा और कथन का खास लहजा तो है पर कथा में मानवीय संवेदनशीलता और दृषिट का अभाव है । आज युवा पीढ़ी की हिन्दी कहानी में दो धारायें समानांतर चल रही हैं । मैं इसे गैरजरूरी भी नहीं मानता । बात सिर्फ इतनी है कि कलावादी रूझानों को जिस तरह सचेतन ढ़ंग से कुछ मठाधीशों द्वारा आसमान पर बैठाने का कुचक्र रचा जा रहा है और जिस तरह जमीनी कहानियों को सामान्य भाषा और कमजोर शिल्प बताकर खारिज किया जा रहा है, जिस तरह कहानी की सकारात्मक परंपरा को हाशिये पर ढकेलने का काम किया जा रहा है, वह साहित्य के लिए खतरनाक तो है ही, पूरे रचनाक्रम को दक्षिणपंथी रुझानों में संतृप्त करने का प्रयास भी दिखता है । बस इसी हद तक कुछ बहु उछालू कथाकारों में नयापन दिखता है । साहित्य मात्र शब्दों की जुगाली नही है । अगर है तो प्रेमचंद अब तक भुला दिये गये होते । आज कहानी प्रेमचंद की शिल्प और भाषा से बेशक आगे निकल गर्इ हो, सामाजिकता और सरोकारों के क्षेत्र में प्रेमचंद से आगे निकलना अभी भी संभव नहीं हुआ है । कहानियां पढ़ने के बाद देर तक मसितष्क में जिंदा नहीं रह पातीं
कहानी की दूसरी धारा, यथार्थवादी जमीन पर खड़ी है और उपेक्षा के तमाम हथकंडों के बावजूद अपना स्थान हासिल कर रही है । यथार्थ का लेखकीय गल्प कहानी को एकरस, उबाऊ और नीरस बनाने के बजाय संवेदनशील और विश्वसनीय बनाता है । कलावादियों के इस आरोप को कि यथार्थ से मुकित रचनात्मकता के लिए जरूरी है तभी स्वीकार्य किया जा सकता है जब मनुष्यता की बात को हवा-हवार्इ मान लिया जाये और उसको बचाने की प्रासंगिकता को खारिज किया जाये । आज पूंजी की आवारगी ने जो व्यूह रचना की है, उससे मनुष्यता का संकट और गांव का अंधकार और सघन होता जा रहा है । ऐसे में रोम के जलने पर नीरो बंशी नहीं बजा सकता । साहित्य का सामाजिक सरोकारों के इतर कोर्इ स्थार्इ स्थान नहीं हो सकता । चाहें आप इसे कितना ही पीछे ढकेलने की राजनीति कर लें, कालजयीे रचनायें वहीं होंगी जो विचारधारा और सामाजिक सरोकारों की सघन बुनावट लिये होंगी । पंचतंत्र की मिथकीय कहानियां, विशुद्ध गल्प होते हुए भी सामाजिक सरोकारों के साथ गुथी होने के कारण अमर हैं ।
समय, समाज और जिंदगी के दुरूह पेचों को बिना विचारधारात्मक बोध के नहीं समझा जा सकता और केवल समझ ही पर्याप्त तो नहीं ? इन दुरूहता की काट और उससे निकलने की राह भी विचारधारात्मक बोध से ही संभव है । श्रंृखलाबद्ध नाभिकीय विखंड़न की असीमित ऊर्जा मानवता का संहार करती है लेकिन ग्रेफाइट की छड़ों से विखंड़न को नियंत्रित कर हम उपयोगी ऊर्जा पैदा कर लेते हैं । ठीक उसी तरह, वैचारिक दिशा, लेखकीय दायित्वबोध को नियंत्रित करती है और दायित्वबोध से उत्पन्न ऊर्जा, सामाजिक सरोकारों को स्थापित करने में मदद पहुंचाती है । जो लोग 'कला, कला के लिए का राग अलापते है वे प्रतिगामी विचारों के संरक्षण की दिशा में काम करते हैं । वैचारिक लेखन को खारिज करने वाले दरअसल खुद किसी न किसी वैचारिक तंत्र के पक्ष में खड़े होते हैं जहां उन्हें कुछ मान-सम्मान हासिल होता दिखता है और ऐसा कर के वे बहुत हद तक अराजकता के पक्ष में चले जाते हैं । गुजरात के दंगों के बारे में बहुत से साहित्यकारों के वक्तव्यों से यह बात सही भी साबित हुर्इ है । यहां मैं स्पष्ट करना चाहूंगा कि वैचारिक प्रतिबद्धता से मेरा मतलब मात्र 'कामरेड कहने वाली संस्कृति से नही है । देखने को तो प्रगतिशील लेखकों के दाहिने हाथ में भी रक्षासूत्र बंधा दिखता है । शुभ-अशुभ से पुस्तकों का लोकार्पण होता है । प्रात: सूर्य को अघ्र्य दिया जाता है । कर्मकांड़ों पर जान निछावर की जाती है और उस पर तुर्रा यह कि वे समाज को सही रास्ता बताने वाले जीव हैं । विचारधारा खेमेबंदी जैसी चीज भी नहीं है जहां पाँव छुआकर शिष्यत्व प्रदान किया जाये तथा खराब से खराब रचना को विभिन्न कोणों से जाँच-परख कर अदभुत चमत्कार पैदा कर दिया जाये । विचारधारात्मक बोध संवेदनात्मक बोध को सघन बनाने का हथियार है और जिंदगी की समझ को मजबूत बनाने का भी।
मनुष्य-मुनष्य के बीच बनने वाले सभी संबंध, आर्थिक और सामाजिक होते हैं । आर्थिक और सामाजिक संबंध, सामाजिक परिवेश का निर्माण करते हैं । मुनष्य के अंदर मनुष्यता और सामाजिक असिमता के बीज बोते हैं । फिर मनुष्य, मनुष्यता और सामाजिक असिमता की रक्षा के लिए अपने सभी औजारों का उपयोग करता है । उन्हीं में से साहित्य भी एक औजार है । ऐसी सिथति में साहित्य को सामाजिकता से अलग नहीं किया जा सकता । संभव है साहित्य कोर्इ क्रांति न कर पाए, पर जब भी कोर्इ क्रांति या बदलाव होगा, वहां साहित्य बेहतर दिशा या राह दिखाने को मौजूद रहेगा । समाज, संवेदना और साहित्य की अनिवार्यता बनी रहेगी ।

सुभाष चन्द्र कुशवाहा
सृजन
बी 4140 विशालखंड
गोमतीनगर, लखनऊ 226010

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