रविवार, 1 अगस्त 2010

ऊंच-नीच की पाठशाला

ऊंच-नीच की पाठशाला
प्रयोग-दर प्रयोग, नीति और अनीति, मिड-डे-मील और राजनीति के चलते उत्तर प्रदेश की प्राथमिक शिक्षा सड़ चुकी है और अब उसकी सड़ांध से होकर बह रही है जातिवाद, छुआछूत की बयार । समता, समानता और बंधुत्व को बढ़ावा देने वाले भारतीय संविधान को आत्मसात किए साठ साल बीत चुके हैं । यद्यपि कि विगत साठ सालों में जाति आधारित जनगणना नही हुई है फिर भी जातिवादी घृणा और अमानवीयता में कोई बदलाव नही आया है । जाति जनगणना से जातिवादी मानसिकता बढ़ने का मर्सिया पढ़ने वाले, उत्तर प्रदेश के प्राथमिक पाठशालाओं में मिड-डे-मील में दलित महिलाओं द्वारा तैयार भोजन को खाने से इनकार करने वाले समाज के कुलीन तबके के जेहादी आचरण पर मौन हैं । जहां बंधुत्व, राष्ट्रप्रेम और इंसानियत का पाठ पढ़ाया जाना चाहिए था वहां ऊंच-नीच का पाठ पढ़ाया जा रहा है । अध्यापकों का यह आचरण चिन्ता का विषय है । प्रधानाध्यापक से लेकर गांव के अन्य सवर्णों द्वारा दलितों के खिलाफ जो आचरण अपनाया जा रहा है, उसके खिलाफ समाज और प्रशासन की चुप्पी, जातिवादी मानसिकता के दोगले चरित्र को उजागर करती है । न केवल सवर्ण अपितु कुछ पिछड़े और दलित भी जातिवादी मानसिकता से बुरी तरह ग्रस्त हैं । यही है जातिवादी हिन्दू समाज की बुनियादी जड़ । यह जड़ जनगणना से न तो गहरी होने वाली है और न जनगणना न होने से उखड़ने वाली । ब्राह्मणवाद ने अपनी सर्वोच्चता बनाये रखने के लिए इसकी जड़े, इतनी पुख्ता कर दी हैं कि बिना उनकी मर्जी से इसे हिलाया नहीं जा सकता । तभी तो दलित चेतना के उभार के बावजूद तमाम दलित और पिछड़े उनके भुलावे में आकर जातिवाद को सींच रहे हैं ।
बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर की धर्मपत्नी रमाबाई के नाम पर कानपुर देहात जिले का नामकरण `रमाबाई नगर´ भले हो गया हो, दलितों की अस्मिता की रक्षा अभी दूर की कौड़ी बनी हुई है । यहां के प्राथमिक पाठशाला भवानीदीन पुरवा की दलित रसोइया रेखा बाल्मीकि द्वारा तैयार खाना न तो प्रधानाध्यापक सुन्दर लाल त्रिपाठी द्वारा खाया गया और न किसी बच्चों को खाने दिया गया । उल्टे गांव वालों को बटोर कर स्कूल में पत्थरबाजी कराई गई । प्रधानाध्यापक कहता रहा कि वह नब्बे दिन का व्रत रख लेगा पर दलित महिला द्वारा बनाया खाना न चखेगा । रेखा को चेतावनी मिली कि जुबान खोला तो गांव से निकाल दिया जायेगा । तनख्वाह लेना है, लो, पर खाना न बनाओ । बेसिक शिक्षा अधिकारी का कहना है कि शासन की नीति के अनुसार ही दलित महिला द्वारा खाना बनवाया गया पर लोगों को यह स्वीकार्य नहीं तो वह दलित रसोइये से कोई दूसरा कार्य करा लेंगे । ऐसी निरीहता, ऐसी बेचारगी पर भला क्या कहना ? कहां गई संविधान प्रदत्त समानता का अधिकार ? और यह चौधराहट तब है जब प्रदेश की सत्ता सवर्णों के हाथ में नही है ।
