रविवार, 5 दिसंबर 2010

लोकरंग की आंच : सुभाष चन्द्र कुशवाहा: जातिवाद, मनुष्यता से नफरत करने की मानसिकता है

लोकरंग की आंच : सुभाष चन्द्र कुशवाहा: जातिवाद, मनुष्यता से नफरत करने की मानसिकता है

जातिवाद, मनुष्यता से नफरत करने की मानसिकता है

समता, समानता और बन्धुत्व को बढ़ावा देने वाले भारतीय संविधान को आत्मसात किए साठ साल बीत चुके हैं । यद्यपि कि विगत साठ सालों में जाति आधारित जनगणना नही हुई फिर भी जातिवादी घृणा और अमानवियता में कोई बदलाव नही आया है । जाति जनगणना से जातिवाद बढ़ने का मर्सिया पढ़ने वाले, प्राथमिक पाठशालाओं में मिड-डे-मील बनाने वाली दलित महिलाओं द्वारा तैयार भोजन को खाने से इनकार करने वाले समाज के कुलीन तबकों के जेहादी आचरण पर मौन हैं । प्रधानाध्यापक से लेकर गांव के सवर्णों द्वारा मनुष्यता के खिलाफ जो आचरण अपनाया जा रहा है, उसके खिलाफ समाज की चुप्पी, जातिवादी मानसिकता के दोगले चरित्र को उजागर करती है । न केवल सवर्ण अपितु कुछ पिछड़े और दलित भी जातिवादी मानसिकता से ग्रस्त हैं । यही है जातिवादी हिन्दू समाज की बुनियादी जड़ । यह जड़ जनगणना से न तो और गहरी होने वाली है और न जनगणना न होने से उखड़ने वाली ।
ब्राह्मणवाद ने अपनी सर्वोच्चता बनाये रखने के लिए इसकी जड़ें, इतनी पुख्ता कर दी हैं कि तमाम दलित और पिछड़े भी भुलावे में इसे सींच रहे हैं । अभी रमाबाई नगर(कानपुर देहात) के एक पाठशाला में दलित महिला द्वारा तैयार खाना न तो प्रधानाध्यापक ने खाया और न किसी बच्चों को खाने दिया । उल्टे गांव वालों को बटोर कर स्कूल में पथरबाजी कराई गई । प्रधानाध्यापक कहता रहा कि वह नब्बे दिन का व्रत रख लेगा पर दलित महिला द्वारा बनाया खाना न चखेगा । बेसिक शिक्षा अधिकारी कहते दिखे कि दलित रसोइया स्वीकार्य नहीं तो वह उससे कोई दूसरा कार्य करा लेंगे । ऐसी निरीहता, ऐसी बेचारगी पर भला क्या कहना ? कहां गई संविधान प्रदत्त समानता का अधिकार ? ब्राह्मणवाद द्वारा रोपी गई जातिवादी मानसिकता से मुकाबला करने की ताकत न तो शासन में है, न समाज इस कुचक्र को ठीक से समझ पाया है । और तो और उन्नाव के गांव रानीपुर में पासी जाति के रसोइये के हाथ का बना खाना अन्य दलित संवर्ग के बच्चों ने नहीं खाया । ऐसा अपने आप नहीं हुआ । इसमें वहां के प्रधानाध्यापक की मुख्य भूमिका रही । उसी ने अस्पृष्यता की ऐसी आग दहकाई जो धीरे-धीरे तमाम विद्यालयों में फैलती गई । अभी तो जाति आधारित जनगणना हुई ही नहीं, फिर मिड-डे-मील बनाने वाली दलित रसोइये के विरूद्ध जहर किसने धोला ? क्या यह दलित और पिछड़ों की राजनीति का परिणाम है या ब्राह्मणवाद द्वारा रोपे गए जातिवादी नफरत का ?हिन्दूधर्म में अब भी मनुष्य को इतना घृणित मान लिया जाता है कि उसका छूआ स्वीकार्य नहीं और पशुओं को माता की तरह पूजा जाता है । फिर ऐसे धर्म में मनुष्यता के बीज ढ़ूंढना ढ़ोंग नहीं तो क्या है ?
स्कूलों में खाने की गुणवत्ता या साफ-सफाई की बात नहीं उठाई जा रही है । बात पढ़ाई की भी नहीं उठाई जा रही है । व्रत करने का ढ़ोंग करने वाले प्रधानाध्यापक द्वारा दी जा रही शिक्षा के स्तर पर भी सवाल नहीं उठाया जा रहा है । बात महज यह है कि एक मनुष्य को इतना घृणित मान लिया जाता है कि उसके द्वारा तैयार खान, खाने योग्य नहीं ? कहां हैं शबरी के मीठे फल या विदुर का साग खाने का दृष्टान्त देने वाले ? कहां हैं दलित वोटों के लिए दलित सम्मान की रक्षा की बात करने वाले ?
हिन्दू समाज की सम्पूर्ण सामाजिकता, आर्थिक और प्रबंधकीय व्यवस्था ऐसे ही जातिवाद मानसिकता पर आधारित रही है । यहां कभी भी योग्यता या कर्म के आधार पर समाज को सम्मान नहीं मिला है । इसलिए जातिवादी आधार पर राजनीति का गोलबन्द होना भारतीय समाज का बुनियादी चरित्र रहा है । यहां आर्थिक से ज्यादा कुलीनतावाद या वर्चस्ववाद का सिद्धान्त प्रभावी रहा है । यहां चुनाव और वर्चस्ववाद एक दूसरे के पर्याय रहे हैं । लिहाजा हिन्दी प्रदेशों में ज्यादातर पार्टियां चुनावों में जातितवादी समीकरणों के सहारे वर्चस्ववाद को स्थापित करती हैं ।
