गुरुवार, 3 नवंबर 2011

सूफ़ीवादः एक नूर ते सब जग उपज्यां

विश्व के सभी धर्मों की उत्पत्ति, तत्कालीन समाज के अनसुलझे, अतार्किक, पाखंडी और दुरूह क्रियाकलापों के समाधान की सरलीकृत, अंगीकृत, रहस्यवादी प्रक्रिया है । ‘सभी धर्मों में कमोबेश रहस्यवाद की प्रवृत्ति पाई जाती है । रहस्यवादी प्रवृत्ति, धर्म से जुड़ी होकर भी धर्म के संस्थानिक रूप की विरोधी होती है । वह प्रत्येक व्यक्ति की आध्यात्मिक, दार्शनिक जिज्ञासा के स्वाभाविक एवं लोकतांत्रिक अधिकारों को बनाये रखने की दृष्टि से जुड़ी होती है । रहस्यवादी मानता है कि संपूर्ण सांसारिक गतिविधियां परम सत्ता से पैदा होकर उसी में विलीन हो जाती हैं । रहस्यवादी परम सत्ता को सांसारिक बुद्धि से नहीं, आंतरिक साधना से जानना चाहता है । वह सबसे ज्यादा प्रेम की अनुभूति पर बल देता है । इस प्रकार प्रेम साधना ही रहस्यवादी साधक की सच्ची साधना होती है । उसमें ‘मैं’ का पूर्ण विसर्जन करना पड़ता है । इससे परमात्मा से जो अंतरंगता स्थापित होती है, उससे कोई अलग या पराया नहीं रह जाता ।’1 सूफ़वादी विचारधारा के मूल में इसी दर्शन का प्रभाव है ।
धर्म मानव निर्मित हैं । यह और बात है कि इनकी रचना प्रक्रिया में हमने निर्माता को परम मानव या ईश्वरीय शक्ति का वाहक स्वीकार कर, उसे अपना नियंता मान लिया है । कोई भी धर्म शून्य से पैदा नहीं हुआ । नवीन धर्म पर पूर्वगामी धर्मों के उज्जवल पक्षों का न्यूनाधिक ही सही, प्रभाव पड़ा है। स्वयं नवीन धर्मों के देवदूत, किसी न किसी पूर्वगामी धर्म में ही जन्म लिये हैं । यानी कि उनके बाल्यावस्था पर पूर्वगामी धर्मों का प्रभाव पड़ा है । ऐसे में संयुक्त धर्मोत्पत्ति के कारण अनेको मिश्रित धर्म साखाओं की भी उत्पत्ति हुई है । जैसे कि हिन्दू धर्म पर पाषाणकालीन मूर्ति पूजा, पशु-पक्षी पूजा, प्राकृतिक शक्तियों का दैवीयकरण, मूर्तिपूजा से विरक्ति, इस्लाम धर्म की उत्पत्ति पर उसके पूर्वगामी आत्मा-परमात्मा के रहस्यवादी दर्शन, माला और छाप-तिलक, धूनी-साधना और भजन-कीर्तन का और सिक्ख धर्म पर हिन्दू धर्म, संत साहित्य, सूफीवाद और रहस्यवाद का । ऐसे में सूफीवाद की उत्पत्ति इस्लाम धर्म के अंदर, पूर्ववर्ती धर्म साधना के औजारों के साथ, प्रेममार्गी आलंबनों को आत्मसात करते हुये ‘एक नूर ते सब जग उपज्यां’ के मिथकीय परिकल्पना से हुई जान पड़ती है । यानी कि इस्लाम के रहस्यवादी चिंतक ही सूफी कहलाते हैं। सूफीवाद या तसव्वुफ, हिंदुओं के विशिष्ट अद्वैतवाद से बहुत भिन्न नहीं है । यह इस्लाम का एक रहस्यवादी पंथ है । ‘सूफी’ मूल रूप से पैगंबर, कुरआन और हदीस के वचनों को मानते हैं पर अपनी साधना में इस विश्वास को तरजीह देते हैं कि धर्म बाह्याचार का नहीं, आंतरिक अनुभूति का मामला है । आमतौर पर वे अपने सिद्धातों को कुरआन और हदीस के हवाले से पुष्ट करते हैं लेकिन जहां तालमेल नहीं बैठ पाता वहां अपनी अलग व्याख्या भी देते हैं ।’2 वे परमात्मा को प्रेम स्वरूप मानते हैं । परमात्मा के प्रति प्रेम को वे धार्मिक आचरण की कसौटी मानते हैं । सूफी साधक अल शिवाली के अनुसार सूफ़ीवाद में-‘प्रेम प्रज्ज्वलित अग्नि के समान है जो परम प्रियतम की इच्छा के सिवा हृदय की समस्त चीजों को जला कर खाक कर डालता है ।’ कुछ सूफी विद्वानों ने सूफ़ीवाद को कुरआन एवं शरीअत की प्रतिबद्धता की पुष्टि के लिये तो कुछ ने इस्लाम के पैतृक वजन और अधिकार से बच निकलने के साधन के रूप में उपयोग किया । शुरूआती सूफ़ी विद्वानों, जैसे कुछ महिलाओं यथा-रबिया(9वीं सदी) और नूरी(10वीं सदी)ने दुनियावी त्याग पर जोर दिया और बतलाया कि आध्यात्मिक उपलब्धि ईश्वर को अपने भीतर ही खोज लेने में है । इसी प्रकार रूमी के सामाजिक विकास का सिद्धान्त, भारत के पूर्ववर्ती आध्यात्मिक सिद्धातों से मेल खाता प्रतीत होता है ।
सूफ़ीवाद, तमाम वादों में सन्निहित प्यार-मुहब्बत का फकीरी पैगाम है। सूफ़ीवाद पर हिन्दू धर्म के अद्वैतवाद के प्रभाव को ‘वहदतुलवजूद‘ नाम दिया जाता है। भारतीय सूफ़ीवाद में ‘वहदतुलवजूद‘ का प्रमुख स्थान तो है परन्तु उसमें अनेकानेक विचारधाराएं समाहित हैं। दरअसल जब इस्लाम धर्म का यूनानी, ईरानी तथा भारतीय विद्वानों से संपर्क हुआ तो इन देशों के धर्मों- यहूदीमत, ईसाईमत, वेदान्त, बौद्ध और पारसीमत की समस्याओं से तर्क-वितर्क भी प्रारंभ हुआ। अरबवासी यहूदियों और ईसाइयों से परिचित थे ही । उनके आक्षेपों का भी उन्हें संज्ञान था3। कुछ विद्वान जो मुसलमान हो गए थे, वे अपने पूर्व धर्म-सिद्धान्तों से इस्लामी सिद्धान्तों का परीक्षण कर रहे थे। ऐसे ही तर्कों, उत्तराधिकार