सोमवार, 21 जून 2010

हमारी जान की कीमत कितनी है ?

राष्ट्र प्रभुसत्ता, राष्ट्रभक्ति, जनपक्षधरता को गिरवी रख, महाशक्तियों के आगे दुम हिलाने की संस्कृति हमारे खून में घुली-मिली है । आजादी पर सत्ता के दलालों का कब्जा ब्रिटिश हुकूमत से विरासत में मिली है । ऐसे में पन्द्रह हजार जानों को निगलने वाले एण्डरसन को सरकारी विमान से भगा देने, हजारों लाशों और लाखों अपाहिजों की आवाज को अनसुना करने वाले एक बार फिर राहत, मुआवजा और पुनर्वास का खेल खेलने की तैयार में हैं । यह खेल जितनी जल्दी शुरू होगा, लोगों का ध्यान उतनी जल्दी एण्डरसन और परमाणु दायित्व विधेयक से हटेगा । वाशिंगटन और दिल्ली में बैठे नियन्ताओं की रणनीति इन्हीं बातों को ध्यान में रख कर बनाई जा रही है ।
देश में घटित इतनी बड़ी त्रासदी की लड़ाई भोपाल गैस पीड़ितों ने अपने दम पर लड़ी है । आज अपना दामन पाक-साफ दिखाने वाली किसी भी पार्टी ने इन वर्षों में भोपाल गैस पीड़ितों के आन्दोलन को अपना एजेण्डा नहीं बनाया । महज कुछ कोरे बयानों से काम चला लेने की प्रवृत्ति से वे आगे न बढ़ पाईं । यह है हमारी चुनावबाज पार्टियों का वर्ग चरित्र और जनपक्षधरता जो अपनों से गद्दारी करती है और अमेरिका से यारी । दरअसल हमारे कर्णधारों की नज़रों में गरीबों की जान की कीमत महज कुछ हजार की सहायता मात्र है । वे सदा पूंजीपतियों की हिफाजत में रहते हैं और अमेरिका जैसे हत्यारे देश के तलवे चाटते हैं । उसके राष्ट्रपति से हाथ मिलाने के लिए अपनों से धक्कामुक्की करते हैं । अब छब्बीस साल बाद जब गैस पीड़ितों की दूसरी पीढ़ी बर्बादी की ओर बढ़ चुकी है, मुआवजा और पुनर्वास के नए शगूफे के द्वारा एण्डरसन मामले में फंसे अपने दामन को ढंकने का प्रयास तेज किया जा रहा है । सम्भव है एक कदम आगे बढ़ाकर, एण्डरसन की वापसी की मांग कर जनता को यह दिखाने का प्रयास भी किया जाये कि हम आप के हितैषी हैं । जबकि हकीकत सभी जानते हैं कि हमने अब तक एण्डरसन के बचाव में अमेरिका को इतने लिखित दस्तावेज मुहैया करा दिये हैं, जिनके बल पर वह हमारे प्रत्यर्पण की मांग को आसानी से ठुकरा देगा । बेशक सब जानते हुए ही हमारे रहनुमा यह मांग करेंगे क्योंकि वे जानते हैं कि मांग करना कोई अपराध नहीं है । बदले में जनता से कहने-सुनाने के लिए बहाना मिल जायेगा कि हम प्रत्यर्पण के लिए प्रयत्नशील हैं । ले देकर कुछ और सालों में वृद्ध एण्डरसन चल बसेंगे और हम अपनी राष्ट्रभक्ति पर पड़े़ दाग को छिपा ले जायेंगे ।
इस देश के गरीबों की जान जितनी सस्ती है उतनी अमेरिका के मवेशियों की भी नहीं है । वे अपने कुत्ते, बिल्लियों पर खतरनाक रसायनों का परीक्षण करने के बजाय, भारत जैसे गरीब मुल्कों के आदमियों पर कर लेते हैं । उनके लिए हम गिनी पिग हैं । आज भोपाल गैस काण्ड और यूनियन कार्बाइड की चर्चा मात्र इसलिए हो रही है कि वहां गैस रिसाव से एक ही समय हजारों की मौत प्रत्यक्ष रूप में हुई । अपने देश में अमेरिका जैसों की हरकतों से अप्रत्यक्ष मौतों का आंकड़ा इससे कहीं ज्यादा है और वह दिखाई नहीं देता । अमेरिका की ऐसी तमाम कंपनियां अपने लाभ के लिए वर्षों से हमारे लोगों में जहर घोल कर कैंसर, दमा, तपेदिक जैसी बीमारियां बांट कर मार रही हैं । जिन रसायनों को अमेरिका अपने देश में प्रतिबंधित करता है उन्हीं रसायनों को उसकी कोई कंपनी भारत में बेचती है । डी0डी0टी0 1972 से और डेलड्रीन 1970 से अमेरिका में प्रतिबंधित हैं पर अपने देश में वह