शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

अमानवीय व्यवहार और मजदूर आंदोलन

विगत कुछ माहों से देश में मजदूर आंदोलन की सुगबुगाहट, निजी सेवा के अमानवीयकरण की कथा-व्यथा उजागर करने के लिये पर्याप्त है । हुंडई, अशोक ले-लैंड और मारुति-सुजुकी के मजदूर आंदोलनों ने औद्योगिक नीति निर्माताओं को सचेत किया है और बताने की कोशिश की है कि जुल्म की भी इंतहा होती । यह तब हो रहा है जब वैश्वीकरण ने मजदूर चेतना को न केवल कुंद किया है अपितु तमाम मजदूर संगठनों को उत्पादक विरोधी बताते हुये हाशिये पर डालने की ऐसी अर्थनीति स्थापित की है जहां सरकारी और स्थाई नौकरियों के लिये जगह न बचे । नौकरियां घरेलू नौकरों की तरह बना दी जायें और पूरी तरह नियोक्ता की मर्जी पर निर्भर रहें । कानून सम्मत व्यवस्था का हस्तक्षेप समाप्त कर दिया जाये । सरकारें दायित्वविहीन, लाचार या मौन सहमति देती नजर आयें । दरअसल यह दास प्रथा का एक ऐसा रूप है जहां नौकरी छोड़ने का अधिकार तो है पर सेवा में रह कर स्वतंत्र सोच, सुविधा, मनुष्यता, घर-परिवार, समाज, भविष्य और राष्ट्रहीत के लिये सोचने का अवसर समाप्त कर दिया जा रहा है ।
वैश्वीकरण अर्थनीति में औद्योगिक क्षेत्रों में स्थाई कर्मचारियों की नियुक्तियां नहीं हो रहीं । संविदा के तहत सस्ते मजदूर रखे जा रहे हैं । कंपनी कर्मचारियों के हितों की सुरक्षा यथा- पेंशन, बीमा, शिक्षा और चिकित्सा से पूरी तरह मुक्त हो गयी है । निजी सेवाओं में प्रबंधकों की अच्छी पगारें, जल्दी-जल्दी बदलते मातहतों से हाड़तोड़ मेहनत करा लेती हैं । वहां सेवा की अनिश्चितता के चलते नौकरी बचाने के लिए सेवक दिन-रात कार्य करते हैं । कार्य के लक्ष्य ऐसे निर्धारित किये जाते हैं कि 16 से 18 घंटे कार्य करने पर ही नौकरी सुरक्षित रहे । घर पर भी लैपटाप पर काम करते हुए भोजन करना, चार से पांच घंटा सोना और संयुक्त परिवार से तौबा कर लेना, नई सेवा नीति का अमानवीय चेहरा है । लम्बे आंदोलन के बाद दुनिया के मजदूरों ने एक दिन में आठ घंटे काम का अधिकार हासिल किया था । आज वह अधिकार बेमानी साबित हो रहा है । विकास की नई प्रक्रिया इतनी अमानवीय बना दी गई है कि निजी सेवाओं से संबद्ध सेवक अपने मां-बाप की मृत्यु पर श्राद्ध जैसे कामों को पूरा नहीं कर पाते । वहां पत्नी और बच्चों के लिए समय की गुंजाइश नही है । फिर तो अन्य सामाजिक अभिरुचियों यथा, खेल-कूद, कला, संस्कृति, साहित्य के लिए समय के बारे में सोचना ही बेमानी होगी । निजी सेवायें, सेवकों की क्षमता का अंतिम बूंद निचोड़ लेना चाहती हैं और बदले में उन्हें डायबिटीज, ब्लडप्रेशर जैसी घातक बीमारियों का तोहफा सौंप रही हैं । संविदा और स्थाई कर्मचारियों के वेतन का अंतर, नौकरीकत्र्ता के प्रति सामाजिक संबंधों का विलोप, मजदूर आंदोलन के