एवं राजनैतिक नियमों आदि को लेकर समय के साथ मतभेद प्रारम्भ हुए और सर्व प्रथम ख़ारिजी, मुरीजी, शिया और कादिरी संप्रदायों का प्रादुर्भाव हुआ4। कालांतर में शिया संप्रदाय के चिंतन में तमाम बदलाव आए। उनका एक वर्ग ‘गुलात‘ हिन्दू धर्म से मिलते-जुलते सिद्धांतों में विश्वास करने लगा5। वे ‘गुलुब‘ और ‘तक़सीर‘ में विश्वास करने लगे। ‘गुलुब‘ अर्थात मनुष्य ईश्वरत्व तक पहुंच सकता है और ‘तक़सीर‘ अर्थात ईश्वर मानव के धरातल पर उतर सकता है। इस प्रकार वे ‘इमाम‘ में ईश्वरत्व की स्थापना करने लगे। आगे चलकर उनका विश्वास ‘हुलूल‘ अर्थात ईश्वर के मानव रूप में प्रकट होने, ‘तसबीह‘ अर्थात शरीरधारी ब्रह्म एवं ‘रजा‘ अर्थात इमाम के पुनर्जन्म तक पहुंच गया6। इस प्रकार शियाओं के अंतर्गत अनेक उपसंप्रदाय भिन्न-भिन्न देशों में विभिन्न नाम से प्रकट हुए। इनमें से अली इलाही उपसंप्रदाय विशेष महत्व का है जो ईरान और भारत में फैला। इसी प्रकार बसरा में इमाम सहन अल बसरी, जो मदीना में पैदा हुए थे और बसरा में रहने लगे थे के शिष्य अबू हुजैफा वासिल-बिन-अता-अल गज्ज़ाल (699 से 749 ई0) ने अलग होकर ‘मुअतज़ला‘ संप्रदाय का प्रादुर्भाव किया जो बुद्धिवादी और तार्किक थे। ‘मुअतज़ला‘ आन्दोलन को इस्लाम में ‘एतज़ाल‘ नाम दिया गया है। मुअतज़ला आन्दोलन ने अद्वैतवाद से बहुत कुछ ग्रहण किया। धीरे-धीरे इनमें सन्यासवृत्ति एवं चिंतन के मनोभाव उत्पन्न हुए जो आगे चलकर सूफ़ीमत के रूप में सामने आया। मुअतज़ला पंथ इस्लामी विधि में सुन्नी सम्प्रदाय के धर्मशास्त्रीय सिद्धान्त ‘इजमाअ‘ (सर्वसम्मति) को अमान्य मानता था। इसी युग में ‘मुशक्कीन (द्विधावादी) विचार पद्धति का जन्म हुआ जो मूलतः प्रकृतिवादी थे। इसके प्रमुख प्रतिनिधि इब्न-अशरस और अलजाहिज़ (मृ0869 ई0) थे। एक अन्य उदारवादी पंथ ‘अहिया-ए-सनद‘ ईरान में प्रचलित हुआ। इसके विरोध में अबुल हसन अलअशअरी (मृ0 941 ई0) ने अशाअरा आंदोलन को जन्म दिया। यही वह पृष्ठभूमि है, जिसने सूफ़ीवाद को जन्म दिया।
सूफ़ीमत पर वेदान्त एवं बौद्ध धर्म के प्रभाव को यूरोपीय समीक्षकों ने भी स्वीकार किया है । फ्रांसीसी विद्वान डोजी, होपेनहावर गोल्डजिहर ह्यूगेस तथा सर विलियम जोन्स आदि का ऐसा ही मत है7। लेकिन निकोल्सन, ब्राउन का मत है कि सूफ़ीमत मूलतः यूनानी नव अफलातूनी दर्शन से प्रभावित है तथा इस पर कुछ नास्टिक, मानी एवं बौद्ध धर्म के भी प्रभाव हैं। इन मतांतर का कारण यह हो सकता है कि सातवीं सदी तक सूफ़ी मत की कोई विशिष्ट मान्यता या चिंतन धारा न थी। केवल सन्यासपूर्ण विरक्त जीवन, आत्मचिंतन, भगवतप्रेम तथा तल्लीनता का प्राधान्य था। इसमें उत्तरोतर विकास हुआ और आगे जाकर नवीं सदी से लेकर परवर्ती सूफि़यों की चिंतन धाराओं पर हिन्दू और बौद्ध धर्म का प्रभाव पड़ा । ऐसा स्वाभाविक ही था । क्योंकि अरब से भारत के संबंध बहुत पुराने समय से रहे हैं। अंक ज्ञान को भारत से ग्रहण करने के कारण ही वे इसे हिन्दसा कहते हैं। कालगणना भी उन्होंने भारत से ही सीखी थी।
सत्ता संघर्ष और रक्तपात ने भी मनुष्य को सूफ़ीवाद की ओर ढकेलने का काम किया । आठवीं सदी से लेकर नवीं सदी तक लगातार अरब राष्ट्रों में सत्ता संघर्ष हुए। इस प्रकार सत्ता युद्ध कलह एवं रक्तपात से मन हटाकर आत्मलीन होने या धूनी रमाकर ध्यानमग्न होने, माला फेरने की संस्कृति सूफ़ीमत के रूप में सामने आई। सूफी़मत ने बहुत हद तक इस्लाम को लोकप्रिय बनाने, उसे फैलाने में मदद पहुंचाई । इस्लामी साम्राज्य के पूर्वी उपनिवेश-खोरासान, अफगानिस्तान, बलूचिस्तान, सीस्तान, धर्म परिवर्तन के पूर्व हिन्दू या बौद्ध थे । इसलिये सूफ़ीमत पर इन धर्मों का प्रभाव स्वाभाविक है। सूफि़यों ने हिन्दू चिंतनधारा से प्रत्यक्ष रूप से तथा बौद्ध धर्म से परोक्ष रूप में विचार ग्रहण किए। ‘निर्वाण‘ या ‘मोक्ष‘ की भांति ‘फना‘ की भावना, त्याग एवं सन्यासपूर्ण जीवन विधि, जपमाला आदि, भारतीय साधना से लिया। भगवान बुद्ध के जीवन कथाओं को सूफ़ी संतों के जीवन के साथ जोड़कर बताया जाने लगा ।