क्या यह सही नही है कि ब्राह्मणवाद द्वारा रोपी गई जातिवादी मानसिकता से मुकाबला करने की ताकत न तो शासन में है, न दलित समाज इस कुचक्र को ठीक से समझ पाया है । दलित समाज में भी ऊंच-नीच के तमाम स्तर ज़िन्दा हैं । अन्यथा उन्नाव जनपद के रानीपुर में पासी जाति के रसोइये के हाथ का बना खाना अन्य दलित संवर्ग के बच्चों ने खाने से इनकार न किया होता । एक दूसरा प्रकरण रमाबाई नगर के ब्लाक डेरापुर के गांव कपासी खुर्द का है । वहां गांव के अनुसूचित जाति के अध्यापक ने अपनी सास को रसोइया बनाना चाहा । प्रधान ने तुरुप का पत्ता चलते हुए वाल्मीकि महिला को रसोइया नियुक्त कर दिया । बस क्या था, बाल्मीकि महिला के हाथ का खाना कुंवरलाल संखवार के लड़के के अलावा अन्य दलित और सवर्ण बच्चों ने नहीं खाया । महोबा जनपद के लुहेड़ी गांव के पूर्व माध्यमिक विद्यालय के छात्रों ने भी दलित रसोइये के हाथ का बना खाना खाने से साफ इनकार कर दिया है । लखनऊ के करीब स्थित मोहनलालगंज में भी ऐसा ही मामला प्रकाश में आया है । कन्नौज, शाहजहांपुर, बरेली आदि जिलों से भी ऐसे ही समाचार मिल रहे हैं ।
छूआछूत की इन पाठशालाओं में ऊंच-नीच की ऐसी लकीरें अपने आप नहीं खिंची हैं । इन्हें ब्राह्मणवादी मानसिकता के अध्यापकों ने अबोध मस्तिष्क रुपी श्यामपट पर अपने हाथों से गहरी की हैं । अध्यापकों ने अभिभावकों में अस्पृष्यता की ऐसी आग दहकाई जो धीरे-धीरे तमाम विद्यालयों में फैलती जा रही है । हमारे बुद्धिजीवी कहते हैं कि जातिगणना से समाज बिखर जायेगा, जातिवाद बढ़ेगा । गोया समाज अब तक एक है ? अभी तो जाति आधारित जनगणना हुई ही नहीं, फिर मिड-डे-मील बनाने वाली दलित रसोइये के विरूद्ध जहर किसने घोला ? क्या यह दलित और पिछड़ों की राजनीति का परिणाम है या ब्राह्मणवाद द्वारा रोपे गए जातिवादी नफरत का ? यह ब्राह्मणवाद ही है जो मनुष्य को इतना घृणित मान लेता है कि उसका छुआ स्वीकार्य नहीं करता और पशुओं को माता/पिता की तरह पूजता है । फिर ऐसे धर्म में मनुष्यता के बीज ढ़ूंढना ढ़ोंग नहीं तो क्या है ? अजीब बिडंबना है कि लगभग बर्बाद हो चुके प्रदेश के प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ाई, खाने की गुणवत्ता या साफ-सफाई की बात नहीं उठाई जा रही है । व्रत करने वाले ढ़ोंगी प्रधानाध्यापक द्वारा आए दिन गैरहाजिर रहने, अपने खेतों, दुकानों में काम करने पर भी सवाल नहीं उठाया जा रहा है । बात महज यह उठाई जा रही है कि इन शिक्षा केन्द्रों में तैनात एक कर्मचारी को इतना घृणित मान लिया जा रहा है कि उसके द्वारा तैयार खाना, खाने योग्य नहीं ? कहां हैं शबरी के मीठे फल या विदुर का साग खाने का दृष्टान्त देने वाले ? कहां हैं दलित वोटों के लिए दलित सम्मान की रक्षा की बात करने वाले ?
