शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

शिक्षा से गांव की बेदखली

शिक्षा से गांव की बेदखली
-सुभाष चन्द्र कुशवाहा
नब्बे के दशक से ही गंवई छात्र/छात्राओं के लिए शिक्षा और रोजगार के रास्ते बन्द करने का कुचक्र शुरू हो गया था । तब जो नई शिक्षा नीति लाई गई थी, उसमें मुख्य चिन्ता गांव के युवाओं के विश्वविद्यालयों में पहुंचने के बारे में थी । व्यवस्था को लग रहा था कि गांव के युवा विश्वविद्यालयों में आकर समाजशास्त्र,राजनीतिशास्त्र और अर्थशास्त्र का अध्ययन कर चतुर हो जाते हैं और व्यवस्था के मुखौटे को पहचान लेते हैं । अब नई शिक्षा नीति की जो तस्वीर बनाई गई है, उससे गांव के युवकों को पूरी तरह से बेदखल करने की तैयारी की जा रही है । उस पर तुर्रा यह कि 6 से 14 वर्ष तक के बच्चों को अनिवार्य शिक्षा दी जायेगी । खिचड़ी खिला कर उनका `कल्याण´ किया जायेगा ।
नई शिक्षा नीति को चासनी के साथ, प्रचार,प्रसार कर परोसा जा रहा है । गोया शासन,प्रशासन द्वारा कोई चमत्कारिक कार्य किया जा रहा हो । याथार्थ हमारे सामने है कि गंवई आबादी को विगत तीन दशकों से छला जा रहा है । एहसान दिखा कर उसे ठगा जा रहा है । सर्वोच्च न्यायालय के जज माननीय उन्नीकृष्णन ने 1993 में ही फैसला दे दिया था कि संविधान के अनुच्छेद 45 के अतंर्गत 14 वर्ष तक के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार है । ऐसे में 14 वर्ष तक के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा देने के नाम पर 86 वां संविधान संशोधन की क्या जरूरत थी ? दरअसल 86वें संशोधन के अनुच्छेद 21 (क) के अनुसार 6-14 वर्ष की आयु के बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा ``उस रीति से दी जायेगी जो राज्य कानूनन निर्धारित करेगा ।´´ यानी कि अनिवार्य और मुफ्त शिक्षा का मौलिक अधिकार क्या हो, यह तय करने का अधिकार संविधान प्रदत्त न होकर वैसा होगा जैसा सरकार चाहेगी । जाहिर है किसी भी अन्य मौलिक अधिकार के बारे में सरकार को ऐसी शक्तियां हासिल नही हैं । संविधान में लिखित 14 वर्ष तक के बच्चों की जगह `6 से 14 वर्ष तक´ के बच्चों का उल्लेख किया जाना भी अपने आप में विचारणीय है ।
आजादी के साठ वर्षों में प्राथमिक पाठशालाओं को तबाह कर निजी स्कूलों की बाढ़ लाई गई जहां गांव वालों को शिक्षा से बेदख कर दिया गया । तभी तो गरीबों के बच्चे जिन प्राथमिक स्कूलों में खिचड़ी खाने के लालच में पढ़ने जाते हैं वहां कैसी पढ़ाई होती है, एक बानगी देखें । देश के 6,51,064 प्राथमिक स्कूलों में से 15.67 फीसदी प्राथमिक स्कूलों में एक या एक भी शिक्षक नहीं हैं । ये शिक्षक पढ़ाने के बजाए , खाना पकाने की तैयारी में लगे रहते हैं । अपने लाभ के लिए फर्जी हाजिरी बढ़ाते हैं । 1996 में कराये गए छठे सम्पूर्ण भारतीय सर्वेक्षण में बीस फीसदी स्कूलों में सिर्फ दो अध्यापक पाए गए । सातवें सर्वेक्षण में पाया गया कि प्राथमिक स्कूलों के कुल 25,33,205 पूर्ण कालिक शिक्षकों में से लगभग 21 प्रतिशत अप्रशिक्षित हैं । यह विचार करने का विषय है कि जब स्कूलों में अध्यापक ही नहीं होंगे तब क्या खिचड़ी खिलाने से बच्चे पढ़ पायेंगे ? वहीं अब जो नया सुधार किया जाने वाला है, उससे विदेशी विश्वविद्यालयों के लिए देश के दरवाजे खोल कर बची-खुची कसर भी निकाल दी जायेगी । कई दशकों तक प्रौढ़ शिक्षा के नाम पर कितने प्रौढ़ों को साक्षर बनाया गया, यह तथ्य किसी से छिपा नही है । हां इसके नाम पर अरबों रुपए लुटा दिए गए फिर भी अपनढ़, पढ़ न सके। अब सर्वशिक्षा के नाम पर `मिड-डे-मील´ खिलाकर गंवई बच्चों का जैसा भविष्य बनाया जा रहा है, वह भी सबके सामने है । जिन प्राथमिक पाठशालाओं से पढ़कर बच्चे अफसर बनते थे, अब वे पाठशालाएं देखते-देखते तबाह हो गईं । पहले अध्यापकों की नियुक्ति रोकी गई, बाद में एक प्राथमिक पाठशाला में पांच अध्यापकों की जगह एक अध्यापक और एक शिक्षा मित्र को बैठा दिया गया । पढ़ाई का स्तर मात्र इतना रखा गया कि पांचवीं पास बच्चा अच्छर ज्ञान प्राप्त कर ले । उसे शिक्षित घोषित कर दिया जाए । जिससे वह शेष जिन्दगी अनुदानों,राहत,नरेगा वृद्धा पेंशन,विधवा पेंशन आदि के सहारे गुजार दे और एक आदर्श मतदाता बना रहे ।
