शुक्रवार, 24 दिसंबर 2010

फरी,फरुवाही या अहीरऊ और पंवरिया नृत्य

अपने आरम्भिक काल से ही अहीर एक जुझारू और घुमन्तू जाति रही है । जिसका मूल पेशा पशुपालन और चरवाही रहा है । पहाड़ी क्षेत्रों के गूजरों की जीवन शैली की तरह अहीरों ने भी आरम्भिक काल में पशुओं को चराने तथा गांव-क्षेत्र की सीमाओं को लांघने का काम किया। पशुचारण के कारण भाग-दौड़, उछल-कूद, पहलवानी और लाठी चलाने जैसे श्रमशील कार्य इन्हें करने पड़े । श्रम की प्रकृति ने इनकी जीवन संरचना और मनोरंजन के तत्वों का निर्धारण किया । यद्यपि कि हर क्षेत्र के अहीरों (यादवों) का काम पशुचारण ही रहा फिर भी स्थान विशेष की प्रवृत्तियों की भिन्नता के कारण छत्तीसगढ़ी यादवों में जन्मा `राउत नाच´ की शैली, भोजपुरी क्षेत्र के यादवों में न आ सकी । यहां नृत्य की दो प्रकार की शैलियां जन्मीं : जांघिया नृत्य और फरी या फरुवाही नृत्य । इन दोनों ही शैलियों में गायकी के रूप में मूलत: बिरहा को ही अपनाया गया । इस प्रकार बिरहा विशुद्ध रूप से अहीरों का गीत है तथा जांघिया और फरी अहीरऊ नृत्य । जांघिया और फरी, दोनों नृत्यों में कलाकारों की कद-काठी की मजबूती, पांवों की चपलता देखते ही बनती है । जांघिया नृत्य में जांघ पर जांघिया पहना जाता है जिसमें टांके गए घुंघरू, कदमतालों, मृदंग/नक्कारा (नगड़िया और टिमुकी) की आवाज पर लयबद्ध हो कर मन और शरीर दोनों को झंकृत कर देते हैं । मुख्य गायक के साथ कोरस गायकों की टीम और नृत्यकारों की चपलता श्रोताओं को मुग्ध कर देती है ।
फरी भी मूलत: अहीर वर्ग का ही नृत्य है । इसमें नक्कारा (नगड़िया और टिमुकी) का प्रयोग तो होता ही है, लोहे के वजनी फालों (फार) का भी प्रयोग वाद्ययन्त्र के रूप में अद्भुत ढ़ंग से किया जाता है । दो फार एक-एक हथेली में होते हैं जो आपस में इस प्रकार टकरा कर बजाये जाते हैं कि श्रोता झंकृत हो जाए । इसलिए इसे फरी या फरुवाही नृत्य कहते हैं । यहां यह भी स्पष्ट कर देना होगा कि फरी नृत्य में घुंघरू, फार, नक्कारा के अलावा करताल का भी प्रयोग किया जाता है । नृत्यकार एक हाथ में करताल बजाते हैं । इस नृत्य में कलाकार उछलते-कूदते, नाचते दूर तक चले जाते हैं और नक्कारे की आवाज पर कदमों की चाल बदलते हुए लौट आते हैं । कभी-कभी जमीन पर तरह-तरह के करतब भी दिखाते हैं । दरअसल फरी नृत्य के भी दो भाग होते हैं । प्रथम भाग में टीम के सदस्य लोहे के फारों को बजाते हुए बिरहा गायकी करते हैं और नक्कारे की बदलती ध्वनियों पर कदम ताल धीमा और तेज कर नाचते-गाते रहते हैं । गायन की जिम्मेदारी फार बजाने वाले सदस्यों की होती है जबकि नृत्यकारों के उछलते, कूदते नृत्य करने के कारण ऐसी स्थिति नहीं होती कि वे गायकी में साथ दे सकें । उनका दम फूल चुका होता है । वे पसीने-पसीने हो जाते हैं । उनकी कमर की लचक, कदमताल और पांव में बंधे घुंघरुओं की खनक माहौल को उत्साहित कर देती है । नृत्यकार जो पुरुष परिधान में ही होते हैं, नक्कारे की ध्वनि का अनुसरण कर बराबर कदम-ताल बदलते, उछलते, नाचते रहते हैं ।
फरी नृत्य के दूसरे भाग में गायकी को रोक कर केवल नृत्य को स्थान दिया जाता है । इस अवस्था में फारों का बजाना बन्द कर दिया जाता है पर नक्कारा बजता रहता है । नक्कारे की आवाज के साथ ताल मिलाकर नृत्यकार सर्कस जैसे शारीरिक करतब भी दिखाते हैं । जैसे कि हवा में गोता लगाना, पलटी मारना, अपने शरीर पर सात से आठ लोगों को चढ़ाना या अपने ऊपर बैलगाड़ी चढ़ाना या छाती पर ईंटों को फोड़ना आदि । फरी नृत्य में इन दोनों प्रकारों का प्रयोग बारी-बारी से किया जाता है जिससे दर्शकों को विषय परिवर्तन का आनन्द मिलता रहे । दरअसल एक गीत समाप्त होने और दूसरे के प्रारंभ करने के अन्तराल में नृत्य वाले भाग को सम्मिलित कर लिया जाता है । खड़ी बिरहा (चारकड़िया बिरहा) खड़े होकर ही गाया जाता है इसलिए फरी नृत्य और गायकी के सभी सदस्य खड़े होकर ही इस विधा को प्रस्तुत करते हैं । आधुनिक बिरहा जिसे फरी नृत्य में गाया जा रहा है, चारकड़िया बिरहा (मुक्तक काव्य) और लोरकी गायकी (गाथा गायकी) का संयुक्त रूप है । बहुधा बिरहा गायकी में गाथात्मक गीत ही गाये जाते हैं । यद्यपि की फिल्मी गानों के प्रभाव के कारण बिरहा गायकी में कुछ परिवर्तन देखने को मिलता है तथा फरी गायक कई बार लोक प्रचलित भोजपुरी गानों को भी अपनी गायकी में प्रयोग करने लगे हैं तथापि बिरहा कथात्मक गीत ही होते हैं ये किसी न किसी कहानी पर आधारित होते हैं । इनमें पौराणिक, ऐतिहासिक और दूसरे चमत्कारिक कथाओं को भी स्थान दे दिया जाता है । अधिकांश बिरहा गायक धार्मिक प्रसंगों को प्रमुखता से गाते हैं । बिरहा गायकी के बारे में `लोकरंग-1´ पुस्तक में विस्तार से सामग्री दी गई है । लोकरंग सांस्कृतिक समिति, जोगिया जनूबी पट्टी, फाजिलनगर, कुशीनगर, बी 4/140 विशालखण्ड, गोमतीनगर, लखनऊ 226010 फरी नृत्य को संवर्द्धित करने में लगी हुई है ।