हिन्दू समाज की सम्पूर्ण सामाजिकता, आर्थिक और प्रबंधकीय व्यवस्था ऐसे ही जातिवादी मानसिकता पर आधारित रही है । यहां कभी भी योग्यता या कर्म के आधार पर समाज को सम्मान नहीं मिला है । यहां आर्थिक से ज्यादा कुलीनतावाद या वर्चस्ववाद का सिद्धान्त प्रभावी रहा है । यहां चुनाव और वर्चस्ववाद एक दूसरे के पर्याय रहे हैं । लिहाजा हिन्दी प्रदेशों में ज्यादातर पार्टियां चुनावों में जातिवादी समीकरणों के सहारे वर्चस्ववाद को स्थापित करती हैं । यह कोई आश्चर्य का विषय भी नहीं है । जिस समाज का सम्पूर्ण ढ़ांचा जातिवादी हो, वहां की राजनीति जातिवाद विहिन कैसे हो सकती है ? हिन्दी प्रदेशों में जातिवाद के विरूद्ध कभी भी कोई जन आन्दोलन नहीं छेड़ा गया जैसा कि 19वीं सदी में पश्चिम बंगाल में `ब्रह्म समाज´ के माध्यम से किया गया था । जाति आधारित जनगणना पर हाय-तौबा मचाने वाले, मनुष्यता विरोधी जातिवाद के विरूद्ध कोई आन्दोलन नहीं खड़ा करना चाहते । दरअसल उनका जातिवाद विरोध का नाटक, आरक्षण विरोध की मानसिकता से जुड़ा हुआ है । उनका जातिवाद विरोध, दलितों और पिछड़ों को शासन, प्रशासन में मिले स्थान के प्रतिकार के रूप में है । जिस समाज में गिनीज बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड में एक से एक बेहूदे आंकड़े हों, वहां जातियों के आंकड़े से भूचाल आया हुआ है । तमाम लेखक भी इसकी निन्दा में जुटे हैं । गोया जाति गणना हुई तो सब कुछ खत्म । पर नब्बे दिन तक व्रतधारण करने की धमकी देने वालों के खिलाफ कोई आन्दोलन नहीं उठ खड़ा हो रहा ।
भारतीय जातिव्यस्था के केन्द्र में सबसे ज्यादा उपेक्षित, प्रताड़ित और घृणित दलितवर्ग रहा है । पिछड़ी जातियों को हासिल कुछ रियायतों के बावजूद, वर्णवादियों द्वारा उन्हें भी उसी प्रकार उपेक्षित और प्रताड़ित किया जाता रहा है जिस प्रकार दलितों को । इस प्रताड़ना को झेलने के बावजूद, जातिवाद की पीड़ा भोगने वाली पिछड़ी जातियों की स्थिति बड़ी ढुलमुल रही है । एक ओर तो वे जातिवाद की प्रताड़ना से आहत दिखती हैं, तो दूसरी ओर दलितों को प्रताड़ित या अपमानित करने के अवसर से चूकती नहीं । जीवन-मरण, शादी-व्याह के अवसर पर दलितों को खिलानें, या मृतक पशुओं को फेंकवाने में जो नज़रिया सवर्ण रखते हैं, वही नज़रिया पिछड़ी जातियां भी रखती हैं । शायद इसलिए जातिवाद के खिलाफ दलितों और पिछड़ों की व्यापक गोलबन्दी अभी तक नहीं बन पाई है और दलित रसोइये द्वारा पकाये मिड-डे-मील को खाने से नकारने में सवर्णों के साथ पिछड़े भी आ जाते हैं ।
