रविवार, 28 अगस्त 2011

कहीं व्यवस्था के पक्ष में न चला जाये अन्ना आंदोलन


सोवियत संघ के पतन को, पूंजी के समान वितरण जैसे दर्शन का पतन मान कर, महाशक्तियों द्वारा दुनिया में आधिपत्य स्थापित करने के तौर-तरीकों में बदलाव लाया गया । देखते ही देखते पूंजी ने अपने आधिपत्य के लिये खुली अर्थव्यवस्था को धिनौना हथियार बनाया । उसने विकाशसील देशों को एक साथ आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से लकवा ग्रस्त बनाने की कुचक्र रचा तथा प्रतिकार के जनपक्षधर औजारों को अप्रांसंगिक तथा भोथरा बनाया । भारत में जिस तरह उदारीकरण के प्रति अंधभक्ति दिखाई गई, जिस तरह सत्ता के दम पर संविधान की सार्वभौमिकता को नष्ट करते हुये महाशक्तियों या बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित में कानून बनाये गये, उससे न केवल भ्रष्टाचार स्वच्छन्द हुआ अपितु सार्वभौमिक भी हुआ । बाजारवाद ने भ्रष्ट्राचार को व्यापक, स्वीकार्य, बनाने में एन0जी0ओ0 का सहारा लिया । एन0जी0ओ0का आगमन, वैचारिक प्रतिबद्धता के घलमेल का कारण बना । वैचारिक प्रतिबद्धता की कमजोरी ने निराशा का वातावरण पैदा किया और संघर्षशील शक्तियों को उनके मूल रास्ते से भटकाया । कुछ ही वर्षों में एन0जी0ओ0 ने जनपक्षधरता का जामा पहन, संघर्ष की वास्तविक जमीन पर कब्जा जमा लिया । यह विडंबना ही है कि भ्रष्टाचार रूपी वायरस को जिन एन0जी0ओ0 ने देशी-विदेशी सत्ता से दलाली और साठ-गंाठ कर फैलाने में साथ दिया वे ही भ्रष्टाचार के विरूद्ध कारगर लड़ाई लड़ने का छद्म रच रहे हैं ।
दुनिया से वैचारिक जनान्दोलनों की हवा निकालने में जनपक्षधर मुखौटे के एन0जी0ओ0 ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है । मोटे तौर पर एन0जी0ओ0 का आगमन समाज को सुधारने-संवारने के लिये नहीं, अतिरेक पूंजी के बंटवारे, उसके हितपोषकों को जनपक्षधर दिखाने या लोकहितकारी बताने के उद्देश्य से हुआ । महाशक्तियों की उदंड पुंजी ने खुली अर्थव्यवस्था का ऐसा व्योमोह रचा कि बड़े-बड़े वामपंथी, चिंतक भुलावे में आये और कहीं-कहीं तो गुणगान करते नजर आये । कुछ जमीनी संघष्र से कट कर एन0जी0ओ0 की ओर सरक गये और कुछ ने वैचारिक संघर्ष के रास्ते को बंद कर यथास्थितिवाद को स्वीकार कर लिया । आज भ्रष्टाचार मुहिम को गैर वैचारिक लोगों द्वारा नेतृत्व देने के पीछे यही कारण है । वैचारिक स्पष्टता के बिना भी इस मुहिम को व्यापक समर्थन मिलने के पीछे खुली अर्थव्यवस्था की वह दरिंदगी है जो अपनों को निगलने से भी परहेज नहीं कर रही है । वैश्विक दबाव इतना है कि सरकारें निम्न और मध्यम वर्ग की भावनाओं से परे काम कर रही हैं । सत्ता सिंघासन पर बैठे लोग विदेशी भाषा, संस्कृति, अर्थनीति और राजनीति से चंद लोगों का हितपोषण कर रहे हैं । लेकिन जब माॅल कल्चर के लुभावने तुरूपों और के0एफ0सी0 के लजीज व्यंजनों के सहारे मध्यम वर्ग को फांसने के हथियार नकारे साबित हो रहे हैं तो वे सड़कों पर उतरने को बेचैन दिख रहे हैं और अन्ना उनके माध्यम बनते हैं ।
