सोमवार, 5 अप्रैल 2010

चिकित्सा सुविधा से वंचित ग्रामीण आबादी

चिकित्सा सुविधा से वंचित ग्रामीण आबादी
-सुभाष चन्द्र कुशवाहा

`ग्रामीण क्षेत्रों में डॉक्टर नहीं हैं । प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र कागजों पर चल रहे हैं । वहां कोई सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं ।´ यह टिप्पणी देश के सर्वोच न्यायालय की है । एक अक्टूबर को की गई इस टिप्पणी से कल्याणकारी राज्य की अवधारणा की कलई खुल जाती है । यह टिप्पणी इस भयावहता को रेखांकित करती है कि देश के गरीबों का पुरसा हाल कोई नही है । बहुसंख्य गरीब जनता आज भी दुआ और नीम-हकीमों के भरोसे जी रही है । ओझा-सोखा,पीर-बाबा उन्हें ठगने के लिए अपनी दुकानें सजाए बैठे हैं । तन्त्र-मन्त्र के विज्ञापनों से अखबार रंगे पड़े हैं । आखिर गरीबों के पास ठगे जाने के अलावा चारा ही क्या है र्षोर्षो सन्तोष के लिए इन्हीं चमत्कारिक लोगों के चंगुल में फंसने को वे बाध्य कर दिए गए हैं । जिनकी थोड़ी बहुत हैसियत है वे चमत्कारिक पत्थरों को धारण कर अपनी बीमारियों को दूर करने का भ्रम पाले हुए मर रहें हैं । कुल मिलाकर इससे इनका आक्रोश दब जा रहा है ।
जब स्वास्थ्य सुविधाएं अपाहिज बना दी गई हों तो गरीब जाएं तो जाएं कहां ? पंचसितारा अस्पताल तो शहरों में खुले हैं जहां घुस पाना गरीबों के वश में नहीं । हजारों-लाखों रुपयों के इलाज के लिए इनके पास पैसा नही है । दिन-प्रतिदिन निजी अस्पतालों की अमानवीयता भी उजागर होने लगी है । कमीशनखोरी के लालच में तमाम गैरजरूरी जांच कराने, पैसा कमाने के लालच में अनावश्यक आपरेशन करने की घटनाएं आम होती जा रही हैं ।
दरअसल प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों को धीरे-धीरे अपाहिज बनाकर ही तमाम निजी स्वास्थ्य केन्द्रों को लहलहाने का रास्ता साफ किया गया है । चिकित्सा की पढ़ाई लम्बी और अत्यधिक मंहगी बना कर वहां से गरीबों की बेदखली कर दी गई है । ऐशो आराम की जिन्दगी जीने वाले अमीर डाक्टर गांवों में न तो निजी अस्पताल खेल सकते हैं न प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर नौकरी कर सकते हैं । यही कारण है कि ग्रामीण क्षेत्रों में काम करने हेतु पंजीकरण कराए 67 प्रतिशत डॉक्टर अपनी सेवाएं उपलब्ध नहीं कराते हैं ।
अपने देश में 26 करोड़ लोग ऐसे हैं, जिन्हें खाने के लिए दाल, सब्जी या चटनी में से कोई एक चीज बामुश्किल मिल पाती है । ग्रामीण क्षेत्रों में 30 प्रतिशत लोगों की दैनिक उपभोक्ता व्यय 12 रुपए से कम है जबकि शहरी क्षेत्र के 30 प्रतिशत लोग, रोजाना खाने-पीने पर 19 रुपए से ज्यादा खर्च नहीं कर पाते हैं । 10 प्रतिशत ग्रामीण आबादी ऐसी है जिनके पास दैनिक व्यय के लिए 9 रुपए से ज्यादा उपलब्ध नहीं है । ऐसे लोगों से हम यह उम्मीद नहीं कर सकते कि वे शहरों के निजी अस्पतालों में जाकर हजारों-लाखों खर्च कर अपना इलाज करा सकें । गुर्दा प्रत्यारोपण, कीमोथरेपी, बाईपास सर्जरी या डायलेसिस करा पाना किसी गरीब के वश में नहीं है । दूसरी ओर देश के अमीरों के लिए चिकित्सा सुविधाओं का अम्बार है । वे दौलत के बल पर शरीर के अंग-अंग ठीक करा सकते हैं । बुढ़ापे की झुर्रियां हटवा सकते हैं । प्लास्टिक सर्जरी और लाइपोसक्शन कराकर अपनी काया बदल सकते हैं ।
अपने देश में 30 हजार से लेकर 50 हजार की जनसंख्या पर एक प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र हैं । इस प्रकार देश में कुल 22,669 प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्र है । राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की ताजा रिपोर्ट के अनुसार 8 प्रतिशत प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर एक भी डाक्टर नहीं हैं । लगभग 20 प्रतिशत स्वास्थ्य केन्द्रों पर एक या एक भी डाक्टर नहीं हैं । जहां डॉक्टर तैनात हैं वे काम पर नहीं जाते हैं। 39 प्रतिशत प्राथमिक स्वास्थ्य केन्द्रों पर लैब टेक्नीशियन नही हैं । 17.7 प्रतिशत केन्द्रों पर फार्मेसिस्ट नहीं हैं । ऐसे में अनुमान लगा पाना सहज है कि सर्वोच न्यायालय की टिप्पणी अकारण नहीं है । 10 हजार की जनसंख्या पर एक, अर्थात लगभग 1,50,000 उप स्वास्थ्य केन्द्र हैं जो अल्प प्रशिक्षित मिडवाइफों के हवाले हैं । ये मिडवाइफें कभी कभार टिटनेस का टीका या आयरन की गोलियां बांट कर अपने कर्तव्यों को पूरा कर लेती हैं । यहां बच्चा पैदा कराने की जरूरी सुविधाएं तक नहीं हैं ।