भारतीय उपमहाद्वीप में सूफ़ीवाद को इस्लामी धर्माेत्थान का सबसे बड़ा आंदोलन कहा जा सकता है। सूफ़ीमत ने सीमाओं के परे एवं धर्म विभाजन की रेखाओं को तोड़ते हुए सभी प्रकार के लोगों को आकर्षित किया। भारत में सूफ़ीवाद इस्लाम और हिन्दू धर्म के सम्मिश्रण की कड़ी बनी। यद्यपि सूफ़ीवाद के मूलभूत सिद्धांत, दर्शन एवं पीठिका की खोज असंभव है8 तथापि सूफ़ी संतों के महान उद्देश्य विभिन्न चमत्कारिक कथाओं में मिल जाते हैं। वे सूफ़ी संत, जिनके आचरण और व्यवहार ने लोगों के मन मोह लिए, मुसलमानों में ही नहीं, हिन्दुओं में भी इस्लाम के प्रति विश्वसनीयता उत्पन्न कर सर्व धर्म समभाव के पुष्प उपजाए, मानवीय मरूस्थलों को हरा-भरा कर इंसानियत के उपवन लगाये, उनके विचार ही आगे चलकर सूफ़ीवाद के सिद्धान्त बने। यह और बात है कि उनके श्रद्धालुओं ने चमत्कारपूर्ण कथाओं द्वारा उन्हें मानवीय स्वभाव से हटाकर पारलौकिक प्राणी बना दिया। उनका कार्यक्षेत्र इतना व्यापक बना दिया कि प्रकृति के कई विधान उनके सामने गौण नज़र आने लगे। सूफ़ी संत ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों और पंचभूतों पर अपनी स्वतंत्र सत्ता सिद्ध करते रहे। परिणामस्वरूप सूफ़ीवाद के लोक व्यावहारिक दर्शन मज़ारों, कुल, उर्स, संदल, नज्र-नियाज़, चढ़ावे और कव्वालियों में देखने को मिलने लगे 9
सूफ़ीवाद सरलीकृत और क्लिष्टता का अद्भुत संगम है । इसके अर्थ विवेचन में बड़ी-बड़ी बारीकियां उत्पन्न की गयीं हैं। सर्वाधिक प्रचलित विचार यह है कि अरबी शब्द ‘तसव्वुफ़‘ की धातु अरबी अक्षरों-‘स्वाद‘, ‘वाव‘, ‘फे़‘ से उद्धृत है, जिसका भावार्थ होगा-स्वयं को सूफ़ी जीवन-शैली के प्रति समर्पित कर देना। अन्य स्थितियों में इसका भावार्थ सीधे मूलधातु से प्राप्त किया जाए तो ‘सौफ़‘, या ‘सूफ़, अर्थात ऊन या ऊनी वस्त्र होगा। अने हदीसों में कहा गया है कि इस्लामिक पैग़म्बर ऊनी वस्त्र पहनते थे।10 यह भी संभव है कि ‘तसव्वुफ़‘ शब्द ‘सौफ़‘ या ‘सूफ़‘ के अतिरिक्त किसी अन्य पारिभाषिक शब्द से उद्धृत हुआ हो।11। इनके अलावा कुछ अन्य व्याख्याएं भी बताई जाती हैं। जैसे कि पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद के द्वारा निर्मित कराया गया मदीना मस्जि़द के सामने जो चबूतरा था उसे ‘सुफ़्फा‘ कहा जाता था। इसी ‘सुफ़्फ़ा‘ या ‘सुफ्फाह‘ शब्द से सूफ़ी शब्द बना। कुछ लोग ग्रीक शब्द ‘सोफिया‘ ‘सोफिस्ता‘ या ‘सोफी‘ से इस शब्द की उत्पत्ति मानते हैं। कुछ लोग ‘बनू सूफा‘ नामक अरब की एक भ्रमणशील जाति से इस की उत्पत्ति जोड़ते हैं। अधिकांश सूफ़ी विचारकों ने ‘सूफ़ी‘ शब्द की उत्पत्ति ‘सफ़ा‘ से ही माना है। ‘सफ़ा‘ शब्द का अर्थ ‘पवित्रता‘ है। इस मत के अनुसार पवित्र जीवन व्यतीत करने वाले महात्माओं को ही सूफ़ी कहा गया। उपरोक्त तमाम मतों में से ‘सौफ‘ या ‘सूफ़‘ से ही सूफ़ी की उत्पत्ति भाषाशास्त्र की दृष्टि से सही प्रतीत होती है।
शुरूआत में हमने सूफ़ीवाद के कुछ मूलभूत विचारों का जिक्र किया है । यहां इस दृष्टि की विवेचना करेंगे कि सूफ़ी किस मानी में दूसरे संप्रदायों से अलग हैं । इसके लिये हमें कुछ सूफ़ी विद्वानों के बताए सिद्धान्तों का अनुसरण करना होगा। सुविख्यात सूफ़ी विद्वान हज़रत जुनैद बग़दादी ने सूफ़ीवाद की आठ विशेषताएं बताई हैं-‘सख़ावत (दानशीलता), ‘रिज़ा‘ (सहमति), ‘सब्र‘ (धैर्य), ‘इशारत‘ (संकेत), ‘गुरबत‘ (उत्प्रवासन-अन्य देश में जाकर रहना), ‘सौफ़‘ या ‘सूफ़‘ (ऊनी वस्त्र), ‘सयाहत‘ (यात्रा), ‘फुक्र‘ (निर्धनता)। फिर इसका स्पष्टीकरण भी किया है-दानशीलता के आदर्श पैग़म्बर इब्राहिम है उन्होंने अपने प्राणों से लेकर सुपुत्र तक को ईश्वर के मार्ग में बलिदान कर दिया। सहमति के आदर्श पैग़म्बर अय्यूब हैं, जिन्होंने अपने घर-बार तथा विशाल परिवार के विनाश एवं प्रताडि़त होने तथा अपने शरीर में कीड़े पड़ जाने पर भी धैर्य का परित्याग नहीं किया। संकेत के आदर्श पैग़म्बर ज़कारिया हैं, जिन्होंने ईश्वरी आदेश के अनुपालन में अनेक दिनों तक मौन धारण किया तथा संकेत द्वारा बातें करते रहे। उत्प्रवासन के आदर्श पैग़म्बर यहिया हैं, जो ईश्वर की कृपा प्राप्ति के लिए अपने ही देश में प्रवासी बनकर रहे। ऊनी वस्त्र धारण करने का पैग़म्बर मूसा ने अपने जीवन का आदर्श बनाया। यात्रा की पराकाष्ठा पैग़म्बर ईसा से प्राप्त होती है, जो ईश्वर के मार्ग पर एक प्याला और एक कंघी लेकर घर से चले थे परन्तु एक व्यक्ति को चुल्लू से पानी पीते देखा तो प्याला फेंक दिया तथा एक व्यक्ति को अपनी अंगुलियों को बालों में फेरते देखा तो कंघी फेंक दी। निर्धनता की पराकाष्ठा इस्लामी पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद में है, जिन्हें समस्त ईश्वर ने विश्व के समस्त कोष का अधिकारी बनाया, परन्तु उन्होंने अपनी निर्धनता पर गर्व किया तथा ईश्वर से प्रार्थना की: ‘‘हे पालनहार ! मुझे निर्धनता की स्थिति में जीवित रख, निर्धनता की स्थिति में मृत्यु प्रदान कर तथा निर्धनों की श्रेणी में मेरा लेखा-जोखा कर।‘12 सय्यद अली हज़वेरी का कथन है- ‘‘सूफि़यों तथा अध्यात्मिक महापुरूषों का मूल मिशन ही यह था कि जनसाधारण के भीतर उस वास्तविक धार्मिकता एवं ईश्वरी उपासना की मूल आत्मा जागृत एवं प्रज्ज्वलित की जाए, जो विभिन्न नबियों के आह्वान का मूल उद्देश्य था। परन्तु यह बात निरंकुश एवं अन्यायी शासकों को असह्य थी। अतः सूफियों ने अपनी बात ऐसी भाषा, शब्दावली में व्यक्त किया कि उनके समुदाय के लोग तो उसे भली-भांति समझ लें परन्तु यदि यह बात उनके क्षेत्र के बाहर जाए तो दूसरे इस परम्परा के भेद को न पा सकें।‘‘