जातिवादी मानसिकता ने समाज की समरसता तोड़ी है । ऊंची जातियों द्वारा आज भी दलितों की बस्तियों में आग लगाई जाती है तथा उनकी बहू-बेटियों की इज्जत लूटी जाती है । जाहिर है ऐसे अपमान झेलने वाले दलित, अपना भविष्य दलितवादी पार्टियों में सुरक्षित समझने लगते हैं भले ही दृष्टिहीन दलितवादी पार्टियों से उनका भला न होता हो और जातिवादी दंश पीढ़ी-दर-पीढ़ी उन्हें अभिशप्त किए रहता है । ब्राह्मणवाद ऐसी दलितवादी राजनीति को एक हद तक स्वीकार भी कर लेता है । कभी-कभी ऊंच-नीच की दीवार पर परदा भी लगाता दिखता है और बाद में दलितों के तेवर को तोड़ते हुए पुन: अपनी अधीनता में ले लेता है । ब्राह्मणवाद कभी भी जातिवाद को समाप्त नहीं करना चाहता । जातिवाद समाप्त होते ही ब्राह्मणवाद समाप्त हो जायेगा । जातिवादी हथियार के बल पर ही उसने हिन्दू समाज पर लम्बे समय तक राज किया है । लम्बे समय से शिक्षा, ज्ञान और समृद्धि पर एकाधिकार बनाए रखा है और सदियों से वंचित वर्ग को आरक्षण द्वारा कुछ लाभ मिला है तो वह खुली प्रतियोगिता में उतरने की चुनौती दे रहा है या जातिवाद का मर्सिया पढ़ रहा है ।
वर्णवादियों द्वारा आरोप लगाया जाता है कि देश में जातिवाद का फैलाव 1990 के पहले नहीं था । सच्चाई यह है कि नब्बे के पूर्व का जातिवाद छद्म और एकतरफा था । तब प्रतिरोध के स्वर नहीं थे । सवर्ण जातियों के जुल्म को दलित जातियां चुपचाप सह लेती थीं । उनके अन्दर संचित आक्रोश को भुनाने के लिए नब्बे के बाद दलितों और पिछड़ों के नाम पर कुछ पार्टियां सक्रिय हुईं । यद्यपि कि उनके दृष्टिकोण बहुत हद तक साफ और वैज्ञानिक नहीं थे तथापि उन्होंने पूर्व के पिछलग्गूपन से मुक्ति की बात उठाकर नए समीकरणों को जन्म दिया । उन्हें सत्ता हासिल हुई । जिसके प्रतिक्रिया स्वरूप यह प्रचारित किया जाता है कि नब्बे के बाद जातिवाद का फैलाव अधिक हुआ ।
दलित रसोइये द्वारा पकाये भोजन को लेकर बखेड़ा करने के पीछे एक दूसरा घृणित अर्थशास्त्र भी है । जिन पाठशालाओं में मिड-डे-मील खिलाया जाता है वहां मात्र गरीबों के बच्चे खाने और छात्रवृत्ति प्राप्त करने जाते हैं । इन पाठशालाओं में जितने बच्चों के नाम दर्ज हैं, उसके पांचवें भाग के बराबर ही बच्चे मिड-डे-मील खाने आते हैं । अधिक से अधिक बच्चों के नाम इसलिए दर्ज करा दिए जाते हैं जिससे ज्यादा राशन, ज्यादा सरकारी धन मिल सके और उसका सदुपयोग इस तन्त्र के तमाम पायदानों से लेकर प्रधान और प्रधानाध्यापक तक कर सकें । बच्चों की अधिक संख्या दिखाकर ही तो मिड-डे-मील योजना की सफलता के डंके पीटे जाते हैं । जबकि हकीकत यह है कि एक बच्चे का नाम दो-दो सरकारी पाठशालाओं में दर्ज हैं और वह पढ़ने जाता है गांव के निजी पाठशाला में । प्रधान और प्रधानाध्यापक को इन बच्चों के अभिभावक सहयोग इसलिए करते हैं जिससे उनके