बेहतर स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध कराने के उद्देश्य से देश में कुल 3910 कम्युनिटी स्वास्थ्य केन्द्र बनाए गए हैं । इनमें से 59.4 प्रतिशत केन्द्रों पर सर्जन, 45 प्रतिशत केन्द्रों पर स्त्री एवं प्रसूति रोग विशेषज्ञ, 61.1 प्रतिशत केन्द्रों पर फिजीशियन और 53.8 प्रतिशत केन्द्रों पर बालरोग विशेषज्ञ नहीं हैं । लगभग 20 लाख की जनसंख्या पर एक, अर्थात 600 जिला अस्पताल हैं जहां सुविधाओं के नाम पर कुछ डॉक्टर एवं कुछ बिस्तर उपलब्ध हैं । अल्ट्रा साउण्ड, एक्स-रे या डायलेसिस की सुविधा ज्यादातर जिला अस्पतालों में कार्य रूप में नहीं है ।
उ0प्र0, बिहार, उड़ीसा, मध्यप्रदेश और राजस्थान जैसे `बीमारू´ राज्यों की स्थिति और भी खराब है । उ0प्र0 में लगभग 14,500 डॉक्टरों के पद हैं जिन पर मात्र 8000 डॉक्टर तैनात हैं । इनमें से चालीस प्रतिशत डॉक्टर ड्यूटी पर नहीं जाते हैं। प्रति वर्ष देश में 29,500 चिकित्सा स्नातक तैयार होते हैं जिनमें से अधिकांश शहरों या विदेशों की ओर रूख करते हैं । मेडिकल कौंसिल ऑफ इण्डिया के अनुसार देश में कुल 6लाख 83 हजार पांच सौ बयासी डॉक्टर पंजीकृत हैं जिनमें से अधिकांश शहरों में हैं । ग्रामीण क्षेत्र अब भी झोला छाप डॉक्टरों और नीम-हकीमों के हवाले है ।
गांवों में डॉक्टरों के न जाने के पीछे, चिकित्सा क्षेत्र में अभिजात्य वर्ग का वर्चस्व, डाक्टरी की महंगी पढ़ाई के कारण गरीब छात्रों की चिकित्सा शिक्षा से बेदखली, प्रमुख कारण है । आवागमन के साधनों और बिजली की अनुपलब्धता, शिक्षा और सुरक्षा की समस्या के कारण भी डॉक्टर वहां जाने से कतराते हैं ।
आज देश में डॉक्टरों की कमी तो है ही, योग्य डॉक्टरों की बेहद कमी है । चिकित्सा की पढ़ाई जिन मेडिकल कॉलेजों में होती हैं, उनमें से कईयों की हालत खराब है । मेडिकल कौंसिल ऑफ इण्डिया ने कुछ मेडिकल कॉलेजों में शिक्षकों की कमी को रेखांकित करते हुए उनके द्वारा जारी डिग्रिओं को अमान्य करने की चेतावनी दे दी है । इनमें से उ0प्र0 और बिहार के कई मेडिकल कॉलेज शामिल हैं । अगर हमने इस दिशा में ठोस कार्यवाही न की तो आने वाले दिनों में स्थिति और भयावह होगी । कॉन्ट्रैक्ट आधार पर शिक्षकों की तैनाती से काम नहीं चलने वाला है । योग्य शिक्षक कॉन्ट्रैक्ट आधार पर नहीं मिल सकते । चिकित्सा शिक्षा की पढ़ाई अयोग्य हाथों में देने का दुष्परिणाम घातक होगा ।
एक तो चिकित्सा की लम्बी और खर्चीली पढ़ाई के कारण मेधावी छात्र इस क्षेत्र में आने से बचने लगे हैं वहीं दूसरी ओर इंजीनियरिंग या मैनेजमेंट की पढ़ाई कम समय में पूरी हो जाती है और वहां पैसा कमाने के अवसर ज्यादा हैं । यही कारण है कि सी0पी0एम0टी0 की परीक्षाओं में शामिल होने वाले विद्यार्थियों की संख्या कम होने लगी है ।
एक ओर अशिक्षा दूसरी ओर गरीबी के कारण गरीबों की बीमारी जानलेवा होती जा रही है । गरीब तमाम पीर-बाबा, ओझा-सोखा के चंगुल में फंस कर दम तोड रहे हैं । गरीबी और मजबूरी उन्हें कोई राह नहीं सुझाती । चाहें इंसेफिलाइटिस का कहर हो या तपेदिक का, हर ओर कंधे पर लाश उठाए, विलाप करते मरीजों के परिजन दिख जाते हैं । ऐसे में सर्वोच्च न्यायालय की टिप्पणी हमारे लिए गम्भीर चेतावनी होनी चाहिए । हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि गरीबों को चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने की समस्या गम्भीर हो गई है । इस दिशा में कुछ ठोस किया जाना चाहिए । हमें औद्योगिक विकास दर की चिन्ता करने के पूर्व देश की बहुसंख्यक आबादी की चिन्ता करनी चाहिए । देश की बीस प्रतिशत आबादी के लिए सारी चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराकर हम अस्सी प्रतिशत आबादी के साथ अमानवीय व्यवहार कर रहे हैं । हमें अपनी प्राथमिकताओं को पुन: परिभाषित करने की आवश्यकता है । प्रचार के लिए अस्पताल बनवा देने से गरीबों का भला नहीं होने वाला है । जरूरी है अस्पतालों में डाक्टर, दवा और जांच की सुविधाएं भी हों ।

सुभाष चन्द्र कुशवाहा
बी 4/140 विशालखण्ड
गोमतीनगर
लखनऊ 226010