ईरान के इमाम ग़जाली के जरिये सूफीवाद, तुर्की होते हुये भारत पहुंचा । बाद में सूफियों का आगमन इराक तथा मध्य एशिया से भी हुआ। ईरान के सूफी संतों, खास तौर पर- जलालुद्दीन रुमी और हाफि़ज शीराज ने सुफीवाद को अपने कलामों के जरिये बुलंदी पर पहुंचाया । सूफि़यों की सत्यवादिता, न्यायप्रियता एवं शुद्ध आध्यात्मिक जीवन ने भारतीयों का मन जीत लिया। उनकी उदारता, कट्टरवादिता से विरक्ति ने धार्मिक सीमाएं तोड़ दीं। सूफि़यांे ने धर्मशास्त्रवादियों की अनेक पाबंदियों को तोड़ दिया और हिन्दू जनमानस से घुल-मिल गए। उनसे उन्हीं की शैली में बात की। संगीत से ‘समाअ‘ की महफिलें सजायीं। प्रेम और श्रद्धा से भारतीय उपवन सुगंधित हो उठा। सूफि़यों ने इस्लामी पैग़म्बर के परिवारजनों के सम्मान एवं प्रेम में डूबकर तमाम भाव व्यक्त किए एवं कविताएं लिखीं। उनके संदेश महफि़लों, सभाओं के माध्यम से जनता तक पहुंचे। सूफ़ी कलंदर संगीत एवं कविता के रसिया थे। इस परंपरा के विशिष्ट सूफ़ी शेख़ लाल शहब़ाज कलंदर की ख़ानकाह, सहेबान सिंध (पाकिस्तान) मे हज़रत अली की स्तुति में गीत अत्यंत उत्साह से गाए जाते हैं- दमादम मस्त कलंदर, अली दा पहला नम्बर !
दक्षिण भारत में सूफि़यों का आगमन ख़्वाजा हसन बसरी (मृ0 734 ई0) से बताया जाता है लेकिन इसका कोई ऐतिहासिक साक्ष्य मौजूद नहीं है। फिर भी ऐसी संभावना को नकारा नहीं जा सकता, क्योंकि यह प्रमाणित हो चुका है कि भारत में मुसलमानों का आगमन इस्लामी पैग़म्बर के जीवनकाल में ही प्रारम्भ हो चुका था जो धर्म प्रचार के लिए यहां आते थे। मालिक-बिन-दीनार (मृ0 744 ई0) भारत के दक्षिणी समुद्र तट पर आए थे। अबूतमीम अंसारी के विषय में कहा जाता है कि वे इस्लामी पैग़म्बर के स्वर्गवास (632 ई0) के बाद भारत आए थे। चेन्नई से 50 किमी0 दूर कोलम (तमीम नगर) में समुद्र तट पर उनका मज़ार आज भी श्रद्धालुओं के आस्था का केन्द्र बना हुआ है। शैख़ अब्दुल्लाह-बिन-अनवर, जो श्रद्धालुओं में ‘दादा हयात कलंदर‘ के रूप में जाने जाते हैं, का मज़ार चिकमंगलूर (कर्नाटक) में आज भी विभिन्न धर्मावलम्बियों की आस्था का केन्द्र है। इनके अलावा अबूउक्कासा, अब्दुर्रहमान अस्तख़री, अबूमूसा सिंधी, मुहम्मद-बिन-ज़याद सिंधी, रबीअ-बिन-शबीह, मकहोल सिंधी जैसे प्रमुख सूफि़यों का नमन किया जाना भी जरूरी है। सूफ़ी संत नतहरवली (मृ0 1026 ई0) के नाम पर त्रिचनापल्ली में सूफी आध्यात्मिक केन्द्र बना ही है13।
उत्तर भारत के सूफि़यों का आगमन सुलतान महमूद ग़जनवी के मुलतान विजय (1009 ई0) से प्रारम्भ होता है। सुल्तान इल्तुतमिश के शासनकाल (1210-1235 ई0) में सूफि़यों का प्रभाव इतना बढ़ गया था कि सुलतान मुहम्मद गोरी के प्रशासक नसिरउद्दीन क़बाचा के विरूद्ध सूफ़ी संत शेख़ बहाउदीन ज़करिया (मृ 1262 ई0) की शिकायत पर इल्तुतमिश ने उसका राज्य ही समाप्त कर दिया। जब शेख़ जलालउद्दीन तबरेजी़ (मृ0 1226 ई0) दिल्ली पधारे तो इल्तुतमिश उनके स्वागत में शहर के बाहर तक गया और घोड़े से उतर कर उनका स्वागत किया। सुल्तान ग़यासउद्दीन बलबन (1266-1287 ई0) के बारे में कहा जाता है कि जब सूफ़ी शेख़ अली, दिल्ली से चिश्त वापस जाने को उद्धत हुआ तब बलबन ने उनके चरणों में गिरकर क़सम खायी कि यदि आप चिश्त गए तो मैं राज्य त्यागकर आपके साथ चल दूंगा। बलबन जब कभी बाबा फरीद गंजशंकर (मृ0 1269 ई0) की सेवा में उपस्थित होता, हाथ बांधे, गुनहगारों की भांति खड़ा रहता। सुल्तान अलाउद्दीन खि़लजी (1316-1392 ई0) की ख़्वाजा निज़ामउद्दीन औलिया (मृ0 1224 ई0) के प्रति ऐसी श्रद्धा थी कि वह अपने दोनों बेटों-खिज्र ख़ान और शादी ख़ान को उनकी शरण में दे दिया था। सुल्तान फि़रोजशाह तुगलक़ (1351-1388 ई0) के राज्य में ख़्वाजा जहांनियां-जहांगश्त (मृ0 1383 ई0) प्रत्येक दूसरे-तीसरे वर्ष दिल्ली पधारते तो सुल्तान शहर से बाहर जाकर उनका स्वागत करता14।