कारण हैं । केवल अपने लाभ के लिये कर्मचारी से काम लेना और उनकी मुश्किलों को दरकिनार करना, विकास का पैमाना नहीं हो सकता । अपने देश के नीजि क्षेत्र में कर्मचारियों से कितना काम लिया जाता है और बदले में उन्हें क्या दिया जाता है, इस संबंध में अर्थशास्त्री सुरजीत मजमूदार कहते हैं- 1998-99 की तुलना में वर्ष 2008-2009 में अपने यहां प्रति मजदूर ने दो लाख शुद्ध मूल्य सृजन(नेट वैल्यू एडेड) की तुलना में 6 लाख मूल्य सृजन किया जबकि इसी अवधि में उसके वेतन में नेट वेल्यू एडेड की तुलना में 18 प्रतिशत की तुलना में 11 प्रतिशत की कमी की गई । मारुति-सुजुकी के स्थाई कर्मचारियों को जहां 13000 से 17000 रुपये वेतन मिलता है वहीं संविदा कर्मचारियों को मात्र रु0 6500 ।
अपने देश में ज्यादातर मजदूर असंगठित क्षेत्रों में काम करते हैं और लचर श्रम कानून की सीमा से परे होते हैं । केवल 8-9 प्रतिशत मजदूर ही श्रम कानून के अंतर्गत आते हैं । इसके बावजूद हमारे उद्योगपतियों का नजरिया यह है कि फिक्की के श्रम ब्यूरो प्रमुख बी0पी0 पंत कहते हैं कि श्रम कानून अंग्रेजों के जमाने का है । तब की परिस्थितियां ऐसी थीं कि मजदूर हितों की हिफाजत की जरूरत थी । अब इसकी जरूरत क्या है ? यानी, अंग्रेजों की जगह भारतीय हैवानों से बचाने की कोई जरूरत नहीं ? यह तर्क गले नहीं उतरता । अब पंत हरियाणा स्थित मारुति-सुजुकी कंपनी में हड़ताल के कारणों का शायद ही खुलासा करें या बतायें कि बिना किसी वामपंथी संगठन के सोनू गुज्जर नामक आई0टी0आई0 पास एक कर्मचारी ने, जिसकी विगत पांच सालों में 98.1 प्रतिशत उपस्थिति रही, जिसे सर्वश्रेष्ठ आपरेटर पुरस्कार और सर्वश्रेष्ठ कर्मचारी के लिये प्रबंधकीय निदेशक ट्राफी दी गई, वह क्यों कर्मचारियों को आंदोलन के रास्ते पर ले जाने और कंपनी को घाटे में पहुचाने का कारण बना ? वह क्यों कंपनी को इस स्थिति में ले गया जहां प्रबंधकों को घोषणा करनी पड़़ी कि कंपनी हरियाणा से गुजरात स्थानान्तरित कर दी जायेगी ।
न्यायपरक औद्योगिक नीति का दायित्व होता है कि सेवक और स्वामी का संबंध, कार्य की गुणवत्ता, दायित्वबोध, सेवाभाव और कुल मिलाकर राष्ट्र सेवा की संस्कृति निर्धारित करे । पर संविदा सेवायें, सेवा और समाज से जुड़ाव नहीं पैदा कर रहीं , यहां तक की कार्यरत संस्थान से भी नहीं । जब सेवा शर्ते लोकतांत्रिक हों तो सेवक भी लोकतांत्रिक व्यवहार करता है अन्यथा तात्कालिक लाभ के लिए वह अलोकतांत्रिक तरीके अपनाता है जिसमें आंदोलन या तालाबंदी भी शामिल है । सेवक के अंदर दायित्वबोध का आभास तभी होता है जब उसे लगता है कि नियोजक, उसके दुख-सुख का साथी है । इसलिये औद्योगिक विकास और तालाबंदी से बचने के लिये जरूरी है कि प्रबंधतंत्र, मजदूर को परिवार का हिस्सा समझे और तदनुसार मानवीय व्यवहार करे ।