बच्चे को मुफ्त में प्रत्येक पाठशाला से तीन सौ रुपए वार्षिक छात्रवृत्ति मिलती रहे । यानी कि एक बच्चे का नाम दो प्राथमिक पाठशालाओं में दर्ज होगा तो दोनों जगहों से कुल छ: सौ रुपए वार्षिक छात्रवृत्ति मिल जायेगी । दलित रसोइये द्वारा पके खाने को अपवित्र बता कर बच्चों को न खाने की प्रेरणा देने वाले गुरूजी, मिड-डे-मील का राशन बचा कर बाजारों में बेच लेंगे । दलित के हाथ का बना मिड-डे-मील से परहेज के कारण न तो बच्चे पढ़ने आयेंगे न गुरुजी को पढ़ाने आना पड़ेगा । वेतन मुफ्त में मिलेगा ही । ऊपर से विद्यालय भवन निर्माण की ठेकेदारी से लाभ ही लाभ है । गुरुजी के घर पैसा बरसेगा तो ऊपर वालों को साधने में कठिनाई न होगी । कुल मिलाकर समाज में जातिवादी एड्स ऐसे ही वर्णवादी गुरूओं द्वारा बांटा और बढ़ाया गया है जो शुरू से ही बच्चों के मस्तिष्क में ऊंच-नीच की भावना भर देते हैं । जिन बच्चों को क, ख, ग... नहीं आता उन्हें जातिवादी घृणा का पाठ पढ़ा दिया जाता है । तभी तो औरैया के प्राथमिक पाठशाला भाऊपुर फंफूद की कक्षा तीन की छात्रा मनोरमा कहती है -` पापा ने कहा है कि नीची जाति के हाथ का बना खाना नहीं खाना ।´ ऐसा है सवर्णवाद का अमानवीय और क्रूर चेहरा । सवर्णवाद के आगे नतमस्तक दिखते प्रशासन ने आखिर कार दलित रसोइया तैनात करने की अनिवार्यता समाप्त कर दी है ।
आज दलित के हाथ का बना खाना न खाने के लिए एक सवर्ण प्रधानाध्यापक नब्बे दिन तक व्रत लेने की बात कहता है तो हमें जातिवादी मिजाज में रत्ती भर न हुए बदलाव को आसानी से समझा लेना चाहिए । मिड-डे-मील जैसी योजनाएं दरअसल दलितों का भला करने के बजाय शैक्षिक और सामाजिक रूप से बर्बाद कर रही हैं । उनके आगे बढ़ने के रास्तों पर अवरोध खड़ा कर, कुंठित और अपमानित कर रही हैं तथा गांव की चहारदीवारी से बाहर जाने से रोक रही हैं । इक्वीसवीं सदी की दहलीज पर खड़ा भारत का पढ़ा-लिखा तबका जातिवादी मानसिकता से उबरने के बजाय, इसमें धंसता जा रहा है । पंजाब, हरियाणा जैसे समृद्ध राज्यों में दलित महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार हो रहे हैं और पानी मांगने पर पेशाब पिलाया जा रहा है । तब हैवानियत की हद तक पहुंच चुके इस इंटरनेटयुक्त समाज में जाति विहिन राजनीति की फिलहाल कल्पना नहीं की जा सकती । मनुष्यता धर्म से ऊपर है, यह स्वीकार किये बिना ऐसी मानसिकता से मुक्ति सम्भव नहीं है । राजनीति तो जातिवाद को संरक्षित और फलने-फूलने का अवसर देती ही रहेगी क्योंकि उसने भारतीय समाज को विखण्डित कर सत्ता हासिल करने की संस्कृति इतिहास से सीखी है ।

सुभाष चन्द्र कुशवाहा
`सृजन´
बी-4/140 विशाल खंड़
गोमतीनगर, लखनऊ -226010