भारत के उत्तर-पश्चिम में सूफि़यों का आगमन मध्य एशिया से हुआ। सर्वप्रथम शेख सफ़ीउद्दीन गाज़रूनी सिंध घाटी के ऊछ में (लगभग 1025 ई0 के आसपास) आए। महमूद गज़नवी ने जब पंजाब को अपने राज्य में मिला लिया तब मध्य एशिया से सूफि़यों का आगमन शुरू हुआ। जुनैदिय परम्परा के सूफ़ी शेख अबुल फ़ज्ल मुहम्मद-बिन-हारून ख़त्तली ने अपने शिष्य हुसैन ज़नजानी को लाहौर में धर्म सेवा हेतु नियुक्त किया। फिर एक और शिष्य अबुल हसन अली-बिन-उस्मान हज़वेरी (‘कश्फ़- अलमहजूब‘ पुस्तक के रचइता) को सन् 1035 ई0 में नियुक्त किया। कहा जाता है कि लाहौर में ज़नजानी के यहां ख़्वाजा मुईनउद्दीन चिश्ती भी गए थे15। ख़्वाजा सय्यद अली हज़वेरी को ‘दातागंजबख़्श‘ की उपाधि मिली हुई है। ख़्वाजा मुईनउद्दीन चिश्ती ने उनकी मज़ार पर श्रद्धा-सुमन स्वरूप निम्न पक्तियां प्रस्तुत की थीं-‘गंजे-बख़्शे-फै़ज़े-अलम,मज़हरे-नूरे-ख़ुदा/नाकि़सां रा पीरे-कामिल,कामिलां रा रहनुमां।’
ख़्वाजा सय्यद अली हज़वेरी का स्वर्गवास लाहौर में ही सन् 1072 ई0 में हुआ। महमूद गज़नवी के बेटे ज़हीरउद्दीन ने वहां मज़ार बनवाया तथा बाद में सम्राट अकबर ने ख़ानकाह और ड्योढ़ी का निर्माण कराया। भारत में इनके अलावा चिश्ती, सुहरवर्दिया, कुबराविया, हमदानी, कश्मीरी सूफ़ी, फि़रदौसिया, नक़्शबंदी, क़ादिरिया, क़लंदरी, रणबांकुरी के अलावा महिला सूफ़ी परम्परा का भी फैलाव हुआ। सूफि़यों ने कुरान में व्यक्त सर्वशक्तिमान एकेश्वरवादी अल्लाह की मान्यता को स्वीकार किया। इब्नुल अरबी के मत को उद्धृत करते हुए एम0एम0 शरीफ कहते हैं- ‘‘वह एक ही अपने को अनके रूपों में अभिव्यक्त करता है। उसी प्रकार जैसे कोई वस्तु विभिन्न दर्पणों में अभिव्यक्त होती है। प्रत्येक दर्पण विभिन्न दर्पणों में अभिव्यक्त होती है। प्रत्येक दर्पण अपनी प्रकृति और क्षमता के अनुसार उस पदार्थ को प्रतिबिम्ब रूप में अभिव्यक्त करता है। वह एक प्रकाशपुंज की भांति है जिससे असंख्य प्रकाश की किरणें फूटती हैं अथवा वह उस शक्तिमान समुद्र के समान है जिसकी सतह पर असंख्य उर्मियां प्रकट और लीन हुआ करती हैं16।
भारतीय सूफीवाद पर पूर्वगामी सिद्ध संतों का प्रभाव पड़ा । नाथ परंपरा से सूफियों ने और सूफियों ने नाथों से बहुत कुछ सीखा । प्रेम प्रधानता को परलौकिक शक्ति और भक्ति का मूलाधार बनाया । कबीर की वाणी और रहीम के दोहे प्रेम की पराकाष्ठा तक गये । ख्वाजा निजामुद्दीन औलिया के शिष्य अमीर खुसरो(1253 ई0), सूफी दर्शन में ऐसे रमे कि उन्हें कहना पड़ा-‘प्रेम भटी का मदवा पिलाइके/मतवारी कर लीन्ही रे मोसे नैना मिलाइके ।’ बाद की मुगल संस्कृति, भारतीय संस्कृति की रक्त सम्मिलित संस्कृति बनी । औरंगजेब और मुराद को अपवाद मान लें तो ज्यादातर मुगल शासक सूफी संस्कृति में जीये । कई महत्वपूर्ण सूफी संतों से मुगलों का घनिष्ठ संबंध रहा । सलीम चिश्ती(फतेहपुर सिकरी) और ख्वाजा निजामुद्दीन(दिल्ली) की दरगाहों को दिया गया महत्व आज भी हमारे सामने हैं । मुमताज और शाहजहां का वारिश दारा शिकोह(20 मार्च, 1615-10 सितम्बर,1659ई0) को सूफियों और हिंदू सन्यासियों के साथ देखा गया । उसने ‘सूफीनात अल औलिया’, ‘सकीनात अल औलिया’ नामक सूफी संतों की जीवन चरित्र पर पुस्तकें लिखीं । उसकी ‘रिसाल-ए-हकनुमा’(1646), और ‘तारीकात-ए-हकीकत’ नामक सूफी दर्शन की पुस्तकें उल्लेखनीय हैं । उसने ‘मजमा अल बहरेन’ में वेदांत और सूफ़ीवाद के शास्त्रीय शब्दों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया । सिक्ख धर्म के उदय के बाद, संत और सूफी वाणी का लहजा गुरुनानक (अव्वल अल्ला नूर उपाया, कुदरत दे सब वंदे / एक नूर ते सब जग उपज्यां, कौन भले कौन मंदे । ) से लेकर बुल्ले शाह, वारिस शाह और बाबा फरीद के कलामों में देखा जा सकता है ।
देखा जाये तो सूफीवाद का चरित्र एक स्त्रैण धर्म का है । पुरुष का समर्पण वाह्य कारकों से होता है जबकि स्त्री का अन्तःप्रेरणा से । इस्लाम में स्त्रैणता(जमाल) के अभाव को सूफीवाद पूरा करता है । ‘यहां अल्लाह का क़हर पौरुष भाव है और अल्लाह का रहम स्त्रैण भाव । अल्लाह के सारी सिफ़तों(गुणों) को तीन भागों में बांटा जा सकता है । एक पौरुषेयता(जलाल) के गर्म स्वभाव का गुण, दूसरा सौंदर्य और करुणा का गुण और तीसरा सर्वव्यापकता का गुण । जन्नत भी अल्लाह के जमाल यानी स्त्रैणता की अभिव्यक्ति है । तभी तो इब्नुल अरबी, शेखुल अकबर जैसे सूफी कवि स्त्री के चेहरे, उसके सौंदर्य को लेकर काव्य रचे । उनके अनुसार ईश्वर का सौन्दर्य स्त्री के मुखड़े में ही उच्चतम अभिव्यक्ति पाता है । स्त्री के रूपक में अल्लाह की बंदगी सूफ़ी मार्ग की मजबूत पाये बन गई ।’17