पंवरिया नृत्य
पूर्वांचल का गंवई समाज अपने रहन-सहन, खान-पान, वेश-भूषा और संस्कृति के माध्यम से सदियों से समाज के साम्प्रदायिक विभाजन को नकारता रहा है । आज के तथाकथित आधुनिक समाज को भले विश्वास न हो पर हकीकत यह है कि पूर्वांचल के तमाम त्यौहार हिन्दू और मुसलमान मिलजुल कर मनाते रहे हैं । मुहर्रम में हिन्दू झारी गाते हैं, गटका खेलते हैं, ताजिया बनाते और ढोते हैं । किसी मुसलमान भाई के यहां महलूद होने पर उसमें शरीक होते हैं और बताशा खाकर लौटते हैं । उसी प्रकार मुसलमान भाई होली-दीवाली साथ मनाते हैं । कीर्तनों में आते-जाते हैं । हिन्दुओं की शादी में मुसलमान नाऊ की भूमिका सदियों से हैं । वे निमन्त्रण बांटते हैं । शादी कराते हैं और पण्डित से नोकझोंक कर अपना नेग वसूलते हैं । उसी प्रकार लोक गायकी की पंवरिया परंपरा भी अदृभुत सांस्कृतिक एकता की मिशाल रही है । पंवरिया गायक गरीब मुसलमान होते हैं, जो सदियों से अपने पंवारे और सोहर गायकी से जनता के द्वार पर बधाई देने आते रहे हैं । रामजन्म और कृष्णजन्म की गाथा गायकी के अलावा तमाम पौराणिक गाथाओं को भी इनकी गायकी में स्थान मिला हुआ है । पुत्र प्राप्ति के अवसर पर हिजड़ों द्वारा बधाई देने की परंपरा से अलग पंवरिया गायकों द्वारा बधाई देने की परम्परा रही है जो तुतुही और ढोलक बजाकर अपने चुहलपन द्वारा समाज का मनोरंजन करती रही है ।
घंटों चलने वाले पंवारों में किसी न किसी नायक की गाथा को कई-कई घंटे तक गाते हुए ये गायक पूरा महाकाव्य सुना डालते हैं । शायद लोकगाथाओं के विस्तार के कारण ही यह मुहावरा चल पड़ा होगा कि - पंवारा मत सुनाइये। प्रारंभ में पंवरिया संपन्न लोगों के यहां अपनी गायकी प्रस्तुत कर सोना, चान्दी, सेरवानी या अन्य महंगे वस्त्रों को इनाम स्वरूप पाते थे । सेरवानी को ये अपना पोशाक बना लेते, कंधे पर कोई साड़ी, पैरों में घुंघरू और हाथ में तुतुही को रगड़ कर स्वर देते कलाकार आज उपेक्षित हैं और यह परंपरा समाप्त होने के कगार पर पंहुच चुकी है । तुतुही एकतारा और सारंगी का मिलाजुला सरलीकृत वाद्य यन्त्र है जिसे लोक कलाकार आसानी से तैयार कर लेते है । कोरस गायकों की टीम बैठी रहती है जबकि मुख्य गायक खड़ा होकर, नाचते हुए गाता है । कई बार इनकी गायकी में दुखान्त गीतों /पंवारों को स्थान मिलता है । बंध्या स्त्री की पीड़ा को व्यक्त करने वाला एक अत्यन्त कारुणिक गीत `लोकरंग-1´ पुस्तक में प्रकाशित किया गया है । जिस घर पंवरिया गायक पंहुचते हैं, उस घर की स्त्रियां उनके ढोलक को सिन्दूर से टीकती हैं । उसके बाद ही पंवरिया अपनी गायकी को अंजाम देते हैं । पंवरिया गायकी में तमाम ऐसे गीत मिलते हैं जिनमें हिन्दू और मुसलमान संस्कृतियां एकाकार हो गई हैं । यह खेद का विषय है कि ऐसी संस्कृति जो समाज को जोड़ने वाली है, को बचाने का कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है जबकि तमाम लंपट अपसंस्कृतियां निर्भय हो, फल-फूल रही हैं ।
सुभाष चन्द्र कुशवाहा

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