ऐसा विश्वबैंक के निर्देशों के तहत किया गया है । अब सरकारी शिक्षा व्यवस्था को तबाह कर, निजी शिक्षण व्यवस्था को बढ़ावा देकर, साक्षरता अभियानों,अनौपचारिक शिक्षा और शिक्षा ऋण जैसे चोंचलों से लोगों को भरमाए रखने का कुचक्र किया जा रहा है । अपनी भाषा में शिक्षा ग्रहण की अनिवार्यता को समाप्त कर अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा ग्रहण करने की नीति,गंवई समाज को शासन-प्रशन से बेदखल करने की दूसरी नीति है । ऐसे में गांव के नौनिहाल, अफसर क्या चपरासी भी बनने से रहे ।
सर्वशिक्षा की `मिड-डे-मील´ योजना ने गंवई बच्चों का कोई भला नहीं किया है । इसने मात्र गरीबों के आक्रोश को दबाने का काम किया है । गंवई आबादी के साथ यह कैसा मजाक है कि शहरी मांए `पैंरट्स-डे´ पर स्कूलों में अपने बच्चों की `प्रोग्रेस रिपोर्ट´ देखने जाती हैं जबकि गंवई मांओं से कहा जाता है कि-`बारी-बारी मांए आएं,जांचे-परखें तभी खिलाएं ।´ यही है दोहरी शिक्षा व्यवस्था का मूल चरित्र । नई शिक्षा नीति में दोहरी शिक्षा व्यवस्था का नंगापन सामने होते हुए भी अब विदेशी विश्वविद्यालयों को स्थापित करने की बात कही जा रही है । गांव के प्राथमिक पाठशालाओं की शिक्षा का जो स्तर रह गया है, उससे बच्चे माध्यमिक कक्षाओं में पास होने से रहे । लिहाजा नई शिक्षा नीति में बोर्ड परीक्षाओं की अनिवार्यता समाप्त की जा रही है । यानी की डरिए नहीं, फेल होने जैसी समस्या से भी निजात दी जा रही है ।
नई शिक्षा नीति में व्यावसायिक शिक्षा की बात जोर-शोर से उठाई गई है । व्यावसायिक शिक्षा के लिए बैंक ऋण में गरीबों को अनुदान देने जैसी बात भी कही जा रही है । जिस देश के 26 करोड़ लोग ऐसे हों, जिन्हें खाने के लिए दाल ,सब्जी या चटनी में से कोई एक चीज बामुश्किल मिल पाती हो । ग्रामीण क्षेत्रों में 30 प्रतिशत लोगों कि दैनिक उपभोक्ता व्यय 12 रुपए से कम हो, जबकि शहरी क्षेत्र के 30 प्रतिशत लोग, रोजाना खाने-पीने पर 19 रुपए से ज्यादा खर्च नहीं कर पाते हों, 10 प्रतिशत ग्रामीण आबादी ऐसी हो , जिनके पास दैनिक व्यय के लिए 9 रुपए से ज्यादा उपलब्ध न हो , तब ऐसी स्थिति में उन गरीबों के बच्चे लाखों की सलाना फीस वाले किसी व्यावसायिक संस्थान में शिक्षा ऋण पर अनुदान पाकर भी कैसे पढ़ेंगे ? योग्यता की बात करने वाले क्यों नहीं बताते कि गरीब, मेधावी लड़के आई0आई0टी0 या आई0एम0ए0 में चयनित होने पर लाखों की फीस कैसे चुकाएंगे ? क्या इन संस्थानों में चयनित गरीबों को निशुल्क पढ़ाने की व्यवस्था है ? दूसरी ओर यदि आपकी जेब में दौलत है तो आप अपने आवारा और अयोग्य बच्चों को बिना प्रतियोगी परीक्षा पास कराए, `पेड´ सीट पर दाखिला करा सकते हैं ।
दरअसल प्रतियोगी परीक्षाओं का सारा ढ़ांचा पैसे वालों के लिए तैयार किया जा रहा है । देश में खुल रहे महंगें कोचिंग संस्थान और महंगी पुस्तकें गरीबों को दौड़ से बाहर कर रही हैं । मौजूदा हालात में गंवई बच्चों का भविष्य अंधकारमय नज़र आ रहा है । बिना किसी किन्तु-परन्तु के 14 वर्ष तक के बच्चों को उनकी भाषा में मुफ्त और गुणात्मक शिक्षा उपलब्ध कराये और उसके बाद गुणात्मक उच्च शिक्षा के समान अवसर उपलब्ध कराये बिना गंवई बच्चों का भविष्य नहीं संवारा जा सकता । प्रचार के लिए स्कूल बनवा देने से गंवई बच्चों का भला नहीं होने वाला है ।


सुभाष चन्द्र कुशवाहा
बी 4/140 विशालखण्ड
गोमतीनगर
लखनऊ 226010