आज भारत का मध्यम वर्ग वैश्विक स्वप्नलोक में जीते हुये, उस देशीय लूट को जो उसके हिस्से में आने के बजाय विदेशों में चला जा रहा है देख आंदोलित है तो आश्चर्य की बात नहीं होनी चाहिये । उदारीकरण की लूट, झूठ और फूट तंत्र से दुनिया कराह रही है । ऊंच-नीच की खाइयां बढ़ रही हैं । यह बात मध्य-पूर्व के देशों से लेकर भारत में दिखाई देने लगी है । लंदन के दंगों, ट्यूनीशिया और मध्य-पूर्व के हिलते निजामों, मिस्त्र, अल्जीरिया, सीरिया, सूडान में धधकते जनांदोलनों की आग स्वतः स्फूर्त तो है पर इसका कारण उदारीकरण के गर्भ में छुपा है । नव उदारवादी, पूंजीवादी नीतियों और शासकों के जनतंत्र विरोधी नीतियों से त्रस्त जनता प्रतिरोध के रास्ते पर बढ़ती नजर आ रही है । ये वो लोग हैं जो समान्यतया अपनी दिनचर्या में मशगूल रहते आये हैं और कभी-कभी नवउदारवादी पूंजीवादी छलावे पर इतराते भी रहे हैं । आज वे उस छलावे की असलियत देख रहे हैं । वे इस उदारवादी लूट की अनैतिकता और अमानवीयता से विचलित हो गये हैं । अपने स्वार्थ के लिए हर कुकृत्य को जायज ठहराने वाले तंत्र की नंगई देख रहे हैं । तभी तो वे इस सड़ांध से उठने वाले धुएं को देख आग धधकाने की तमन्ना लिए बढ़े चले आ रहे हैं ।
आज विश्व के तमाम निजामों के लिये राहत भरी बात यह है कि स्वतः स्फूर्त आंदोलनों को वैचारिक दिशा नहीं मिल पा रही । वामपंथियों में बिखराव और भटकाव है और मैकडानल्ड का बर्गर खाये युवाओं में वामपंथ से दुराव भी । ऐसा नहीं होता तो आज भ्रष्टाचार मुक्ति के साथ पूरी दुनिया, आतताई खुली अर्थव्यवस्था से मुक्ति की लड़ाई लड़़ती ।

हमें इस तथ्य को स्वीकार करना चाहिये कि धरती पर सृष्टि के समय से ही अन्याय की सत्ता ज्यादा मजबूत रही है और न्याय की कम । न्याय एक सापेक्ष और परिकल्पित शब्द है । ऊंच-नीच और गैरबराबरी के समाज में न्याय, छलावे के सिवा कुछ नहीं होता और अन्याय की सत्तायें बिना भ्रष्टाचार की खड़ी नहीं होतीं । संभव है आज आर्थिक भ्रष्टाचार का कदाचार शहरी मध्यम वर्ग को इतना जकड़ा हुआ है कि वे उन तमाम भ्रष्टाचार को भ्रष्टाचार मानने को तैयार नहीं हैं जो परोक्ष रूप से व्यापक और कमजोर समाज को प्रभावित कर रहा है । मसलन कि दोहरी शिक्षा नीति की बुनियाद रखने का खेल किसी भ्रष्टाचार से कम है ? आज जिन निजी स्कूली बच्चों के हाथों में अन्ना आंदोलन की तख्तीयां हैं, सिर पर सफेद टोपी हैं और जो चमचमाते स्कूली पहनावे में सड़कों पर दिखाई दे रहे हैं उनके कारण देश के करोड़ों बच्चों के