रविवार, 1 अप्रैल 2012

सर्वशिक्षा अभियान एक छलावा है
-सुभाष चन्द्र कुशवाहा
अपने देश में प्रौढ़ शिक्षा अभियान के नाम पर अरबों खर्च करने के बाद भी अनपढ़ों की सूरत और सीरत में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ है। देश में साक्षर अनपढ़ों की संख्या में तेजी से इजाफा हो रहा है । सामाजिक शिक्षा(1952-56), ग्राम शिक्षा मुहीम(1959), फारमर्स फक्शनल लिटरेसी प्रोग्राम(हरित क्रांति के अंतर्गत 1966-67 में ), वरकर्स एजुकेशन प्रोग्राम, नान फारमर्स एजुकेशन फार यूथ(1975-76) और 2 अक्टूबर 1978 को शुरू किये गये राष्ट्रीय प्रौढ़ शिक्षा कार्यक्रम अनपढ़ों को शिक्षित करने के नाम पर सफेद हाथी सिद्ध हुये हैं। ये सारी योजनायें गरीबों की अशिक्षा को मुंह चिढ़ाने, लूट-खसोट को बढ़ावा देने तथा कुछ नौकरशाहों को ऐशोआराम का साधन उपलब्ध कराने का माध्यम बनीं । 1987 में शुरू किये गये आपरेशन ब्लैक बोर्ड द्वारा यह अभियान चला कि जिन प्राथमिक विद्यालयों में एक अध्यापक है वहां कम से कम दो अध्यापक तैनात किए जायें । इस योजना का भी हश्र बजट डकारने के अलावा और कुछ नहीं हुआ । 1993 में यशपाल कमेटी ने गुणात्मक शिक्षा देने की वकालत की और सरकार ने 1998 में राष्ट्रीय साक्षरता मिशन की शुरुआत की । आज राष्ट्रीय साक्षरता मिशन की सफलता के जितने भी आंकड़े पेश किये जायें, हकीकत में इस योजना की एक ही पहचान है कि शिक्षा के नाम पर बच्चों को कटोरा लेकर स्कूल आने, मिड-डे मील खाकर चले जाने या प्राथमिक विद्यालयों में नाम लिखा कर वजीफा वसूलने और पढ़ने के लिये किसी निजी स्कूल में जाने के अलावा कुछ नहीं । इस अभियान से सबसे ज्यादा खुश ग्राम प्रधान, ग्राम सचिव और इससे जुडे़ दूसरे अधिकारी हैं । अपने देश में गरीबों के लिए शिक्षा का मतलब ‘मिड-डे-मील’ बना दिया गया है । उन्हें ककहरा से आगे पढ़ने की जरूरत नहीं । वजीफा लें, खाना खायें, बिना अध्यापक के पढ़ें । उत्तीर्ण हों और नरेगा मजदूर बनें । यही हमारे नियंताओं की नीति है ।
अस्सी-नब्बे दशक तक गंवई स्कूलों से पढ़े तमाम लड़के शासन-प्रशासन की धुरी बन जातेे थे । इसी से बौखला कर शिक्षा देने की ऐसी नीति अपनाई गई कि मामला पलट जाये । अब गांव के पढ़े बच्चे उच्च या व्यावसायिक शिक्षा की ओर नहीं जा रहेे । पहले पेड़ तले, बिना मिड-डे-मील खाये पढ़ाई हो जाती थी । अब तो बच्चों की टुकटुकी पक रही खिचड़ी की ओर रहती है । श्यामपट् पर गणित, विज्ञान या भाषा नहीं, पकवानों के नाम होते हैं । मुफ्त में खाना, किताबें, वजीफा, साइकिल, बस्ता, भूकम्परोधी भवन, सब कुछ देने का मकसद पढ़ाई देना नहीं है । वहां योग्य अध्यापक देने की कोई नीति नहीं बनाई जा रही है । ज्यादातर अप्रशिक्षित अध्यापक नियुक्त हैं । सरकारी स्कूलों में पढ़ाई के अलावा वह सब कुछ होता है जिससे गरीबों को भरमाये रखा जाये । कक्षा आठ तक पढ़े लड़के तेरह का पहाड़ा नहीं सुना सकते । यह चिंता का विषय है कि दोहरी शिक्षा नीति के कारण गरीब बच्चों की पढ़ाई दिखावटी हो चली है । एकाध मेधावी कहीं इधर-उधर सेे पढ़ भी ले रहे हैं तो व्यावसायिक शिक्षा का खर्च न उठा पाने की स्थिति में आगे की पढ़ाई से वंचित रह जा रहे हैं या आत्महत्या करने को मजबूर हो रहे हैं । गरीबों को शिक्षा उपलब्ध कराने वाली सरकारी संस्थाएं जानबूझकर बीमार बना दी गई हैं और दूसरी ओर निजी पंचसितारा स्कूलों में दाखिले के लिये लाखों खर्च किये जा रहे हैं । वहां कम्प्यूटर, प्रोजेक्टर से शिक्षा दी जा रही है । एक को ककहरा दूसरे को आधुनिक शिक्षा, यही है सर्वशिक्षा नीति का मकसद ।
बेशक जनगणना रिपोर्ट में 74 फीसदी आबादी साक्षर हो गई हो पर यह साक्षरता मात्र नाम लिखने भर को है । ऐसी साक्षरता सामाजिक हस्तक्षेप के लिए कतई नहीं है ।