बेची जाती है । अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियां बी0टी0 बैगन जैसे हानिकारक बीजों को लेकर हमारे यहां आती हैं जबकि उन्हीं का देश उनको उगाने की इजाजत नहीं देता। वे जानती हैं कि इस देश के गरीबों को अपने लाभ के लिए जब चाहो, जैसे चाहो मार दो, कुछ होता नहीं । भारतीय खाद्य पदार्थों को विषैला बता कर अपने यहां निर्यात रोकने वाला अमेरिका इस तथ्य को अनदेखा कर जाता है कि विषाक्त रसायनों को बनाने वाली ज्यादातर कंपनियां उसी के देश की हैं ।
एक अमेरिकी सैनिक की मौत पर अमेरिका दहल उठता है जबकि उसके दबाव में दुनिया के तमाम मुल्कों में तीसरी दुनिया की सेनायें मरने-खपने के लिए भेज दी जाती हैं । अमेरिका इराक से तेल निचोड़ने का काम खुद करता है पर अफगानिस्तान जैसे अशान्त मुल्क में जहां हर वक्त जीवन खतरे में है, सड़क निर्माण जैसे कामों में भारत को लगाता है । परमाणु सुरक्षा के जिन कड़े मापदंड़ों को उसने अपने देश में लागू कर रखा है, उनसे इतर दूसरे देश में लचर कानून बनवा कर वह अपना लाभ सुरक्षित रखना चाहता है । जैसे कि परमाणु ऊर्जा संयन्त्र के संचालकों के लिए दुर्घटना पर महज 500 करोड़ की सहायता राशि देने का प्राविधान किया गया है जबकि अमेरिका में यह राशि 500 अरब से भी ज्यादा हो सकती है । यानी कि एक अमेरिकी की कीमत के मायने और हैं और भारतीय के और । अपने लोगों की हिफाजत के लिए वह जब चाहे, जहां चाहे बमबारी कर सकता है। वह एक आतंकी को मारने के लिए मानव रहित विमानों से या कलस्टर बमों से सैकड़ों निर्दोषों को मार सकता है । पर उसकी ओर कोई सवाल उठाये तो वह गुर्राने लगता है । ऐसे मानव विरोधी महाशक्ति से दूरी बनाने के बजाय, हमारे कर्णधार परमाणु प्रसार से लेकर कृषि सब्सीडी घटाने, पेटेंटीकरण, डंकल बीजों और कारपोरेट खेती के माध्यम से भारतीय किसानों को तबाह करने पर उतारू है । आखिर इन्हीं अमेरिका परस्त नीतियों के कारण तो अपने देश में भोपाल गैस त्रासदी से कई गुना ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है । भारत में नाभिकीय दुर्घटनाओं से रिएक्टर आपूर्ति कर्ता अमेरिकी कंपनियों को बचाने के लिए अमेरिका भारतीय कर्णधारों पर दबाव बना कर ऐसा कानून बनवा देना चाहता है जिससे भोपाल गैस त्रासदी जैसे फैसलों की गुंजाइश भी न बचे । धारा 35 के अनुसार वह ऐसे हादसों की सुनवाई का अधिकार भी दीवानी अदालतों के बजाय `दावा आयुक्त´ को देना चाहता है । जबकि हमारी जनपक्षधर सरकार बेचैन है परमाणु दायित्व विधेयक को जल्द से जल्द पास कर देने के लिए । यह है हमारी सरकार के लिए इस देश की जनता की कीमत ? फिर आप एण्डरसन के पीछे क्यों पड़े हैं भाई ? हमारे देश में तो तमाम एण्डरसन भरे पड़े हैं । जिस एण्डरसन के खिलाफ एफ0आई0आर दर्ज था, उसे बिना कोर्ट की मर्जी के हमारे कर्णधार जमानत दिलाकर भगा देते हैं और तब भी वे सत्ता सुख भोगते रहते हैं । आज भी तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियां अपने आर्थिक हितों के लिए हमारे जंगल, पर्यावरण को निगल रही हैं, लोगों के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ कर रही हैं और उन्हें माओवादियों की ओर जाने के लिए बाध्य कर रही हैं परन्तु हमारे कर्णधारों को उनका अपराध दिखाई नहीं देता । वे अपनी जनता को पूजींपतियों और हत्यारों के हवाले कर राहत, पुनर्वास और मुआवजों का खेल खेल रहे हैं ।

सुभाष चन्द्र कुशवाहा
बी 4/140 विशालखण्ड, गोमतीनगर, लखनऊ ।