सूफि़यों की सर्वात्मवादी भावनाएं विकसित होकर ईश्वर और जीव के संबंध में अद्वैत भावना तक पहुंच गईं। इस्लाम भावना के अंतर्गत ‘मैं ब्रह्म हूं (अहं ब्रह्मास्मि) की भावना का स्थान नहीं है। वहां ईश्वर और जीव की अलग-अलग सत्ताएं मानी गयी हैं। सूफि़यों ने अपने चिंतन में इस ब्रह्मवादी विचार का समावेश किया। बायजीद विस्तामी ने कहा -‘तकून अंतजाक‘ अर्थात ‘वह तू ही है।‘ मंसूर हल्लाज का प्रसिद्ध वाक्य -‘अनहलक‘ (मैं ही सत्य ब्रह्म हूं), ‘अहं ब्रह्मास्मि‘ का अनुवाद प्रतीत होता है। उन्होंने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘किताबुल तवासीन‘ में लिखा- ‘मैं’ ‘वह’ (खुदा) हूं जिसे मैं प्रेम करता हूं और जिसे मैं प्रेम करता हूं वह ‘वह’ है । हम दो आत्माएं, एक शरीर हैं। यदि तुम मुझे देखते हो तो उसे भी देखते हो और यदि तुम उसे देखते हो तो हम दोनों को देखते हो।‘18 इन अद्वैतवादी विचारों का प्रसिद्ध सूफ़ी चिंतक इब्नुल अरबी ने विस्तार से वर्णन किया है। इन विचारों के परिणामस्वरूप सूफि़यों के दो विचार मिलते हैं। एक ‘वहदतुल वजूद‘ में और दूसरा ‘वहदतुल शहूद‘ में विश्वास प्रकट करता है। ‘वहदतुल वजूद‘ का तात्पर्य है अस्तित्व, अन्य का नहीं। शेष अस्तित्व उसके प्रतिबिम्ब हैं जो उससे भिन्न नहीं कहे जा सकते। इसके प्रतिकूल ‘वहदतुल शहूद‘ के प्रतिपादक ईश्वर को एकमात्र सत्य मानते हैं। सृष्टि, उनके अनुसार प्रतिबिम्ब या आभास मात्र है। छाया में उस परमसत्य का आभास अवश्य मिलता है पर छाया को ही सत्य नहीं माना जा सकता। उपरोक्त दोनों विचारधाराएं इस्लामी ‘तौहीद‘ (एकेश्वरवाद) को प्रतिपादक बताती है। ‘तौहीद‘ की मूलभावना यह है कि ईश्वर एक है, पर सूफ़ी चिन्तकों ने इस विचार को एक डग आगे बढ़ाकर यह प्रतिपादित किया कि एक ईश्वर ही है अन्य कोई नहीं। सूफ़ी विचारकों में एक विचार प्रभाव बायजीय विस्तामी, मंसूर हल्लाज जैसों का है जिसके मुख्य प्रतिपादक इब्नुल अरबी तथा अब्दुल करीम-अल-जिली हैं जिन्होंने सूफ़ी दर्शन को भारतीय अद्वैतवाद की पीठिका पर अवस्थित करने का प्रयास किया। इसके प्रतिकूल दूसरा प्रभाव उन विचारकों का है जो मूल इस्लाम और तौहीद के दायरे के भीतर ही सूफ़ी दर्शन को समेटने का प्रयास करते हैं, जैसे प्रसिद्ध मीमांसक अल गज़ाली ।
सूफि़यों ने ईश्वर के साथ ही आत्मा के संबंध में अपने विचार प्रकट किए हैं। इस्लामी सृष्टि-प्रक्रिया के अनुसार-अल्लाह ने अपनी इच्छा से ही सृष्टि का निर्माण किया। उसके मुख से ‘कुन‘ (हो जा) शब्द निकलने से सृष्टि निर्मित हो गई। सबसे पहले उसने ‘मुहम्मदीय आलोक‘ (नुरूल मुहम्मदिया) का निर्माण किया। इसी से चार तत्व (अग्नि, हवा, जल और पृथ्वी), स्वर्ग, आकाश, तारे आदि का निर्माण हुआ। इसी से आदम, पैग़म्बर तथा सभी जीव बने। सूफि़यों के अनुसार आत्मा, परमात्मा में लौटने के लिए अनजाने ही उत्सुक रहती है, क्योंकि वही उसका मूल उद्गम है। सूफी आत्मा के दो भेद बताते हैं-नफ़्स और रूह । ‘नफ़्स’ निम्नकोटि का माना जाता है जो कुप्रवृतियों का स्थल होता है। ‘रूह‘ सद्प्रवृतियों का उद्गम स्थल है और विवेक द्वारा परिचालित होता है। सूफ़ी नफ़्स पर नियंत्रण करके रूह को परमात्मा की ओर उन्मुख करने का प्रयास करते हैं।
सूफ़ी अपनी साधना को एक यात्रा मानते हैं जो चार पड़ावों से होकर गुजरती है। ये पड़ाव हैं- शरीअत, तरीक़त, मारिफ़त, और हक़ीकत। सभी इस्लाम धर्मानुयायियों के लिए शरीअत अर्थात कुरान के नियम के अनुसार आचरण करना आवश्यक है। यद्यपि मुसलमान के लिए शरीअत ही लक्ष्य है पर सूफ़ी इसके द्वारा आत्मनियंत्रण कर, आगे बढ़ जाता है। इस अवस्था में सूफ़ी साधक को ‘मोमिन‘ कहा जाता है। सूफ़ी आत्मनियंत्रण के लिए, सलात (नमाज़), जक़ात (दान), सौम या रोजा, तथा हज्ज का सहारा लेता है।
दूसरे पड़ाव तरीक़त में सूफी को ‘सालिक‘ कहा जाता है। दूसरे पड़ाव के लिए सूफ़ी को एक गुरू की आवश्यकता होती है। यहां सूफ़ी समस्त सांसारिक संबंधों को छोड़कर गुरू की शरण में चला जाता है और परमात्मा के विरह में तड़पने लगता है। तीसरा पड़ाव मारिफ़त का होता है। यह अवस्था सूफि़यों का ज्ञानकांड है। ज्ञान के दो भेद होते हैं-इल्म और म्वारिफ़। इल्म सांसारिक ज्ञान है और म्वारिफ़ ईश्वरीय। इस अवस्था में सूफ़ी ‘आरिफ‘ (ज्ञानी) कहलाता है। यहां पहुंचकर सूफ़ी को परमात्मा की परमसत्ता का ज्ञान प्राप्त हो जाता है। वह उसके समस्त रहस्यों को जान जाता है। इसमें ‘हाल‘ (मूच्र्छा) की स्थिति आती है। वास्तव में सूफि़यों का प्रधान साधन म्वारिफ़ ही है। जब आरिफ़ परमात्मा के सभी गुप्त रहस्य जान लेता है और उसके स्मरण (जिक्र) एवं ध्यान (फिक्र) द्वारा उसमें तल्लीनता के स्तरों को पार करता हुआ तदाकार हो जाता है, तब उसमें और उसके प्रियतम परमात्मा के बीच समस्त अंतर समाप्त हो जाता है। वह स्वयं हक बन जाता है। यह जीव की मुक्तावस्था (मकाम) होती है। यही वह अवस्था है जहां पहुंचकर साधक घोषित करता है कि मैं ही सत्य हूं (अनलहक)।