हिस्से में मात्र मिड-डे-मील का भुलावा है । गरीब बच्चे सर्व शिक्षा अभियान के नाम पर कुछ अनुदान, कुछ राहत और नाम लिखना सीख नरेगा मजदूर से आगे नहीं बन पा रहे हैं और संपन्न तबकों के हिस्से में चिकित्सा, इंजिनीयरिंग, प्रबंधन से लेकर तमाम क्षेत्रों की सीटें आरक्षित कर दी जाती हैं । उच्च शिक्षा क्षेत्रों को नकारा साबित करने और विदेशी विश्वविद्यालयों के आगमन के औचित्य को सही बताने के लिये माध्यमिक कालेजों से लेकर विश्वविद्यालयों में अध्यापकों का अकाल पैदा कर दिया जाता है । बाहर से भव्य दिख रहे उच्च शिक्षण संस्थान अंदर से खोखले कर दिये गये हैं और और दूसरे तरीकों मसलन सीट कटौती, फीस बढ़ोत्तरी और पुस्तकालयों की कमी से गरीबों की सरकारी शिक्षण संस्थानों से बेदखली की जा रही है । चिकित्सा क्षेत्र का आलम यह है कि सरकारी अस्पतालों के नाम पर सिर्फ भवन बचे हैं और चिकित्सा के नाम एकाध सर्दी,बुखार की गोलियां । जिनके जेब में पैसा है वे तो पंच सितारा अस्पतालों में काया कल्प करा रहे हैं और गरीबों के हिस्से में गांव के ओझा-सोखा, पीर, मजार हैं । तैंतीस वर्षों से पूर्वांचल का अभिशाप बन चुकी इंसेफेलाइटिस बीमारी से हजारों बच्चे मर चुके हैं । जुलाई से अक्टूबर तक अस्पतालों में बिस्तर नहीं मिलते । फिर भी न तो इसके लिये कोई बड़ा जनान्दोलन हुआ और न सरकारें चेतीं । दरअसल मरने वाले जब दबे-कुचले हों तब मीडिया और सरकारों के मायने बदल जाते हैं । भ्रष्टाचार की वास्तविक लड़ाई, बिना समान शिक्षा और सर्व सुलभ चिकित्सा की लड़ाई लड़े, पूरी हो सकती है ? देश के न्यायालयों में न्याय का गोरखधंधा घूस के अलावा अंग्रेजी भाषा के एकाधिकार के कारण मजबूत हुआ है । देश की अनपढ़ या अल्प शिक्षित जनता ऐसे अदालती कार्यवाहियों को समझने की कूबत नहीं रखती और न यह समझ पाती कि उसके वकील उसकी पैरवी कर रहे हैं या खिलाफत ।
दृश्य मीडिया जो आज भ्रष्टचार मुहिम में अपनी नैतिकता को सबसे ज्यादा प्रमाणित करने में जुटा है यही अंघ विशवासों को फैलाकर गरीबों को ठगने और मरने को मजबूर भी कर रहा है । दिन भर टी0वी0 चैनलों पर तमाम रक्षा कवचों, यथा रूद्राक्ष कवच, हनुमान कवच और शिव कवच, भभूत, अंगूठियों बेचने का काम तो होता है, असाध्य बीमारियों, सभी मुश्किलों, दुखों को दूर करने के पाखंड़ी उपाय बताते दिखते हैं । यानी कि पाखंडियों को महिमा मंडित करने वाला दृश्य मीडिया ही अन्ना हजारे को जबर्दस्त समर्थन देता दिख रहा है । सरकारी विज्ञापनों के लिये चाटुकारिता की हद तक गिरने वाला और माफियाओं के पैसे पर पलने वाला मीडिया स्वयं को जनपक्षधर दिखाने का स्वांग भी रचता है और मौके-बे मौके जनपक्षधरता का गला भी घोटता है । मामला सिर्फ टी0आर0पी0 का है । उसे किसी सरोकार से क्या लेना-देना ?