अपने देश में 26 करोड़ लोग ऐसे हैं, जिन्हें खाने के लिए दाल, सब्जी या चटनी में से कोई एक चीज बामुश्किल मिल पाती है । ग्रामीण क्षेत्रों में 28 प्रतिशत लोगों कि दैनिक उपभोक्ता व्यय 12 रुपए से कम है जबकि शहरी क्षेत्र के 33 प्रतिशत लोग, रोजाना खाने-पीने पर 20 रुपए से ज्यादा खर्च नहीं कर पाते हैं। 11 प्रतिशत ग्रामीण आबादी ऐसी है जिनके पास दैनिक व्यय के लिए 8 रुपए से ज्यादा उपलब्ध नहीं है । ऐसी स्थिति में इन गरीबों के बच्चे लाखों की सलाना फीस वाले किसी निजी या व्यावसायिक संस्थान में कैसे पढ़ेंगे ? योग्यता की बात करने वाले यह नहीं बताते कि गरीब मेधावी लड़के आई0आई0टी0 या आई0एम0ए0 में चयनित होने पर लाखों की फीस कैसे चुकाएंगे ? क्या इन संस्थानों में चयनित गरीबों को निशुल्क पढ़ाने की व्यवस्था है ? दूसरी ओर पैसे वाले अपने आवारा और अयोग्य बच्चों को बिना प्रतियोगी परीक्षा पास कराए पेड सीट पर दाखिला करा ही रहे हैं ।
गरीबों की हिमायती सरकारें दोहरी शिक्षा नीति पर प्रहार क्यों नहीं करतीं ? समान नागरिकों को समान शिक्षा पाने का हक क्यों नहीं दिया जाता ? गुणात्मक शिक्षा से गरीबों को वंचित कर प्रतियोगिता परीक्षाओं से अलग करने की चाल है । प्रतियोगी परीक्षाओं का सारा ढ़ांचा पैसे वालों के लिए तैयार किया जा रहा है । देश में खुल रहे महंगें कोचिंग संस्थान और महंगी पुस्तकें गरीबों को दौड़ से बाहर कर रही हंै । गरीबों के बच्चे जिन प्राथमिक स्कूलों में खिचड़ी खाने के लालच में जाते हैं वहां पढ़ाई किसके सहारे होगी, एक बानगी देखिये । देश के 6,51,064 प्राथमिक स्कूलों में से 15.67 फीसदी स्कूलों में एक या एक भी शिक्षक नहीं हैं । जहां हैं वहां पढ़ाने के बजाए, खाना पकाने की तैयारी में लगे रहते हैं । अध्यापकों के जिम्मे मिड-डे-मील तैयार करवाना, स्कूल भवन बनवाना, जनगणना, चुनाव और पल्स पोलियो अभियान में काम करना भी होता है। 1996 में कराये गए छठे सम्पूर्ण भारतीय सर्वेक्षण में बीस फीसदी स्कूलों में सिर्फ दो अध्यापक पाए गए । सातवें सर्वेक्षण में पाया गया कि प्राथमिक स्कूलों के कुल 25,33,205 पूणर््ाकालिक शिक्षकों में से लगभग 21 प्रतिशत अप्रशिक्षित हैं । यह विचार करने का विषय है कि जब स्कूलों में अध्यापक ही नहीं होंगे तब क्या खिचड़ी खिलाने से बच्चे पढ़ पायेंगे ? अभी हाल में लोकसभा में बताया गया कि देश में कुल 6.89 लाख प्राथमिक अध्यापकों की कमी है । इनमें से उत्तर प्रदेश मंे 1.4 लाख, बिहार में 2..11 लाख, म0प्र0 में 72,980 प0बंगाल में 86,116 झारखंड में 20,745 और महाराष्ट्र में 26,123 प्राथमिक अध्यापकों की कमी है ।
वर्तमान केन्द्रीय बजट में स्कूल भवन बनवाने पर तो जोऱ दिया गया है, पर इन स्कूलों में बेहतर शिक्षा कैसे दी जाये, इस पर कोई कार्ययोजना बनाने की जरूरत नहीं समझी गई है। जिस ‘मिड-डे-मील’ ने प्राथमिक स्कूलों से शिक्षा को बेदखल किया है उसके मद में 11,937 करोड़ का प्राविधान किया गया है । सरकार को गरीबों की मदद करनी है तो सीधे बच्चें के मां-बाप को करे । उन्हें राशन दे । पुस्तकें और बेहतर शिक्षा के लिये आवश्यक सामग्री दे पर स्कूलों में पढ़ाई और अन्य रचनात्मक कार्यों यथा खेल-कूद, सांस्कृतिक प्रशिक्षण, वाद-विवाद प्रतियोगितायें ही होने चाहिये । शिक्षामित्रों के सहारे या अयोग्य मृतक आश्रितों को अध्यापक बना कर शिक्षण कार्य नहीं किया जा सकता । अगर यह व्यवस्था उचित है तो इसे नीजि स्कूलों में क्यों नहीं लागू किया जाता ? शहरी मांयें पैरेंट्स डे पर अपने बच्चें की प्रोग्रेस जानने जाती हैं जबकि गांव की मांओं को कहा जाता है कि -‘बारी, बारी मांयंे आयें, जाचें, परखें तभी खिलायें ।’ तो क्या यह नीति गंवई बच्चों को बेहतर शिक्षा देने की है या सर्व शिक्षा अभियान के बहाने उन्हें शैक्षिक अपाहिज बनाकर ऊपर बढ़ने से रोकने का एक कुचक्र है ?
सुभाष चन्द्र कुशवाहा
बी 4/140 विशालखंड
गोमतीनगर
लखनऊ 226010