अंत में इतना और कि भारत में कारीगरों की जमात बहुतायत में सूफी पंथ की ओर आकर्षित हुई, विशेषकर बुनकरों की । कबीर भी उसी श्रेणी में आते हैं । सूफीवाद के अनेक विकल्प दूसरे पंथों में यथा-तांत्रिकों और भक्ति साधकों में दिखाई पड़ते हैं । सिक्ख धर्म पर भी सूफीवाद का जबरदस्त प्रभाव रहा है । अपने परिवर्तनगामी, संगीत-प्रियता और साधना-संस्कृति के कारण कई बार सूफियों को कट्टरपंथियों का कोपभाजन बनना पड़ा है । फिर भी अपनी लोकतांत्रिकता, जनपक्षधरता के कारण वे आबाद रहे हैं ।19 सूफ़ी संस्कृति के चलते मजारों, उर्स और मेलों की जो परम्परा भारत में पनपी है, वैसी कहीं और नहीं। दुनिया के अधिकांश भव्य दरगाह और मेले इसी देश में स्थित हैं। देवमणि पांडेय के अनुसार -‘सूफियाना कलामों के जरिये सूफी शायरों और संतों ने लोगों को मुहब्बत का ऐसा खूबसूरत पैगाम दिया है कि उन्हें अपनी रूह के आईने में सारी दुनिया का अक्स नजर आने लगा ।’ यहां धर्म की दीवारें ढहा दी गई हैं। इन मेलों में लाखों ने सूफ़ीरस का पान किया है। ऐसा हो भी क्यों न ? यह जीवन प्रेम रूपी दो दिनी मेला जो है। फिर तो-‘चार कहांर मिल डोलिया उठाई, संग परोहत, भाई‘। कौव्वालियों की जितनी खूबसूरत ‘समाअ‘ यहां बंधती है, अन्यत्र दुर्लभ है। यहां इस्लाम, अद्वैतवाद और रहस्यवाद का हिन्दवी ओज है, जहां आत्मा, परमात्मा के प्रेम कुएं में बढ़ती हुई कठिन परीक्षा के दौर से गुजरती है और मन कह उठता है -‘और सखी सब पी पी माती, मैं बिन पियां ही माती/प्रेम भट्ठी को मैं मद पीयो, छकी फिरूं दिन राती ।’


संदर्भ ग्रंथ-
1-प्रेम सिंह, लोकसंघर्ष पत्रिका,जून 2010
2-वही
3-इस्लामी अध्यात्म सूफ़ीवाद-जाफर रजा, पृष्ठ 14
4-इन्फ्लुएंस आफ इस्लाम आन इंडियन कल्चर-ताराचंद पृष्ठ 51
5-वही, पृष्ठ 50
6-वही, पृष्ठ 52
7-सूफ़ीमत साधना और साहित्य-रामपूजन तिवारी पृष्ठ 183
8-इस्लामी अध्यात्म सूफ़ीवाद-जाफर रजा पृष्ठ 17
9-वही पृष्ठ 18
10-सहीह-अलबुखारी, हदीस सं0 766ः3/189
11-Esai sur les Origines du Lexique Technique de la mystique musulmane p 155
12-कश़्फ-अलमहजूब,पृष्ठ 89-90
13-Arbic, Arwi and Persian in Sarandib and Tamil Nadu p12-20
14-इस्लामी अध्यात्म सूफ़ीवाद-जाफर रजा पृष्ठ 106
15-सियर-अल आरफीन, पृष्ठ 7
16-हिस्ट्र आफ मुस्लिम फिलासफ़ी, पृष्ठ 413
17- मुनाकिबे आरिफ़ीन के अंग्रेजी अनुवाद फ़ीट्स आफ नोअर्स टाफ गाड-जानॅ ओ केन, पृष्ठ 441
18-आइडिया आफ पर्सनाल्टी इन सूफी़ज्म-निकोल्सन, पृष्ठ 30
19-दी सूफ़ीज-इदरीज शाह

लोकरंग की आंच : सुभाष चन्द्र कुशवाहा: साहित्य में आरक्षण की बात या आरक्षण का विरोध

लोकरंग की आंच : सुभाष चन्द्र कुशवाहा: साहित्य में आरक्षण की बात या आरक्षण का विरोध: अजीब विडंबना है कि समाज के सृजनात्मक क्षेत्रों में घटकवाद, क्षेत्रवाद, संप्रदायवाद और जातिवाद ने न केवल गहरी पैठ बनाई है अपितु तथाकथित मार्क...

लोकरंग की आंच : सुभाष चन्द्र कुशवाहा: साहित्य में आरक्षण की बात या आरक्षण का विरोध

लोकरंग की आंच : सुभाष चन्द्र कुशवाहा: साहित्य में आरक्षण की बात या आरक्षण का विरोध

साहित्य में आरक्षण की बात या आरक्षण का विरोध

अजीब विडंबना है कि समाज के सृजनात्मक क्षेत्रों में घटकवाद, क्षेत्रवाद, संप्रदायवाद और जातिवाद ने न केवल गहरी पैठ बनाई है अपितु तथाकथित मार्क्सवादियों को भी इस कदर अपनी गिरफ्त में ले लिया है कि उन्होंने जीवन के उत्तरार्द्ध में आते-आते अपने छद्म और सृजनात्मकता को किनारे रख, सीधे-सीधे जातिवादी एजेंडे को उजागर करना शुरू कर दिया है, गोया अब चूके तो पीढि़यां शायद गद्दार कह दें । डा0 रामविलास शर्मा भी अंततः इसी एजेंडे को छुपा न पाये थे और आज नामवर जी सामाजिक आरक्षण के बहाने बोल कर भी अबोले रहना चाहते हैं या राजनैतिक लोगों की तरह कह कर कहना चाहते हैं कि- मेरे कहने का गलत अर्थ लगाया गया है । मेरा कहने का मतलब यह था कि मैं साहित्य में आरक्षण का विरोधी हूं, दलितों और पिछड़ी जातियों को मिलने वाले आरक्षण का नहीं । नामवर जी महान हैं और उन जैसे महान लोग जैसे चाहें वैसे बातों को धार देने की कला रखते हैं । आरक्षण विरोधी होने के बावजूद बात पलटने का अधिकार उनके पास आरक्षित है । तब मन में विचार उठता है कि यूं ही कोई नामवर नहीं होता ? अब यह बात हजम नहीं होती कि अगर नामवर जी के कहने का आशय साहित्य के आरक्षण से था तो फिर बाभन-ठाकुर के लड़कों की भीख मांगने तक की नौबत आ गई है, कहने की सार्थकता या तात्पर्य क्या था ?