जिस समाज का सम्पूर्ण ढ़ांचा जातिवादी हो, वहां की राजनीति जातिवाद विहिन कैसे हो सकती है ? हिन्दी प्रदेशों में जातिवाद के विरूद्ध, 19वीं सदी में पश्चिम बंगाल के `ब्रह्म समाज´ की तरह कभी भी कोई जन आन्दोलन नहीं छेड़ा गया। जाति आधारित जनगणना पर हाय तौबा मचाने वाले, मनुष्यता विरोधी जातिवाद के विरूद्ध कोई आन्दोलन नहीं खड़ा करना चाहते । दरअसल उनका जातिवाद विरोध का नाटक आरक्षण विरोध की मानसिकता से जुड़ा हुआ है । उनका जातिवाद विरोध, दलितों और पिछड़ों को शासन, प्रशासन में मिले स्थान के प्रतिकार के रूप में है । जिस समाज में गिनीज बुक ऑफ रिकार्ड में एक से एक बेहूदे आंकड दर्ज होते हों, वहां जातियों के आंकड़े जानने से भूचाल आने का अन्देशा है । तमाम लेखक भी इस आशंका से गले जा रहे हैं । गोया जाति गणना हुई तो सब कुछ खत्म । पर नब्बे दिन तक व्रतधारण करने की धमकी देने वालों के खिलाफ कोई आन्दोलन नहीं खड़ा करते ।
भारतीय जातिव्यस्था के केन्द्र में सबसे ज्यादा उपेक्षित, प्रताड़ित और घृणित दलितवर्ग रहा है । पिछड़ी जातियों को हासिल कुछ रियायतों के बावजूद, वर्णवादियों द्वारा उन्हें भी उसी प्रकार उपेक्षित और प्रताड़ित किया जाता रहा है जिस प्रकार दलितों को । इस प्रताड़ना को झेलने के बावजूद, जातिवाद की पीड़ा भोगने वाली पिछड़ी जातियों की स्थिति बड़ी ढुलमुल रही है । एक ओर तो वे जातिवाद की प्रताड़ना से आहत दिखती हैं, तो दूसरी ओर दलितों को प्रताड़ित या अपमानित करने के अवसर से चूकती नहीं । जीवन-मरण, शादी-व्याह के अवसर पर दलितों को खिलाने में, या मृतक पशुओं को फेंकवाने में जो नज़रिया सवर्ण रखते हैं, वही नज़रिया पिछड़ी जातियां भी रखती हैं । शायद इसलिए जातिवाद के खिलाफ दलितों और पिछड़ों की व्यापक गोलबन्दी अभी तक नहीं बन पाई है और दलित रसोइये द्वारा पकाये मिड-डे-मील को खाने से नकारने में सवर्णों के साथ पिछड़े भी आ जाते हैं ।
ऊंची जातियों द्वारा आज भी दलितों की बस्तियों में आग लगाई जाती है, उनकी बहू-बेटियों की इज्जत लूटी जाती है । जाहिर है ऐसे अपमान झेलने वाले दलित, अपना भविष्य दृष्टिहीन दलितवादी पार्टियों में सुरक्षित समझने लगे हैं । दूसरी ओर ब्राह्मणवाद जातिवाद समाप्त करने की मानसिकता में नहीं है । वह जानता है, जातिवाद समाप्त होते ही उसका अस्तित्व समाप्त हो जायेगा । जातिवादी हथियार के बल पर ही उसने लम्बे समय तक राज किया है । आज वही जातिगणना से जातिवाद बढ़ने का मर्सिया पढ़ रहा है ।
वर्णवादियों द्वारा आरोप लगाया जाता है कि जातिवादी फैलाव 1990 के पहले नहीं था । सच्चाई यह है कि नब्बे के पूर्व का जातिवाद छद्म और एकतरफा था । तब प्रतिरोध के स्वर नहीं थे । सवर्ण जातियों के जुल्म, दलित चुपचाप सह लेते थे । उनके अन्दर संचित आक्रोश को भुनाने के लिए नब्बे के बाद कुछ पार्टियां सक्रिय हुईं । यद्यपि कि उनके दृष्टिकोंण बहुत हद तक साफ और वैज्ञानिक नहीं थे तथापि उन्होंने पूर्व के पिछलगूपन से मुक्ति की बात उठाकर नए समीकरणों को जन्म दिया । उन्हें सत्ता हासिल हुई । जिसके प्रतिक्रिया स्वरूप यह प्रचारित किया जाता है कि नब्बे के बाद जातिवाद का फैलाव अधिक हुआ ।
इक्वीसवीं सदी की दहलीज पर खड़े भारत का पढ़ा-लिखा तबका जातिवादी मानसिकता से उबरने के बजाय, इसमें धसता जा रहा है । पंजाब, हरियाण जैसे समृद्ध राज्यों में दलित महिलाओं के साथ सामूहिक बलात्कार हो रहे हैं और पानी मांगने पर पेशाब पिलाया जा रहा है । तब हैवानियत की हद तक पहुंच चुके इस इंटरनेटयुक्त समाज में जाति विहिन राजनीति की फिलहाल कल्पना नहीं की जा सकती । मनुष्यता धर्म से ऊपर है, यह स्वीकार किये बिना ऐसी मानसिकता से मुक्ति सम्भव नहीं है । राजनीति तो जातिवाद को संरक्षित और फलने-फूलने का अवसर देती ही रहेगी क्योंकि उसने भारतीय समाज को विखण्डित कर सत्ता हासिल करने की संस्कृति इतिहास से सीखी है ।

सुभाष चन्द्र कुशवाहा
बी-4/140 विशाल खंड़
गोमतीनगर, लखनऊ 226010