भ्रष्टाचार के विरूद्ध चलाई जा रही मुहिम और सशक्त लोकपाल की नियुक्ति का समर्थन करने के बावजूद हमें सतर्क दुष्टि अपनाने की जरूरत है । सिर्फ लोकपालों के सहारे भ्रष्टाचार समाप्त नहीं किया जा सकता । एकाध के विरूद्ध कार्यवाही कर कुछ सनसनी खेज समाचार बनाये जा सकते हैं । कोई भी लोकपाल वैश्विक दबाव में तैयार की जा रही सरकारी नीतियों को नहीं रोक सकता । वह दोहरी शिक्षा, चिकित्सा व्यवस्था की मार से गरीबों की हिफाजत भी नहीं कर सकता । ऐसे में इस अंादोलन के सकारात्कम पहलू को समर्थन देने के साथ-साथ उसके नेतृत्व को परम मानवीय बनाने की भूल नहीं करनी चाहिये । व्यक्ति विशेष को देवत्व प्रदान कर पूजने के अलावा और कुछ हाथ नहीं लगता । परम मानव, कुलीनतावाद को जन्म देता है जो अंततः जनविरोधी ही होता है।
अन्ना आंदोलन को मिल रही सफलता, संसदीय व्यवस्था की अनैतिकता में छिपी है । इसी अनैतिकता ने महाशक्तियों के आगे घुटने टेक कर लूट के दरवाजे खोले हैं । कुछ के लिये बहुतों को बर्बाद किया है । संसदीय प्रणाली ने जनपक्षधरता के बजाय, व्यक्तिपरकता को बढ़ावा दिया है। माफिया, गुंडे सत्ता के केन्द्र में ला दिये गये हैं । जनसामान्य के हिस्से में विकल्पहीन वोट के सिवा कुछ नहीं । संसदीय चुनाव मात्र धनबल और बाहुबल से जीते जा रहे हैं और चुन प्रतिनिधि जवाबदेही से मुक्त हो, रातोंरात करोड़़ पति हो रहे हैं । जाली डिग्रीयों, जाली नोट, जाली कंपनियों का बोलबाला है । पैसे के बल पर बाजारवाद में सब कुछ खरीदा जा सकता हैं यहां तक की इमान और न्याय भी । पैसा मनुष्य का नियंत्रक बन बैठा है और विचार निरर्थक । खुलीअर्थ व्यवस्था को स्थापित करने में ये ही कारक महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर रहे हैं । मूल्यपरक जीवन निर्माण के लिये संस्कृति, साहित्य, चैपाल, लोकसंस्कृतियों को तिलांजलि दे दी गई है और कूपमंडूपता के लिये अंधविश्वासों को मजबूत बनाया गया है ।
ऐसे में अन्ना आंदोलन को मिल रहा व्यापक जन समर्थन, वैश्विक अर्थ व्यवस्था के कारण नये मघ्यम वर्ग के अंदर पनपे हताशा, कुंठा और स्वपनलोक को हाशिल न कर पाने की बेचैनी का हिस्सा है । इस मध्यम वर्ग के एक तबके के हाथों में बेशक तिरंगा है पर पैसे और ऐसो आराम के लिये वाशिंगटन और लंदन है । इसका एक तबका देश के पैसे से आई0आई0टी0 कर विदेशों को सेवा देता है और भ्रष्टाचार के विरोध में बोलता भी है । अन्ना आंदोलन में अगर पूरा देश शामिल बताया जा रहा है तो फिर भ्रष्टाचार बैकुंठ में तो है नहीं ? एन0जी0ओ0 गामी आंदोलनों के सहारे भ्रष्टाचार की लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती और न इमानदार अधिकारियों को संरक्षण प्रदान किया जा सकता । इसके लिये इस आंदोलन की दिशा और वैचारिकता का मूल्यांकन आवश्यक है । अन्यथा हम कभी मोदी की वकालत करते नजर आयेंगे तो कभी विदेशी पैसे से देशीय लड़ाइयों को व्यवस्था परिवर्तन का नाम देते । लोकपाल की मांग व्यवस्था परविर्तन की मांग नहीं है । यह वही गांधीवादी तरीका है जो अंग्रेजों से कुछ रिआयतें हाशिल कर चुप बैठ जाता या इसे आजादी का नाम दे देता है । बेशक इसे दूसरी आजादी कही जा रही है पर इस आंदोलन में भगत सिंह और गांधी के विचारों में घालमेल पैदा किया जा रहा है । एन0जी0ओ0 यही करते हैं । वे तंत्र के साथ नुक्कड़ नाटकों को स्थापित करते हैं । उनका मकसद तंत्र पर नियंत्रण बनाये रखना और बाजरीकरण को तेज करना ही है । संभव है इस आंदोलन के कुछ सकारात्मक परिणाम निकलें । पर व्यापक जनमुक्ति की लड़ाई, वैचारिक नूतृत्व के बिना और अराजक हो जायेगी । इससे व्यवस्था में कोई आमूल परिवतर्न नहीं होगा । अन्ना हमारे लिये भगवान बना दिये जायेंगे और हम उन्हें पूजते हुये लूटने को अभिशप्त होंगे । जनपक्षधर शक्तियों के लिये यह सीखने और मूल्यांकन कर आगे बढ़ने का समय है । जनता को उनके हाल पर छोड़ देने से ऐसी ही लड़ाइयां जन्म लेंगी जो अंततः व्यवस्था के पक्ष में जायेंगी ।

सुभाष चन्द्र कुशवाहा
बी 4/140 विशानखंड
गोमतीनगर,लखनऊ 226010