समाज का आर्थिक ढांचा जिस ढ़ंग से गैरबराबरी का होता जा रहा है उसमें किसी भी जाति या वर्ग के कमजोर तबके के लिये जीना मुश्किल होता जा रहा है, इसमें बाभन-ठाकुर जाति के लोग भी होंगे और बहुतायत में पिछड़े और दलित भी । पर नामवर जी की बात का यह तात्पर्य तो कतई नहीं था । नामवर जी हमेशा सचेतन रूप से शगूफा छोड़ते हैं । उन्होंने सोच-समझ कर ही प्रगतिशील लेखक संघ के 75वें अधिवेशन को चुना था । अगर नामवर जी के कहने का आशय साहित्य में आरक्षण से था तो इसके कारक कौन है ? अगर नामवर जी की जातिगत भाषा में सवाल करूं तो क्या वे दलित हैं ? फिर कौन ऐसे आरक्षण का नेतृत्व कर रहा है ? साहित्य के सत्ता केन्द्रों पर कितने गैर नामवरी लोग बैठे हैं ? अब तक किन की कहानियों को उछाला गया है और किनको पुरस्कृत किया गया है ? विश्वविद्यालयों की नियुक्तियों में महान साहित्यकारों ने चयन समितियों में अपना स्थान बनाकर किन्हे चुना है ? किन्हे, किसके द्वारा पी0एच0डी0 की उपाधि दिलाई गई है ? शायद नामवर जी यहां उनकी जाति न देखना चाहेंगे । क्योंकि तब वे माक्र्सवादी बन जायेंगे । तब वह वर्ग आधारित समाज की बात पर आ जायेंगे और जाति आधारित समाज की वकालत करने से परहेज करने की बात करेंगे । अगर उनकी जाति देख ली जाये तो तमाम महान लोगों को नंगे होने में ज्यादा समय न लगेगा ।

नामवर जी की वाक् पटुता, स्मृति क्षमता और बौद्धिकता की हम सभी इज्जत करते हैं और उन्हें सुनने जाते भी हैं । पर बदले में नामवर जी से क्या मिलता है ? अपनी कुलीनता का लबादा ओढ़े वह हर सम्मेलन के केंद्र में बने रहते हैं या रहना चाहते हैं । वह अपनी बात कह उठ जाते हैं । दूसरों की सुनते नहीं और उद्घाटन, समापन तक सीमित रहते हैं । प्रलेस में भी उन्होंने यही किया । अपनी बात कह उठ गये, लौटे समापन करने । बाकी साहित्यकारों की बातें उनके काम की न थीं । कुलीनता की यही प्रवृत्ति होती है ।

प्रगतिशील लेखक संघ के 75वें अधिवेशन में जाने का और बोलने का मौका मुझे भी मिला था । नामवर जी ने वीरेन्द्र यादव के जिस आलेख को असत्य, तोड़-मोड़ कर पेश करने वाला बताया है वह गले नहीं उतरता । नामवर जी ने दलित विमर्श और स्त्री विमर्श पर भी अपनी बात रखी थी । उन्होंने कहा था कि गैर दलित, दलित संवेदना को क्यों नही उद्घाटित कर सकता ? जाहिर है उनकी इस बात का विरोध नहीं किया जा सकता । मैंने अपने वक्तव्य में यह सवाल उठाया था कि नब्बे के बाद गैर दलितों ने दलित विमर्श से इसलिये किनारा कर लिया क्योंकि दलितों का भोगा हुआ यथार्थ, दूसरों की तुलना में ज्यादा प्रभावी और उद्वेलित करने वाला था । इससे छद्म मार्क्सवादियों की कुलीनता को झटका लगा था और प्रतिक्रिया स्वरूप उन्होंने दलित संवेदना को विषय बनाना छोड़ दिया । मुझे ही नहीं, तमाम लोगों को नामवर जी की आरक्षण के संबंध में की गई टिप्पणी हैरान करने वाली लगी थी । यह और बात है कि कुलीन तबके ने हमेशा की तरह चुप्पी साधना बेहतर समझा । नामवर जी अपने आरक्षण विरोधी बात को अब वर्ग आधारित समाज की बात बता रहे हैं । जब मैं ‘जातिदंश की कहानियां’ संपादित कर रहा था तब एक प्रसंग में नामवर जी ने मुझसे कहा था कि उन्होंने जाति और वर्ग पर लिखना छोड़ दिया है । हो सकता है कि उनका आशय यह हो कि अब वह जाति और वर्ग पर लिखना छोड़, बोलना शुरू कर दिया है । संभव है नामवर जी को यह याद न हो । क्योंकि महान लोगों को इतनी छोटी बातें याद नहीं रहती ।

नामवर जी दलित विमर्श और स्त्री विमर्श का मजाक उड़ाने के बाद कह रहे हैं कि उन्होंने रचनाओं की गुणात्मकता की बात कही थी । बेशक गुणात्मकता की बात हो तो किसी को क्या आपत्ति ? पर गुणात्मकता का पैमाना ऐसे आलोचकों पर तो नहीं ही होना चाहिये जो साल में छपी सभी कहानियों को पढ़ने के बजाय कुछ चुनिंदा कहानियों पर अपने शिष्यों की राय को राय बना दें ? एक बार कथाक्रम सम्मेलन में नामवर जी के वक्तव्य को याद किया जाये जिसमें उन्होंने कहा था कि सारी कहानियों को पढ़ना संभव नहीं था और उनके एक शिष्य ने कुल बीस कहानियां छांटी थीं और उनमें से उन्होंने कुछ कहानियों को पढ़ा है । मैत्रेयी जी ने उनकी बात पर आपत्ति उठाई थी और कहा था कि उनमें से कोई कहानी किसी लेखिका की क्यों नहीं थी ? दलित लेखक की बात ही छोडि़ये । यही है साहित्य में आरक्षण ।

दरअसल कोई बात संदर्भों से कब कटी बताई जायेगी और कब तोड़-मोड़ कर प्रस्तुत की हुई, कुलीनता और वर्चस्ववादी मानसिकता के अधिकार क्षेत्र में आती है । प्रगतिशील लेखक संघ के 75वें अधिवेशन में नामवर जी ने जो कुछ कहा, उसे हम सभी ने सुना और पढ़ा था । विरोध के स्वर तो तभी उठे थे । नामवर जी ने वीरेन्द्र यादव की बात के खंडन-मंडन में इतना विलंब क्यों कर दिया ? हमें स्वीकार करना होगा कि साहित्य में जातिवादी मानसिकता का एक नया दौर उभार पर है । कमजोर और हासिये के लोगों की बात स्वीकार करने के बजाय समर्थ तबका सीधे-सीधे बेहयाई पर उतर आया है । तभी तो वाराणसी के एक लेखक की बात का उत्तर वाराणसी का ही दूसरा लेखक यह कह कर देता है कि जब ठाकुर की बीवी को ठकुराइन कह सकते हैं तो चमार की बीवी को चमाइन क्यों न कहा जाये ? ऐसी मानसिकता पर शर्म करने के अलावा बचता क्या है ? क्या समाज में ठकुराइन का बोध चमाइन के बोध जैसा निर्मित है ? जो दंभ या कुलीनता का बोध ठकुराइन को प्राप्त है वही चमाइन को दिया गया होता तो यह सवाल उठता ही कहां ?