रविवार, 12 जून 2011

इस आग की तपिश महसूस कीजिए

उदारीकरण की लूट, झूठ और फूट तंत्र से दुनिया कराह रही है । ऊंच-नीच की खाइयां बढ़ रही हैं । यह बात मध्य-पूर्व के देशों से लेकर भारत में भी दिखार्इ देने लगी है । टयूनीशिया में एक शिक्षित बेरोजगार युवक के आत्महत्या की प्रतिक्रिया में वहां के तानाशाह को देश छोड़ भागना पड़ता है तो समूचा मध्य-पूर्व का निजाम हिलता दिख रहा है । मिस्त्र, अल्जीरिया, सीरिया, सूडान और न जाने कितने नाम धधकने लगे हैं । नव उदारवादी पूंजीवादी नीतियों और शासकों के जनतंत्र विरोधी नीतियों से त्रस्त जनता प्रतिरोध के रास्ते पर बढ़ती नजर आ रही है । अन्ना हजारे जब भ्रष्टाचार के विरोध में भूख हड़ताल पर बैठते हैं तो देखते-देखते हर शहर, कस्बे में लोग घरों से निकलने लगते हैं । ये वो लोग हैं जो सामान्यतया अपनी दिनचर्या में मशगूल रहते आये हैं और कभी-कभी नवउदारवादी पूंजीवादी छलावे पर इतराते भी रहे हैं । आज वे उस छलावे की असलियत देख रहे हैं । वे इस उदारवादी लूट की अनैतिकता और अमानवीयता से विचलित हो गये हैं । अपने स्वार्थ के लिए हर कुकृत्य को जायज ठहराने वाले तंत्र की नंगर्इ देख रहे हैं । तभी तो वे इस सड़ाध से उठने वाले धुएं को देख आग धधकाने की तमन्ना लिए बढ़े चले आ रहे हैं ।
सर्वोच्च न्यायालय कह रहा है कि अमीर और गरीब, दो भारत नहीं हो सकते । बात सुनने में अच्छी लग रही है । मगर हकीकत तो यही है । अब तो खार्इ और गहरी हुर्इ है । और गहरी की जा रही है । शापिंग माल, पब, चियर्स गर्ल संस्कृति के अंदर हजारों लोग भूखों मर रहे हैं । मनरेगा पर करोड़ों लुटा कर भी गांवों की तस्वीर नहीं बदल रही । कन्या धन, विधवा पेंशन, वृद्धा पेंशन, इंदिरा आवास योजनायें गांवों तक जा कर सामंतों या प्रधानों के जेब में जा रही हैं और गांवों में ऊंच-नीच की खाइयां बढा़ रही हैं । पानी संचयन के नाम पर खोदे जा रहे तालाबों में पानी नहीं है और मिड-डे-मील खाने वाले बच्चे पढ़ार्इ का ककहरा भी नहीं सीख रहे हैं । दूसरी ओर वातानुकूलित स्कूलों की भव्य इमारतों में पढ़ रहे बच्चे हैं जो घुड़सवारी, तैराकी ही नहीं सीख रहे, कम्प्यूटर, इंटरनेट से अपना कल संवार रहे हैं । कहने को तो साक्षरता का ग्राफ ऊंचा हुआ है पर ऐसी साक्षरता किस काम की ? ऐसे साक्षर इस देश की राजनीति, अर्थतंत्र और समाजशास्त्र को समझने का ज्ञान नहीं रखते, सिर्फ पाखंडियों के प्रवचन सुनते हैं । ज्ञान का ग्राफ शहर और गांवों के बीच और भी चौड़ी खार्इ खींच रहा है । यानी कि एक साक्षर मात्र नाम लिखने भर को है तो दूसरा के0जी0 वन में ही फर्राटे से अंग्रेजी बोल रहा है । फिर भला दो भारत कैसे नहीं होंगे ? सारी नीतिया ही दो भारत के निर्माण के लिए बनार्इ जा रही हैं ।
सत्ता केन्द्रों के इर्द-गिर्द जो राजनीति हो रही है वह समाज के नैतिक मूल्यों को कुतर रही है । आज की राजनीति के पास मानवीय मूल्यों या नैतिकता के लिए बहुत कम जगह बची है । वोट जब पैसे और गुंडर्इ से खरीदे जा रहे हों वैसे में भला समाजिक मूल्यों की हिफाजत की बात करना मूर्खतापूर्ण जान पड़ेगी । जहां सिफारिशों के लिए उचित-अनुचित का विचार मायने नहीं रखता । हत्यारों को बचाने में राजनीति के उच्च तंत्र काम करते हों, गुंडे कानून को ठेंगा दिखाते हों, न्यायालयों की कार्यप्रणालियां धनिकों के पक्ष में तैयार की गर्इ हों, ऐसे में न्यायप्रिय तंत्र की बात कैसे की जा सकती है ? सांसद और विधायकी पैसे के बल पर हासिल की जा रही है और दूसरी ओर समाज के मानसिक स्तर को इतना गिरा दिया गया है कि पाउच बांटने वाले माननीय बना दिये जाते हैं । जाति, धर्म, आतंकवाद और अंधराष्ट्रवाद के बीच नैतिकता की बात करने वाले हासिये पर डाल दिये जाते हैं, तब पूरे तंत्र में भ्रष्टाचार, अनैतिकता और लंपटर्इ को सफलता का मापदंड मान लिया जाना कोर्इ आश्चर्य की बात नहीं कही जा सकती । ऐसे में समाज घोर निराशा के दौर से गुजरता दिख रहा है । वह ऊपर से जितना शांत दिख रहा है उतना है नहीं । आज अन्ना हजारे की मुहिम को जो सफलता मिलती दिख रही है वह समाज के अंदर पैदा निराशा और सत्ता तंत्र से उठते विश्वास का ही नतीजा है । समाज के तमाम मानसिक विभिन्नताओं और तमाम ऊंच-नीच की खाइयों के बावजूद ऐसी चेतना उपजती दिख रही है जो चुने प्रतिनिधियों को तो इस मुहिम से बाहर कर रही है पर पारदर्शी व्यकितयों को हाथों-हाथ ले रही है । दरअसल यह लोकतंत्रात्मक व्यवस्था के खोखलेपन को स्पष्ट करती दिख रही है । वोट से बदलती सत्तायें जनता को संतुष्ट नहीं कर पा रहीं । सिर्फ मजबूरीवश जनता ऐसे तंत्र के साथ दिखती जान पड़ती है । जैसे ही कोर्इ बयार उसकी हताशा, कुंठा और निराशा की नब्ज पकड, बहना शुरू करती है, जनता सड़कों पर आने को बेचैन दिखती है । उदारीकरण ने जितनी तेजी से अपने पांव फैलाये हैं शायद उतनी ही तेजी से परिवर्तन की बयार तूफान बनने को उमड़-घुमड़ रही है । आप भुलावे में मत रहिये । धुएं को देखिये और जितनी जल्दी हो सके तंत्र के दोगलेपन को नेस्तनाबूद कीजिये । वरना जनता अपना फैसला सुनायेगी और मजबूत से मजबूत तंत्र को सुनामी की तरह उखड़ फेंकेगी । बेहतर होगा कि दो भारत की कल्पना करने वाले जल्द से जल्द इस आग की तपिश को महसूस करें ।
सुभाष चन्द्र कुशवाहा
सृजन
बी 4140 विशालखंड
गोमतीनगर,लखनऊ 226010

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